श्रीसाईसच्चरित : अध्याय-२ (भाग-४१)

नानासाहब से जो था सुना। उससे भी कहीं अधिक ‘प्रत्यक्ष’ में पाया।
दर्शन पाकर मैं धन्य हुआ। नयन भी हो गए धन्य॥
कभी सुना था ना देखा था। ऐसा साईरूप देख दृष्टि निखर गई।
भूख-प्यास आदि सब कुछ मैं भूल गया। इन्द्रियाँ तटस्थ हो गयीं॥
होते ही साई चरणों का स्पर्श। प्राप्त हुआ जो परामर्श।
वही इस जीवन का परमोत्कर्ष। नूतन जीवन वहीं से॥

‘साईनाथजी से हुई पहली मुलाक़ात में ही हेमाडपंत की स्थिति किस तरह से उन्मन हो गई’ इसी का वर्णन इन पंक्तियों में किया गया है। हेमाडपंत कहते हैं कि नानासाहब चांदोरकर से जो सुना था उसके अनुसार साई का अनुभव मुझे प्रथम मुलाकात में तो हो ही गया, परन्तु इसके साथ ही चांदोरकर से बाबा के बारे में सुनकर मेरे मन में बाबा की जो प्रतिमा तैयार हुई थी, उससे भी कहीं अधिक मैंने प्रत्यक्ष दर्शन में पाया। बाबा के दर्शन से मैं स्वयं धन्य धन्य हो गया। इसके साथ ही आज मेरे नयन भी सफल हो गये हैं, ऐसा भाव उनके मन में भर आया। कभी किसी से ना सुना था ना ही कभी देखा था ऐसा था बाबा का सुंदर स्वरूप था। उस गोरे सलोने रूप को देखते ही मेरी दृष्टि धन्य-धन्य हो उठी। इसके साथ ही मेरी भूख-प्यास आदि सभी का शमन हो गया। सारी इन्द्रियाँ तटस्थ हो गई। साई के चरणस्पर्श के कारण जो यह परम अनुभूति मुझे प्राप्त हुई, उसी कारण जीवन का सर्वथा उत्कर्ष हुआ, जीवनविकास हुआ और बाबा की चरण धूल में लेटने से मुझे नया जीवन मिल गया।

दर्शनइस नये जीवन का मिलना ही हर किसी के लिए महत्त्वपूर्ण होता है और साई की चरणधूल में लेटे बगैर, लोटांगण किए बगैर इस तरह का नया जीवन प्राप्त नहीं होता। ‘नूतन जीवन वहीं से’ इस वाक्य के माध्यम से हेमाडपंत हम से यही कहना चाहते हैं कि साई के साथ इस पहली मुलाकात में ही मेरे अन्तर्मन का ‘मैं’ खत्म हो गया एवं बाबा का ‘श्रद्धावान’ रहनेवाले बाबा के दास का जन्म हुआ। अब तक मेरे जीवन के केन्द्र में मेरा ‘मैं’ था और इसी कारण मेरा जीवन सुख-दुखों के हिंडोले में झूल रहा था। परन्तु बाबा के साथ हुई पहली मुलाकात में ही मेरा ‘मैं’ बाबा के चरणों में पिघल गया और ये साईनाथ मेरे जीवन के केन्द्र-स्थान में ‘कर्ता’ बनकर विराजमान हो गए। ऐसा होते ही मेरा जीवन आनंदमय हो गया।

अब तक मेरे जीवन में कर्ता रूप में मेरा ‘मैं’ था और इसीलिए प्रारब्ध के प्रांत मैं जी रहा था, मैं प्रारब्ध के बस में था। परन्तु बाबा के समक्ष उनकी चरणधूल में लोटांगण करते ही संपूर्ण हरिकृपा मेरे जीवन में प्रवाहित हो उठी एवं ‘साईनाथ’ ही कर्ता रूप में मेरे जीवन में सक्रिय हो गए। नतीजा यह हुआ कि मैं प्रारब्ध के प्रांत से निकलकर हरिकृपा के प्रांत में आ गया, साईराम के राज्य का वानरसैनिक बन गया। हमें हेमाडपंत यहाँ पर काङ्गी महत्त्वपूर्ण रहस्य बतला रहे हैं कि प्रारब्ध के प्रांत से हरिकृपा के प्रांत में कैसे जाना होता है और रामराज्य का रहिवासी कैसे बनना है?

हम सभी जीवन में आनंदमय स्थिति चाहते हैं, समाधान चाहते हैं, स्थैर्य चाहते हैं। कल की चिंता सताते रहती है। साथ ही भूतकालीन गलतियों के परिणामों का भी भय बना रहता है। ऐसा क्यों होता है? क्योंकि मेरे जीवन का कर्ता मेरा ‘मैं’ होता है इसीलिए। जब तक मेरा ‘मैं’ कर्ता बनकर मेरे जीवन के केन्द्रस्थान पर विराजमान रहता है, तब तक मुझपर प्रारब्ध का अधिकार रहता है और इस प्रारब्ध का अधिकार होने के कारण ही मेरी स्थिति दिशा भटकी हुई नाव के समान हो चुकी होती है। आनंद, समाधान, स्थैर्य इनसे मैं वंचित रहता हूँ। यहीं पर हमें ध्यान देना चाहिए कि यह सब केवल हरिकृपा से ही प्राप्त हो सकता है और हरिकृपा केवल ‘श्रीहरि’ ही कर्ता बनकर जीवन के केन्द्रस्थान में हैं तो ही प्राप्त हो सकती है। श्रीहरि के बिना हरिकृपा भी नहीं मिलेगी। जब हम इस साई के चरणधूल में लोटांगण करते हैं तब हमारे मन में शारण्यभाव भले ही उस समय तक ही क्यों न हो किन्तु जागृत तो रहता है और यह शारण्यभाव ही मन के बंद हो चुके दरवाजे को खोल देता है। इस हरिकृपा को स्वीकार करनेवाले मार्ग को मैंने ही प्रारब्ध के कारण बंद कर रखा होता है। लोटांगण के कारण, साईचरणधूल में लोटने के कारण ये सारे मार्ग तेजी से खोल दिए जाते हैं और हरिकृपा मेरे मन में उचित रूप में प्रवाहित होती है।

हेमाडपंत ने साईनाथ को अपना सर्वस्व अर्पण करके जो संपूर्ण शारण्य भाव से लोटांगण किया, उनकी चरणधूल में पूर्ण देहसहित लोट गए, इससे उनके उस एक ही लोटांगण में ही उन्होंने बहुत बड़ा प्रवास किया और प्रारब्ध के प्रांत से हरिकृपा के प्रांत में आकर स्थिर हो गए। इसीलिए वे कह सकते हैं- ‘नूतन जीवन वहीं से’ । हेमाडपंत के समान बाबा की चरणधूल में इस तरह से लोटांगण करना यह हमारे लिए संभव क्यों नहीं है? निश्‍चित ही संभव है। स्वयं को संपूर्ण रूप से साईचरणों में समर्पित कर देना हमारे लिए अतिआवश्यक है। यही वास्तविक ‘आत्मनिवेदन’ भक्ति का रहस्य है।

हेमाडपंत की तरह लोटांगण करने से हमें भी नूतन जीवन अर्थात नया जन्म प्राप्त हो सकता है। हमारे पहले के क्लेशमय जीवन का अंत करके नवीन आनंदमय जीवन का आरंभ हम कर सकते हैं। आरंभ में मैं हेमाडपंत के समान उत्कट भाव के साथ लोटांगण नहीं कर पाऊँगा शायद, परन्तु काम्य भक्ति करते-करते हेमाडपंत के लोटांगण का बारंबार स्मरण करते हुए इस साईनाथ के समक्ष बारंबार लोटांगण करते रहना चाहिए और बाबा से प्रार्थना करनी चाहिए कि मुझे भी आपकी चरणधूल में इस लोटांगण स्थिति में ही रहना है।

पहले के जीवन में मेरा ‘मैं’ यह केन्द्रस्थान में होने के कारण मैं ‘अहंकारी’ रहता हूँ। अहंकार के कारण मैं इस धरती से एवं साईनाथ से भी दूर ही रहता हूँ। अहंकार के कारण मेरा पैर धरती पर नहीं होता, इसलिए मेरी जडें मज़बूत नहीं हो पातीं। लोटांगण अवस्था में मेरे देह का कण-कण, देह का प्रत्येक तत्त्व साईचरणों में, बाबा की चरणधूल में समरस हो चुका होता है। एवं भक्तिरूपिणी धरती के साथ भी मैं पूर्णरूप से संलग्न हो चुका होता हूँ। इस लोटांगण स्थिति में ही तब ऐसा भक्त स्थिर रह पाता है। लौकिक दृष्टि से हेमाडपंत उठकर खड़े हो गए हो, ङ्गिर भी वे संपूर्ण रूप में अपना सर्वस्व साईचरणों में सदैव के लिए समर्पित कर चुके थे यानी वे लोटांगण स्थिति में ही थे। अब उनका जीवन ‘लोटांगण’ स्थिति का बन गया था।

‘अहंकारवृत्ति’ से ‘लोटांगण’ तक का सफ़र तेज़ी से करते हुए हेमाडपंत हमें भी यही विश्‍वास दिलाते हैं कि हर एक श्रद्धावान इस स्थिति को प्राप्त कर सकता है। मेरा आज का जीवन ‘अहंकारी’ होने के कारण संकुचित हो चुका है। मुझे इस अहंकारी वृत्ति से बाहर आकर लोटांगण स्थिति में बाबा के ही चरणों में रहना है। अहंकारी वृत्ति यह मेरा पुराना, जीर्णशीर्ण, क्लेशमय जीवन है। उसका त्याग करके मुझे लोटांगण स्थिति में होने वाले नये आनंदमय जीवन का आरंभ करना है और यह केवल इस साईनाथ की चरणधूली में लोटांगण करने से ही हो सकता है, अन्य कोई भी यह नहीं कर सकता है, इस दृढ़ विश्‍वास के साथ मुझे केवल इस परमात्मा की ही शरण में जाना चाहिए।

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