श्रीसाईसच्चरित : अध्याय-२ (भाग- ४३)

नानासाहब से जो था सुना। उस से भी कहीं अधिक ‘प्रत्यक्ष’ में पाया।
दर्शन पाकर मैं धन्य हुआ। नयन भी हो गए धन्य॥

हेमाडपंत को प्रथम मुलाकात में ही याद आती है नानासाहेब चांदोरकर की। ‘चांदोरकरजी बारंबार बता रहे थे, उसकी प्रचिति तो आज मुझे मिल ही गयी, परन्तु साथ ही उससे भी अधिक अनुभव मुझे आज ‘प्रत्यक्ष’ दर्शन से प्राप्त हुआ।’ यह खयाल हेमाडपंत के मन में आता है। ‘प्रत्यक्ष’ दर्शन करना यह सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि सद्गुरुतत्त्व के पास हर किसी की अपनी अलग ‘कतार’ होने के कारण हर किसी को अपना-अपना अनुभव प्रत्यक्ष दर्शन से ही प्राप्त हो सकता है। चांदोरकर ने हेमाडपंत से बारंबार साईनाथजी के प्रत्यक्ष दर्शन करने का आग्रह किया था, उसकी वजह यही थी। नानासाहब चांदोरकर के साथ-साथ काकासाहब दीक्षित भी हेमाडपंत को याद आते हैं।

 प्रथम मुलाकात

हम भी इस साईनाथ के बारे में, उनकी लीलाओं के बारे में किसी भक्त के मुख से सुनते हैं, तब हमें बाबा का दर्शन प्रत्यक्ष करने का निश्‍चय करना ही चाहिए। कोई कहता है कि बाबा ने १९१८ में ही समाधि ले ली तो फ़िर अब ‘प्रत्यक्ष’ दर्शन कैसे किया जा सकता है? उत्तर आसान है- बाबा की तसवीर, उनकी प्रतिमा, उनकी मूर्ति यह केवल प्रतिमा या मूर्ति नहीं होती, बल्कि वह ‘प्रत्यक्ष’ मेरे साईनाथ ही हैं, इस भाव के साथ यदि हम साईनाथ का दर्शन करते हैं, तो वह भी प्रत्यक्ष दर्शन ही कहलाता है। इस में कोई शक नहीं है। बाबा ने देह भले ही छोड़ दिया है, परन्तु बाबा आज भी प्रत्यक्ष रूप में हमारे साथ हैं ही, इस बात का साईभक्तों को पूरा विश्‍वास होता है। क्योंकि बाबा के देह का आना जाना हो सकता है, पर बाबा तो सर्वत्र सर्वदा हैं ही, इस बात का विश्वास श्रद्धावान को होता ही है। इसीलिए जब मुझे साईनाथ के बारे में जानकारी मिलती है, उस समय मैं उस श्रद्धावान साईभक्त के घर में होने वाली तसवीर का अथवा उसके जेब में रखी हुई तसवीर का दर्शन करता हूँ और वह भी यदि मैं प्रेमभाव-सहित विश्‍वासपूर्वक दर्शन करता हूँ तो वह दर्शन भी ‘प्रत्यक्ष’ दर्शन ही है।

जिसकी श्रद्धा दृढ़ है, उस श्रद्धावान को फ़िर उचित समय आने पर बाबा स्वयं ‘प्रत्यक्ष’ दर्शन तो देते ही हैं, इस बात पर भी ध्यान देना जरूरी है। नानासाहब चांदोरकर एवं काकासाहब दीक्षित के बार बार कहने से ही हेमाडपंत के मन में साई के प्रत्यक्ष दर्शन की इच्छा निर्माण हुई। इस के साथ ही बाबा कैसे होंगे, इस बात की प्रतिमा भी उनके मन पर रेखांकित हो चुकी थी। हमारे साथ भी कुछ ऐसा ही होता है, हमें जब बाबा के बारे में पता चलता है, बाबा की लीलाएँ, बाबा की बातचीत, उनका आचरण इस बारे में जब जानकारी प्राप्त होती है। तब हमारा मन स्वयं की कल्पना के द्वारा बाबा का एक चित्र बनाता है। बाबा ऐसे होंगे कि वैसे होंगे आदि कल्पनाओं के आधार पर ही हमारा मन बाबा की एक प्रतिमा निर्माण कर लेता है।

उस समय हमें ऐसा प्रतीत होता है कि बाबा ऐसा आचरण करेंगे बाबा वैसा आचरण करेंगे, उन्हें यह पसंद होगा या वह पसंद होगा आदि। परन्तु हमें यह तो ध्यान में रखना ही चाहिए कि किसी से बाबा के बारे में सुनकर उसी जानकारी के आधार पर हमारे मन के द्वारा बाबा के बारे में की गई कल्पना यह प्रत्यक्ष साईनाथ नहीं हैं, बल्कि वह हमारे मन में मन के द्वारा ही बनाई गई एक काल्पनिक प्रतिमा है। हमारा मन कितना ‘परफ़ेक्ट’ है इस बात का पता तो हमें होता ही है। इस दुनिया में एकमात्र इस साईनाथ को छोड़कर कोई भी ‘परफ़ेक्ट’ नहीं है और इसी लिए हमें अपनी कल्पनाओं पर निर्भर न रहकर या नवनवीन कल्पनाएँ न करते हुए स्वयं जाकर ‘प्रत्यक्ष’ बाबा का दर्शन करना चाहिए और प्रत्यक्ष साईनाथ का स्वरूप चित्त पर इस दर्शन के द्वारा रेखांकित किया जाना यह हमारे लिए अत्यन्त आवश्यक है।

हेमाडपंत यहाँ पर स्वयं का यही अनुभव बता रहे हैं कि मेरे मन में मैंने बाबा की जिस प्रतिमा को रेखांकित किया था, उसकी अपेक्षा कई गुना अधिक मैंने बाबा के प्रत्यक्ष दर्शन के द्वारा अनुभव किया। हेमाडपंत कहते हैं कि पहले मेरे मन के द्वारा बनाया गया बाबा का चित्र यह मेरी कल्पना थी। जब प्रत्यक्ष रूप में साईनाथजी को मैंने देखा, तब मुझे एहसास हुआ कि उनके उस स्वरूप की कल्पना कोई कर ही नहीं सकता था। इस बात का पता बाबा का ‘प्रत्यक्ष’ दर्शन होते ही, बाबा प्रत्यक्ष में कैसे हैं यह देखते ही हेमाडपंत को हो जाता है। हकीकत तो यह है कि बाबा का सच्चा स्वरूप जानना किसी के बस की बात नहीं है, परन्तु मेरे लिए मेरे साईनाथ कैसे हैं, इस बात का पता तो हर किसी को बाबा के प्रत्यक्ष दर्शन से चल ही जाता है।

जिस तरह हम किसी व्यक्ति की पासपोर्ट साईज़ की फ़ोटो देखते हैं और मन में उसी से उस व्यक्ति की छबी बना लेते हैं कि वह व्यक्ति उतना ही बड़ा एवं उतने ही आकार का है, लेकिन जब हम उस व्यक्ति से प्रत्यक्ष मुलाकात करते हैं, तब हमें असलियत का पता चलता है कि वह कैसा है। बिलकुल वैसे ही यहाँ भी होता है। यहाँ पर ऐसा होने का कारण यह है कि नानासाहब एवं काकासाहब के समान श्रेष्ठभक्त यहाँ पर साईबाबा के बारे में हेमाडपंत को बता रहे हैं। इसीलिए कम से कम बाबा की एक छोटी सी प्रतिमा उनके मन में अपना घर बना चुकी थी। बाबा से ‘प्रत्यक्ष’ मुलाकात होते ही उनकी समझ में यह बात आ गई कि बाबा उस प्रतिमा से कहीं अधिक थे। परन्तु उनके मन में जो प्रतिमा मूलत: बैठी हुई थी वह गलत नहीं थी, केवल छोटी थी।

इसके विपरीत साईसच्चरित में ऐसे भक्तों की कथा भी हम पढ़ते हैं कि मूलत: वे दूसरों से गलत बात सुनकर साईनाथ के प्रति अपने मन में गलत प्रतिमा का निर्माण कर लेते हैं। बाबा के प्रत्यक्ष दर्शन होते ही पहलेवाली गलत धारणा मिट जाती है और साईनाथ का स्वरूप उनके मन के कॅनव्हॉस पर अंकित हो जाता है। इसीलिए साई के बारे में कोई कुछ भी यदि कहता है तब भी स्वयं जाकर साईनाथ का प्रत्यक्ष दर्शन किए बगैर अपनी कोई भी राय नहीं बनानी चाहिए, बल्कि स्वयं जाकर अनुभव करना चाहिए।

हमें साईनाथ के प्रति जानकारी देने वाले कौन हैं, कैसे हैं, उनका हेतु क्या हैं, इस बात की जानकारी हमें नहीं होती है। इसीलिए उन लोगों की बात सुनकर अपने मन में साईनाथ के प्रति काल्पनिक प्रतिमा तैयार करने की अपेक्षा हमें स्वयं ही जाकर, प्रत्यक्ष जाकर स्वयं अनुभव लेकर ही निर्णय करना चाहिए।

हमारे मन का सामर्थ्य ही क्या है? उस मन के द्वारा रेखांकित किया गया और वह भी अपनी कल्पना के आधार पर रेखांकित किया गया बाबा का मानसचित्र! क्या यह ठीक होगा? साक्षात् परमात्मा को इस प्रकार की चौखट में क्या हम सामान्य मानव बाँध सकते हैं? फ़िर भी ‘बाबा को ऐसे समय पर ऐसा ही करना चाहिए’ इस तरह की कल्पनाएँ हम इस प्रतिमा के आधार पर ही करते रहते हैं।

बाबा को किसी भी पूर्वग्रह के आधार पर न देखते हुए, बाबा जैसे हैं वैसे ही उनका दर्शन करना यही है प्रत्यक्ष दर्शन करना। हमारी कल्पनाओं के आधार पर, मन के पूर्वग्रह की पट्टी यदि हम अपनी आँखों पर लगा लेते हैं तो हम प्रत्यक्ष रूप में देख ही नहीं सकते। इसीलिए ये साईनाथ जैसे हैं वैसे ही उनकी छबी को मन में उतारते रहना अधिक महत्त्वपूर्ण है। हेमाडपंत को बतलाने वाले काकासाहब एवं नानासाहब के समान श्रेष्ठ भक्त थे इसीलिए कम से कम उनके मन में गलत प्रतिमा निर्माण नहीं हुई थी। हेमाडपंत के मित्र के इकलौते बेटे का निधन हो जाने से उनके मन में होने वाली गुरुप्रतिमा को ठेस जरूर पहुँची थी, परन्तु नानासाहब जैसे श्रेष्ठ भक्त के साथ होनेवाली चर्चा से उनके मन की आशंका मिट गई थी। उनसे नानासाहब ने यही कहा कि आप प्रत्यक्ष जाकर उनसे मिलकर देख लीजिए!

इसके पश्‍चात् प्रत्यक्ष साईनाथ से मुलाकात होते ही, ‘साईनाथ जैसे हैं वैसे ही’ हेमाडपंत के हृदय पर अपनी छाप अंकित कर गए और इसके पश्‍चात् ‘कभी भी कहीं भी बाबा की प्रतिमा को ठेस न लगने पाये’ इस पुरुषार्थ को हेमाडपंत ने निश्‍चित रूप से किया। बाबा क्रोधित हुए, बाबा ने मुड़कर देखा तक नहीं, चिंदीचोर कहा, फ़िर भी स्वयं के मन में होनेवाली बाबा की सद्गुरु-प्रतिमा को ज़रा सी भी ठेस न लगने देनेवाले बालासाहब देव जैसे भक्तश्रेष्ठ का आदर्श ऐसे समय पर हमें अपने सामने रखना चाहिए।

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