श्रीसाईसच्चरित : अध्याय २ (भाग-१)

पूर्वाध्यायी मंगलाचरण। हो गए देवताकुलगुरुवंदन।
साईचरित्रबीज पेरकर। अब प्रयोजन का आरंभ करें॥

पिछले अध्याय में मंगलाचरण हो गया, देवता-कुलगुरु आदि को भी वंदन करके हो गया। बाबा ने ही पिछले अध्याय में साईसच्चरित के बीज पेरे दिए। अब इस अध्याय में प्रयोजन, अधिकारी आदि का दिग्दर्शन बाबा ही करेंगे। इस अध्याय का नाम ही ‘कथाप्रयोजन नामकरण’ इस प्रकार है। पिछले अध्याय में गेहूँ पीसनेवाली लीला द्वारा बाबा ने ही हेमाडपंत का ‘अनुबंध‘ मानो ‘प्रेम का अनुबंध’ स्थापित किया है। हेमाडपंत को श्रीसाईसच्चरित लिखने की प्रेरणा मिली। अब इस अध्याय में प्रयोजनादि वर्णन के साथ ही ‘हेमाडपंत’ इस नामकरण की कथा भी हेमाडपंत बता रहे हैं।

sainath- ‘कथाप्रयोजन नामकरण’

प्रथम अध्याय के अंतिम पंक्ति में ही हेमाडपंत ने दूसरे अध्याय में क्या होगा इसका निर्देश किया है।

‘वैसे ही श्रोतावक्ताओं का निजहित। ऐसा है यह साईसच्चरित ।
रचनाकार कौन हैं हेमाडपंत।हो जायेगा विदित आगे चलकर॥

हेमाडपंत के अन्त:करण में साईप्रेम से विकसित होनेवाला प्रेम, माधुर्य एवं सौंदर्य अब किस तरह अधिकाअधिक बहर रहा है, यही हम देखते हैं। पहले के समय में घर में बच्चे का जन्म होने पर बाहरवे दिन ‘बारसा’ करते थे अर्थात नामकरण समारोह का आयोजन किया जाता था। उस बच्चे को ‘नाम’ दिया जाता था। यह हमें प्राप्त होने वाला प्रथम ‘नाम’। इसके पश्‍चात् आठवे वर्ष गुरुकुल में गुरुके पास शिक्षा हासिल करने के लिए भेजा जाता था, उस समय उस बालक का विधिवत संस्कार किया जाता था और गुरु उसे पुन: नया नाम देते थे और उसी नाम से वह गुरुकुल में जाना जाता था। प्रथम नाम मानो पहला जन्म वहीं दूसरा ‘नाम’ अर्थात दूसरा जन्म। प्रथम जन्म प्रथम नाम माता-पिता प्रदान करते थे और दूसरा जन्म, दूसरा नाम ‘गुरु’ प्रदान करते थे। हेमाडपंत स्वयं के बारे में घटित होनेवाली घटना के भावार्थ वाली कथा यहाँ बता रहे हैं। ‘गोविन्द रघुनाथ दाभोलकर’ यह नाम पहले से उनका था ही। परन्तु सद्गुरु साई की चरणरज से मिलतेही उनका दूसरा जन्म हुआ। जननी जब जन्म देती है तब नौ महीने पूरे होते ही वह बच्चे को पेट से बाहर निकाल देती है। वहीं ये सद्गुरु माऊली अपने बच्चे की, अपने भक्त को हमेशा के लिए अपने प्रेम के वात्सल्य के अंकुश में ले लेती है। वह कभी भी अपने भक्त का तिरस्कार नहीं करती यही उनका बचन है।

जननी को नैसर्गिक प्रक्रियानुसार बच्चे को बाहर निकालना अर्थात जन्म देता जरूरी होता है। परन्तु यह सद्गुरु माऊली बाहर की बात तो छोड़ ही दें परन्तु कभी भी भक्त को किसी भी कारण से अपने से ‘दूर’ नहीं करती। इस साईनाथ की हस्तमुद्रा जिसके सिर पर अंकित हो गई वह हमेशा के लिए साईनाथा का हो जाता है। बाबा उस भक्त को कभी भी अपने से दूर नहीं करते।

बाबा ने मुझे चरणधूल भेट में नया जन्म तो दिया ही परन्तु बाबा ने पूरी तरह से मेरा स्वीकार कर मेरा नामकरण किया, मुझे नया जन्म दिया, मुझे नयी पहचान दी। ‘मैं’ बाबा का ही दास हूँ, उनके ही पैरों का पायदान (खड़ाऊँ) हूँ’ यह पहचान बाबा ने ही मेरे नामकरण से मुझे करवायी। इस अध्याय में हेमाडपंत बाबा से होने वाली प्रथम भेट, चरणधूल भेट एवं हेमाडपंत नामकरण ये दोनों ही अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कथा बता रहे हैं। सचमुच हेमाडपंत को नया जन्म प्राप्त हुआ, बाबा ने उनके इस नामकरण द्वारा उनके इस भूमिका का अहसास भी उन्हें करवाया। नामकरण संस्कार बहुत ही महत्त्वपूर्ण संस्कार है, इसी नाम को हमें आगे चलकर सार्थक करना होता है। सद्गुरु जब नामकरण करते हैं, तब उस नामकरण में ही मेरे जन्म की इतिकर्तव्यता होती है। मुझे मेरे सद्गुरु प्रदत्त नाम को ही सार्थ्य करने के में ही पुरुषार्थ के लिए आवश्यक होने वाला सामर्थ्य होता है। इस अध्याय में हेमाडपंत हमें उनके इस नामकरण की कथा ही बता रहे हैं।

सर्वप्रथम अनुबंध चतुष्ट्य के चार बातों में से प्रयोजन संबंध एवं अधिकारी इन तीनों का संक्षेप में अध्ययन करेंगे। अभिधेय संबंधित अध्ययन हमने प्रथम अध्याय में किया है। श्रीसाईनाथ का चरित्र ही इस ग्रंथ का ‘अभिधेय’ है, अर्थात यही इस ग्रंथ का मुख्य विषय है। ‘पापापनोद’ अर्थात पापों का समूल विनाश करना यही इस ग्रंथ का प्रयोजन है। पाप का नाश केवल भर्ग से हो सकता है, प्राप्ति, ओज को प्रबल प्रेरणा प्राप्त कराना यही इस ग्रंथ का प्रयोजन है। इस तरह ये पापदाहक भर्ग, वरेण्या तेज केवल इस परमात्मा साईनाथ के पास ही है और वे ही मुझे दे यह सकते हैं, वे ही हमें पाप के दलदल से बाहर निकालकर निरंतर सामीप्य देनेवाले हैं, और यही इसका संबंध है।

इस ग्रंथ के अधिकारी अर्थात भोले भाविक श्रद्धावान। हेमाडपंत स्पष्टरुप में कहते हैं कि ज्ञान, चर्चा आदि इस ग्रंथ का विषय बिलकुल न होकर परमात्मा की भक्ति ही है, इनका प्रेम ही इस ग्रंथ में जगह-जगह पर प्रवाहित होते रहता है और इसी कारण इस ग्रंथ के अधिकारी भोले-भाले श्रद्धावान हैं।

सन्मार्ग दर्शक संत चरित्र। न तो वह न्याय है ना ही तर्कशास्त्र।
तब भी होगा जो संत कृपात्र।उसके लिए विचित्र कुछ भी नहीं।
तब भी श्रोताओं से यह है विनति।हो जाओ ‘जी’ इस आनंद के सहभागी।
धन्य हुआ वह भाग्यवान पा संतसंगति।कथाव्यासंगी निरंतर जो।

हेमाडपंत बड़े ही आत्मीयता से श्रोताओं से प्रार्थना करते हैं कि सचमुच बाकी सबकुछ छोड़कर भोली-भाली भक्ति सहित इस साईनाथ के श्रद्धावान बन जाओ, फिर इस आनंद के अनुभवी तुम बनोगे ही। हेमाडपंत इस विनति के साथ ‘जी’ इस शब्द का प्रयोग करते हैं वह बड़ा ही मनमोहक एवं मधुर है। ‘हो जो इस आनंद का सहभागी।’ इससे स्मरण होता है पुन: उस प्रथम अध्याय के ‘जी’ का।

बहुत हुआ अब दत्तचित्त।सुनो ‘जी’ जो हुआ मधुर वृतांत।
होगा बाबा के प्रति आश्‍चर्य बहुत।कृपावंतत्त्व देख उनका।

प्रथम अध्याय के कथा का आरंभ करने से पूर्व ही यह ‘जी’ आता है। सचमुच हेमाडपंत की हमारे बारे में कितनी तड़प है यही यहाँ पर हम जान पाते हैं। हेमाडपंत को क्या ज़रूरत है हमसे विनति करने की? कुछ भी नहीं परन्तु यही एक सच्चे श्रद्धावान की पहचान है। जब श्रद्धावान को इस प्रेमस्वरूप साईनाथ के प्रेम का अनुभव आता है, तब उस की ओर से इस साईनाथ का प्रेम अपने आप ही सभी दिशाओं में फैलने लगता है और ऐसी स्थिति में उसे जो भी मिलता है उससे यह श्रद्धावान इस साईनाथ के प्रेम का अनुभव लेने की विनति करने लगता है। आओ, मेरे इस साईनाथ के प्रेम का अनुभव करों ‘जी’, यही श्रद्धावान का भाव होता है।

हेमाडपंत का यह ‘जी जिस तरह श्रोताओं के लिए है, उसी तरह बाबा के लिए भी उनके मन में सदैव ‘जी’ ही हैं। ‘जी’ अर्थात ‘हामी!’ ‘हाँ जी’ का यह ‘जी’ बाबा के प्रति होनेवाले प्रेम के कारण ही होता है फिर बाबा जो कुछ भी कहते हैं, उसे ‘जी’ बाबा! बस इतना ही श्रद्धावान कहते रहता है। बाबा को कभी भी ‘नहीं’ कहना यह एक श्रद्धावान के शब्दकोष में होता ही नहीं है। हमें इस अध्याय में आने वाले इस ‘जी’ को सीखना चाहिए। बाबा गोविंदराव दाभोलकर को ‘हेमाडपंत’ कहकर संबोधित करते हैं और वे बाबा को ‘जी’ ही कहते हैं। हाँ बाबा, मैं आज से हेमाडपंत ही ‘जी’! हाँ जी! बाबा द्वारा दिया गया नाम ही हेमाडपंत इस ‘जी’ भूमिका द्वारा धारण करते हैं और अंत में लेखनी एवं (मस्तक) माथा अर्पण करके बाबा का बुलावा आ जाने पर भी हाँ ‘जी‘! कहकर इस लोक की यात्रा, को पूर्ण करते हैं।

यहाँ पर मुझे और भी एक श्रेष्ठ भक्त का स्मरण हो रहा है और वे हैं द्वारकामाई गोपीनाथ पाध्ये! वे कभी भी जब गोपीनाथ शास्त्रीजी को पुकारना होता था तब उन्हें ‘जी’ कहकर ही पुकारती थीं और उनके पुकारने अथवा कुछ कहने पर भी ‘जी’ कहकर ही उत्तर देती थीं। अपने पति के प्रति होने वाले अनन्य प्रेम के कारण ही द्वारकामाई के मुख से यह ‘जी’ शब्द प्रकट होता था! इस ‘जी’ में प्रेम, आदर आज्ञापालन सभी कुछ है।

इस अध्याय में हेमाडपंत की ओर से हमें यदि कुछ सीखना हैं, तो सर्वप्रथम बाबा को ‘जी’ कहना सीखो।

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