श्रीसाईसच्चरित अध्याय १ (भाग ५८ )

कल हमने गेहूँ पीसने वाली लीला के निमित्त से बाबा ने भक्तों की त्रुटी दूर करके उनके जीवन विकास को गति प्रदान कर उनकी आकृति को कैसे परिपूर्ण किया इस बात का अध्ययन किया। उच्चार, कृति एवं आकृति ये तीनों बातें हरक्षेत्र में अपना महत्त्व रखती हैं। साईसच्चरित के हर एक कथा का अध्ययन इन्हीं के आधार पर करके हमें अपनी आकृति को परिपूर्ण करने का प्रयास करते ही रहना चाहिए। हमें बाबा की भक्ति करके अपनी आकृति परिपूर्ण करनी होती है और इसके लिए सबसे पहले भक्ति की आकृति हकीकत में कैसी है उसे समझ लेना बहुत ज़रूरी है। भक्ति की आकृती को समझने के लिए भक्ति का उच्चार अर्थात क्या, भक्ति की कृति क्या है और भक्ति की आकृति अर्थात निश्‍चित रुप में क्या है और कैसी है इन बातों को जान लेना अति आवश्यक है।

भक्ति
उच्चार – प्रेम
कृति – सेवा (उपासान एवं सेवाकार्य का मेलजोल)
आ़कृति – शारण्य

sadguru_sainath- सद्गुरु साईनाथ

श्रीअनिरुद्ध बारंबार हमें प्रेम, सेवा एवं शारण्य इस त्रिसूत्री के बारे में बताते ही हैं। ‘प्रेम’ यही भक्ति का उच्चार है, सेवा ही भक्ति की कृति है और शारण्य ही भक्ति की आकृति है। हमें साईनाथ की भक्ति करनी है तो प्रेम-सेवा-शारण्य इस त्रिसूत्री को जीवन में उतारना ही चाहिए कारण इसके बगैर मेरे जीवन में भक्ति की आकृति परिपूर्ण हो ही नहीं सकती, हेमाडपंत साईसच्चरित के प्रथम अध्याय में ही भक्ति का उच्चार, कृति एवं आकृति इनका बिलकुल स्पष्ट रूप में वर्णन करके हम सब के लिए भक्तिमार्ग का रास्ता आसान बनाते हैं।

मंगलाचरण में सद्गुरु साईनाथ के वंदन की प्रथम पंक्ति ही भक्ति की आकृति को सुस्पष्ट करनेवाली है। सचमुच हेमाडपंत को निमित्त बनाकर बाबा ही हमारे लिए परमार्थ सहज सरल बनाकर बता रहे हैं। इसकी प्रचिति हमें इस पंक्ति के अध्ययन पश्‍चात् ही मिलती है।

साईवंदन की यह प्रथम पंक्ति ही हेमाडपंत ने इतनी अप्रतिम लिखी है कि उस एक पंक्ति में ही साई भक्ति का सारा रहस्य वे हमारे सामने आसान तरीके से प्रस्तुत कर दिखाते हैं। श्रोताओं के वंदन पश्‍वात् आने वाली पंक्ति अर्थात पंक्ति क्रमांक ४३ ही वह अद्भुत पंक्ति है।

अब करते हैं सद्गुरु स्मरण। प्रेम से वंदे उनके चरण।
जायें कायावाचा मनसे उनकी शरण। बुद्धिस्फुरणदाता जो॥

हेमाडपंत सद्गुरु साईनाथ को वंदन करते समय सर्वप्रथम कहते हैं कि अब इस सद्गुरु साईनाथ का हम ‘स्मरण’ करें, प्रेमपूर्वक  इस साईनाथ के चरणों में वंदन करें तथा काया, वाचा, मन:पूर्वक अर्थात सर्वथा साईनाथ की शरण में जायें। ये साईनाथ ही बुद्धि को स्फुर्ति प्रदान करने वाले हैं।

सद्गुरु का सर्वप्रथम ‘स्मरण’ करना, उनकी, ‘स्मृति’ सदैव रखना यही भक्ति की आकृति जीवन में प्रवाहित करने की पहली सीढ़ी है। सद्गुरु के स्मरण से ही हमें भक्ति का उच्चार, कृति एवं आकृति का आकलन होकर हमारे जीवन में हम भक्ति की आ़कृति सिद्ध कर सकते हैं। सद्गुरु की ‘स्मृति’ ही ‘भक्ति’ कहलाती है। वहीं इस सद्गुरुराया की ‘विस्मृति’ होना यही विभक्ति है। इसी सत्य को हेमाडपंत यहाँ पर स्पष्टरूप में बताते हैं। यहाँ पर हेमाडपंत ‘करूँ’, ‘वंदू’, ‘जायें’ इस प्रकार के क्रियापद का उपयोग करते हैं। अर्थात ‘हम सभी को मिलकर ये सभी कुछ करना हैं।’ यही इसके प्रति होने वाला भाव है। यहीं पर वे हमें सामूहिक उपासना, सेवा आदि का महत्त्व विशद करके बताते हैं। अकेले-अकेले चलने की अपेक्षा इस भक्ति मार्ग पर सभी को मिलकर सामूहिक रूप में प्रवास करना है तभी हमें, हर किसी को प्रचंड रूप में ओज के स्पंदन तो प्राप्त होंगे ही साथ ही हमारा प्रवास भी वेगपूर्वक, अचूक दिशा में, अत्यन्त आसान तरीके से, आनंदमय प्रेमप्रवास होगा। यह हेमाडपंत कहते हैं। ‘प्रेमपूर्वक’ यह शब्द इसीलिए दोनों पंक्तियों में आने वाला सामाईक शब्द है ऐसा वे लिखते हैं। इस पंक्ति के माध्यम से ही हेमाडपंत भक्ति का उच्चार, कृति एवं आकृति अर्थात विशेष तौर पर है क्या? इस बात का वे दिग्दर्शन करते हैं। भक्ति का उच्चार, कृति, एवं आकृति अर्थात विशेष तौर पर है क्या इस बात का वे दिग्दर्शन करते हैं।

भक्ति का उच्चार
अब करें सद्गुरुस्मरण । ‘प्रेमपूर्वक’

मन में प्रेम होने बगैर सद्गुरु का स्मरण होगा ही नहीं और यदि हो भी गया तो भी अधिक समय तक वह कायम नहीं रह सकता है। सद्गुरु का सदैव प्रेमपूर्वक स्मरण करना अर्थात मुझे अपना स्मरण जितना एवं जैसे सतत रहता है उससे कही अधिक स्मरण इस सद्गुरु साईनाथ का होना चाहिए। अब देखिए, दिनभर हर कार्य करते समय ‘मुझे अपना’ स्मरण होता है, ‘मैं’ स्वयं अपने आप को कभी भी भूलता नहीं हूँ । इस ‘मैं’ के स्मरण के साथ ही मुझे सदैव इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि ‘मैं’ जिसका दास हूँ, उस सद्गुरु साईनाथ का स्मरण होना ही चाहिए। जितना समय ‘मैं’ अपना स्मरण करता हूँ कम से कम उतनी देर तो मैं इस साईनाथ का दास हूँ और मुझ इस साईनाथ का बनकर रहना है, इस बात का ध्यान तो रखना ही चाहिए। अर्थात मुझे इस साईनाथ का होकर रहना है, इनके प्रेम को स्वीकारते हुए इन पर प्रेम करते रहना है। यह निर्धार ही इस सप्रेम स्मरण में ही मेरे मन की ओर से अपने आप होता रहता है। ‘केवल साईनाथ का प्रेम और प्रेमही’ यही सच्ची भक्ति का उच्चार है।

भक्ति की कृति
‘प्रेमपूर्वक वंदन करें उनके चरणों में।’

स्वयं भक्तिरूपिणी महालक्ष्मी माता सदैव मुख से अत्यन्त प्रेमपूर्वक इस महाविष्णु के नाम का स्मरण करती रहती हैं तथा हाथों से उनकी सेवा। ‘चरण सेवन’ यही अर्थ हेमाडपंत हमें इस पंक्ति द्वारा स्पष्ट करके दे रहे हैं। प्रेमपूर्वक साईनाथ के चरणों में वंदन करें। इस वंदन का अर्थ तो इस में हैं ही परन्तु इसके साथ ही प्रेमपूर्वक सेवा यह अर्थ भी इसमें है। इस साईनाथ के चरणों को वंदन करना अर्थात बाबा के कार्य में शामिल होना। अपनी पूर्ण क्षमता के साथ साईनाथ की उपासना एवं सेवाकार्य इन में सक्रिया रहना। यही भक्ति की कृति है। सद्गुरु साईनाथ के चरणों में वंदन करना अर्थात बाबा के कार्य में शामिल होना, अपनी पूर्ण क्षमता के साथ साईनाथ की उपासना एवं सेवाकार्य इन में सक्रिय रहना। यही भक्ति की कृति है। सद्गुरु साईनाथ के चरणों में वंदन करना अर्थात बाबा को जैसे चाहिए, उसी प्रकार का आचरण मुझसे हो। उचित आचरण, मर्यादाशील कृति यहाँ पर इसका अभिप्राय यही है।

भक्ति की आकृति
शारण्य ही भक्ति की आकृति है, शारण्यभाव अर्थात पूर्ण समर्पण। श्रीहनुमानजी इस शारण्य भाव के आदर्श रूप में हमारे सामने हैं एवं सुंदरकाण्ड पर होने वाला ‘तुलसीपत्र’ इस अग्रलेख मालिका द्वारा श्री अनिरुद्ध अत्यन्त सुंदर तरीके से हनुमानजी की आकृति हमारे सामने रेखांकित कर रहे हैं। शारण्यभाव ही भक्ति की सर्वोच्च सीढ़ी है। भक्ति की आकृति है। मैं तुम्हारे प्रति पूर्णत: समर्पित हो चुका हूँ, पूर्णत: ‘तुम्हारा’ हो चुका हूँ, तुममें और मुझमें अब कोई भी अवरुद्धता नहीं है, ‘अनिरुद्धता’ ही अब मुझ में और इस साईनाथ में है यही है शारण्यस्थिति। स्मरण से मेरा ‘मैं’ पन होने वाला मन ‘स्मरण’ पर चला जाता है और तुम्हारे, साईनाथ तुम्हारा, ‘तू’ भी मेरे ‘मैं’ पर स्वार हो जाता है। और मैं केवल तुम्हारा ही बनकर रह जाता हूँ, भगवान भक्त के इस समारोह का अनुभव करते हुए तुम पर अधिकाअधिक प्रेम करते हुए तुम्हारे ही चरणों का पादत्राण बनकर सदैव तुम्हारे समीप रहता हूँ अर्थात तुम्हारे ‘शरण’ में आ जाता हूँ।

मेरी आकृति अर्थात मेरी काया, मेरी वाचा एवं मेरा मन। परन्तु जब इस कायावाचामन से अर्थात पूर्णत: ‘मैं’ इस साईनाथ का हो जाता हूँ, उनकी शरण में चला जाता हूँ तब ‘तुम और मैं मिलकर’ यह स्थिति प्राप्त होती है। अब मेरा ‘मैं‘ सदैव पादत्राण की तरह इस साईदत्ता के चरणों में रहता है। साईचरणों का पादत्राण बननाही शारण्य कहलाता है।

हमें भी भक्ति की आकृति को जीवन में पूर्णत: रेखांकित कर लेनी है और इसके लिए प्रथम अध्याय की इस पंक्ति को हमारे जीवन में उतारना चाहिए। इस तरह भक्ति की आकृति को साकार करने के लिए जिस भक्त का ‘प्रेम’ यही निर्धार एवं ‘सेवा’ यही ‘कृति’ होती है, उसकी बुद्धि को प्रबल प्रेरणा देकर भक्ति की आ़कृति को परिपूर्ण करने के लिए ये बुद्धिस्फुरणदाता साईनाथ तो समर्थ हैं, ही। भक्ति यह मनसे नहीं बुद्धि के आधिपत्य में रहकर मन को मर्यादाशील बनाकर साध्य करनेवाली होती है और इसके लिए हमारे ‘धि’ को अर्थात बुद्धि को प्रबल प्रेरणा केवल ये साईनाथ ही दे सकते हैं, अन्य कोई भी नहीं।

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