श्रीसाईसच्चरित : अध्याय २ (भाग- १०)

सुनते ही उसे हो सावधान।
अन्य सुख तृण समान ।
भूख-प्यास का हो शमन।
संतुष्ट हो जाये अन्तर्मन।

हेमाडपंत साईमुख से निकलने वाले मधुर कथाओं के बारे में ऊपरलिखित पंक्तियों में जो वर्णन करते हैं, वे हमारे लिए साईसच्चरित के कथाओं के बारे में भी उतना ही सच है, इन पंक्तियों का सरलार्थ तो स्पष्ट है हि की वे कथाएँ सावधानीपूर्वक सुनने पर जो आनंद मिलता है, उस आनंद के कारण अन्य सुख तृण समान लगने लगते हैं। अर्थात अन्य विषयों की कोई कींमतही न ही रह जाती। उसी प्रकार इन कथाओं को सुनते समय भूख-प्यास भी हम भूल जाते हैं, अन्तर्मन की गहराई तक संतुष्टता के भाव जाग उठते हैं। और मन पूरी तरह से संतोष का अनुभव करता है।

साथ ही इन पंक्तियों के द्वारा हेमाडपंत हमें श्रीसाईसच्चरित की कथाएँ किस तरह से हमारे जीवन का विकास करती हैं यह भी बताते हैं। श्रीसाईसच्चरित की कथाओं का पठन करते समय अत्यन्त प्रेमपूर्वक, भक्तिभावसहित उसका पठन करते समय अथवा उसका प्रेमपूर्वक श्रवण करते रहने पर भी हमारा जीवनविकास कैसे होता है यही हेमाडपंत यहाँ पर हमें बतलाते हैं। यहाँ पर ‘सुनना’ का अर्थ केवल कानों से ही सुनना न होकर मन:पूर्वक सुनकर उसे अपने आचरण में उतारकर उसी के अनुसार व्यवहार भी करना चाहिए।

‘सुनना’ अर्थात श्रवण करना उसी प्रकार ‘सुनना’ अर्थात उसके अनुसार आचरण करना यह भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है। मैंने आवाज ‘सुनी’ इस में से सुनना यह अर्थ तो यहाँ पर है ही पर इसके साथ ही यदि किसी को हम कुछ कहते हैं, और कहने के बाद ही वह उसके अनुसार आचरण नहीं करता है तब हम उसे कहते हैं कि तुम्हें कहने पर भी तुम मेरी बात नहीं ‘सुनते’ हो इस में ‘सुनना’ भी बहुत महत्त्वपूर्ण है। माँ जैसे बच्चे से कहती है कि तुम पढ़ाई करो, परत्नु वह खेलता ही रहता है तब माँ कहती है, ‘तुम मेरी बात नहीं सुनते हो।’ इस में जो सुनना है वही हमारे लिए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है।

साईसच्चरित की कथाओं को हम कानों के साथ-साथ मन से सुनकर उसके अनुसार आचरण करते हैं इसका अर्थ यह होगा कि हमने उसे सुना। इन कथाओं के माध्यम से बाबा जो कह रहे है, वह मुझे सुनना चाहिए। उदाहरणार्थ – राधाबाई की कथा सुनते समय हमें बाबा जो श्रद्धा-सबूरी का महत्त्व बता रहे हैं, उसे सुनना चाहिए। नहीं तो राधाबाई की कथा सुनने के बाद यदि मैं भी कहता हूँ कि, ‘मैं अन्न-पानी छोड़कर बाबा से गुरुमंत्र लूँगा यह उचित नही हैं, इसका अर्थ यह हुआ कि मैंने उस कथा को सुना ही नहीं। यदि इस कथा में बाबा स्वयं श्रद्धा-सबूरी का गुरुमंत्र हर किसी को दे रहे हैं तो बाबा के मुख से मिलने वाला यह गुरुमंत्र ही नहीं क्या? यह गुरुमंत्र सुनना एवं श्रद्धा-सबूरी का पालन करना अर्थात यह कथा सुनना।

हेमाडपंत हमें इस पंक्ति के माध्यम से और भी एक रहस्य बता रहे हैं जो इस पंक्तियों का सारांश देखने पर हमारी समझ में आ जायेगा। इन पंक्तियों के सारांश से ही हमें पता चलता है कि इस साईसच्चरित की कथाएँ सुनने से ये कथाएँ ही हमारे जीवन में चार महत्त्वपूर्ण तत्त्व हमें प्रदान करती हैं। इन पंक्तियों का मंथन करने पर हमें इसी मर्म का पता चलता है। इन कथाओं को सुनने से वे भक्तों को ‘सावधान’ करती हैं। अर्थात सावधान रहना सिखाती हैं। ये कथाएँ ही सच्चे आनंद को जीवन में प्रवाहित करती हैं, जिन सुखों की चाह में हम जीवन भर भटकते रहते हैं उन सुखों को वे अपने आप ही तृण समान कर देती हैं। ये कथाएँ हमारे भूख-प्यास का शमन करती हैं अर्थात नष्ट कर देती है, खत्म कर देती है। यहाँ पर भूख प्यास भूल जाना तथा उनका शमन होना इन दोनों का अर्थ भिन्न हैं। हेमाडपंत यहाँ पर स्पष्टरुप में कहते हैं ‘विस्मरण हो जाये भूख-प्यास का’ ऐसी ही स्थिती में ये कथाएँ हमारे अन्तर्मन में उतरकर हमारे अन्तर्मन को संतुष्ट कर देती हैं।

इसका अर्थ है ये कथाएँ सुननेवाले भक्तों के जीवन में चार तत्त्व प्रवाहित होते हैं –
१)सावधानी, २)आनंद, ३)पूर्णता/परिपूर्ती, ४)समाधान/संतुष्टि

‘प्रथम है सावधानता’ संतश्रेष्ठ रामदासस्वामी के इस वचन का स्मरण हमें यहाँ पर होता है। हर किसी के लिए हर एक क्षेत्र में यह सावधानी अपना अलग महत्त्व रखती है। यहाँ पर ये कथाएँ हमें सावधानता प्रदान करती हैं। इसका अर्थ यह है कि मैं अपने साई के भक्ति में, सेवा में पूर्णत: सावधान रहता हूँ। मुझे क्या करना है, क्या नहीं करना है इस बात की मैं पूरी सावधानी बरतता हूँ। मुझ में कौन से दुर्गुण है और इसके वजह से मैं कहाँ पर धोखा खा सकता हूँ। इस बात का अहसास होते ही मैं समय रहते ही सावधान हो जाता हूँ। इसके साथ ही मुझमें कौन से सद्गुण हैं और उन्हें मैं कहाँ बढ़ा सकता हूँ इसके प्रति भी मैं समय रहते सावधान हो जाता हूँ। मुख्य तौर पर मेरे साईनाथ मुझसे क्या चाहते हैं इसके प्रति मैं सावधान रहता हूँ।

दूसरी बात यह है कि ये कथाएँ मुझे जो देती हैं, वह है आनंद। अन्य सुख जो मुझे पहले सोने की राशी के समान लगते थे। वह अब मुझे सूखे हुए घास के तृणों के समान निरर्थक लगते हैं। कारण उन सुखों के पीछे रहने वाले रुखेपन का अहसास मुझे हो जाता है, वह इन कथाओं के कारण ही, जिन्हें मैं असलियत मैं सुख मानता था, जिन्दगी मानता था वह तो सुख है ही नहीं। सच्चा शाश्‍वत सुख अर्थात आनंद जो वे केवल साईनाथ के चरणों में ही है इस बात का ज्ञान मुझे इन कथाओं के माध्यम से ही प्राप्त होता है एवं इन कथाओं के पठन से, श्रवण से ही इन कथाओं के आनंद का स्वाद मैं लेता हूँ, उसका सेवन करता हूँ और तब मुझे उन कथाओं के रसास्वादन का आनंद मिलता है उसकी मधुरता बढ़ने लगती है और फिर उन कथाओं के समक्ष उससे मिलने वाले आनंद के समक्ष अन्य बातों का कोई महत्त्व नहीं रह जाता है।

‘विस्मरण हो जाये भूख-प्यास का।’ यह और भी एक महत्त्वपूर्ण बात ये कथाएँ मुझे प्रदान करती हैं। कभी-कभी जब हम टी.व्ही. पर मैच, फ़िल्म अथवा अन्य कोई कार्यक्रम देखते-देखते इतने अधिक रम जात हैं कि, उस वक्त हमें भूख-प्यास का अहसास भी नहीं होता। ताश खेलते समय अथवा शतरंज खेलते समय भी अकसर हमारी स्थिती कुछ ऐसी ही हो जाती हैं, परन्तु यह तो केवल विस्मरण है, इससे हमारी भूख प्यास खत्म नहीं होती बल्कि उस कार्यक्रम अथवा खेल के समाप्त होते ही हमें भूख लगती हैं। यह तो हुई पेट की भूख। परन्तु जब हम निंदा करते हैं तब उसकी भूख खत्म होने के बजाय बढ़ते ही जाती है। ताश खेलते समय एक और डाव कहते-कहते भूख बढ़ती ही रहती है। कोई भी विषय वासना हमारी भूख का अंत नहीं होने देती बल्कि उसे बढ़ाते ही रहती हैं। परन्तु यहाँ पर बाबा की कथा सुनते समय केवल भूख-प्यास का विस्मरण ही नही होता बल्कि उसका शमन हो जाता है। अर्थात बाबा की ये कथाएँ हमारी कभी भी न खत्म होने वाली तृष्णा को खत्म कर देती हैं । विषय-वासनाओं के पिछे भागने वाली तृष्णा को होती है उसका अंत हो जाते ही हमारे मन में साईनाथ की ‘पिपासा’ जागृत हो जाती है। साईनाथ के प्रेमरस का पाव करने की उत्कटता ही हमारी तृष्णा की समाप्त कर देती हैं।

इसके साथ ही इसका एक और महत्त्वपूर्ण अर्थ है ये कथाएँ हमारे जीवन की कमियों को, अपूर्णता को समाप्त करती हैं। भूख-प्यास जो निर्माण होती हैं वह इसी कमतरता के कारण ही, अपूर्णता के ही कारण, साई की ये कथाएँ हमारे जीवन में किसी भी प्रकार की ‘कमी’ नहीं रहने देती हैं, हमें पूर्णताप्रदान करती हैं। सभी प्रकार की परिपूर्ति करनेवाली ऐसी हैं ये कथाएँ। सचमुच ये कथाएँ जीवन में बिलकुल संसारिक धरातल पर भी हमारे गृहस्थ जीवन में भी किसी भी प्रकार की कमतरता नहीं आने देती कारण ‘तुम्हारा भार मैं वहन करूँगा सर्वदा। नहीं अन्यथा यह वचन मेरा॥ बाबा के इस वचन को बाबा ही पूर्ण करते हैं।

चौथी बात इस कथा से पूर्ण होती हैं, वह है समाधान बाकी सब कुछ होकर भी यदि मन संतुष्ट नहीं होगा तो सब कुछ होकर भी व्यर्थ ही है। अनेक साधनों की सुविधा हमारे पास यदि है परन्तु मन ही संतुष्ट नहीं होगा तो ये सारे हाँय-मारी करने का क्या मतलब? बाबा की ये कथाएँ मात्र हमारे मन को सर्वोत्तम महत्त्वपूर्ण समाधान प्रदान करने वाली हैं। पिछले लेख में हमने इससे संबंधित लेख देखा ही है। बाबा की ये कथाएँ मानो दत्तात्रेय की गाय ही हैं और ये दत्तात्रेय साईनाथ अपनी गईयों सह विराजित हैं, वहीं पर सारे ऐश्‍वर्य हैं, वहीं पर आनंद है, पूर्णता है, समाधान है।

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