तंजावर

tanjavur palace

भारत के विभिन्न प्रदेशों की भौगोलिक परिस्थिति के अनुसार भारतीयों के आहार में भी थोड़ीबहुत भिन्नता रहती है। उत्तरी भारत में आहार में गेहुं की प्रधानता रहती है, वहीं दक्षिणी भारत में चावल की प्रधानता रहती है। तमिलनाडु राज्यस्थित ‘तंजावर’ को तमिलनाडु राज्य के चावल के भण्डार के रूप में जाना जाता है। तंजावर यह शहर तंजावर जिले की राजधानी है। कावेरी नदी के दक्षिणी तट पर यह शहर बसा हुआ है।

प्राचीन समय में यह शहर चोळवंशीय राजाओं की राजधानी के रूप में मशहूर था। तंजावर या तंजपुरी नामों के द्वारा परिचित इस शहर को विजयालय चोळ इस राजा ने जीत लिया। चोळवंश की राजसत्ता का उत्कर्ष भी इसी शहर ने देखा है। चोळ राजाओं के कार्यकाल में इस शहर में कईं मन्दिरों का निर्माण हुआ और उन मन्दिरों में से एक है, ‘बृहदीश्वर’ का मन्दिर, जिसे आज ‘जागतिक सांस्कृतिक धरोहर’ (वर्ल्ड हेरिटेज) के तौर पर घोषित किया गया है।

चोळ राजाओं को परास्त करके पाण्ड्य वंश के राजाओं ने यहॉं अपनी सत्ता प्रस्थापित की। इन पाण्ड्य राजाओं की राजधानी थी, मदुराई। अत एव राजधानी के रूप में होनेवाली तंजावर की गरिमा पाण्ड्य राजसत्ता के दरमियान स्वाभाविक तौर पर घटती गयी। इसवी १५३५ में विजयनगर के राजा ने नायक राजाओं को तंजावर शहर पर अपने प्रतिनिधि के रूप में नियुक्त किया और १७वी सदी के मध्य तक नायक राजाओं का तंजावर पर शासन था। १७वी सदी में मदुराई के नायकों ने इन तंजावर के नायकों से सत्ता हासिल की और इसवी १६७४ में मराठा राजा व्यंकोजी ने इस शहर को जीत लिया। इसवी १७४९ तक, अंग्रे़ज सर्वप्रथम तंजावर में आ पहुँचे। और अक्तूबर १७९९ में ‘ब्रिटीश ईस्ट इंडिया कंपनी’ के हाथ में तंजावर की सत्ता की डोर आ गयी और फिर तंजावर यह अंग्रे़ज साम्राज्य का एक हिस्सा बन गया। अंग्रे़जों ने उनकी सहुलियत के लिए इस शहर का नामकरण ‘तंजोर’ इस तरह से कर दिया। भारत को स्वतन्त्रता प्राप्त होने तक इस शहर पर अंग्रे़जों की हुकुमत थी और भारत की स्वतन्त्रता के साथ-साथ अंग्रे़जी हुकुमत का भी अन्त हो गया।

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चोळ राजवंश के राजराजा चोळ-१ ने तंजावर शहर में एक गगनस्पर्शी मन्दिर का निर्माण किया, जो ‘बृहदीश्वर मन्दिर’ इस नाम से जाना जाता है। युनेस्को ने इस मन्दिर को ‘जागतिक धरोहर’ (वर्ल्ड हेरिटेज) के तौर पर घोषित किया है। यह मन्दिर उसका विस्तार और उसकी सुन्दरता उनके लिए मशहूर है। इसवी १०१० में इस मन्दिर का निर्माणकार्य पूरा हुआ। ऐसा कहा जाता है कि जिन राजराजा-१ नामक राजा ने इस मन्दिर की नींव रखी, उन्हीं राजा के कार्यकाल के पच्चीसवे वर्ष के २७५वे दिन इस मन्दिर का निर्माणकार्य पूरा हुआ। इस मन्दिर की दीवारों पर अंकित शिलालेखों के द्वारा उस समय के तंजावर शहर के बारे में जानकारी प्राप्त होती है। उस समय यह शहर ‘भीतरी विभाग’ और ‘बाहरी विभाग’ इन दो विभागों में विभाजित था। इन शिलालेखों में ही इस शहर के रास्तों के नाम एवं अन्य मन्दिरों के नाम भी लिखे गये हैं। इन शिलालेखों के द्वारा यह जानकारी प्राप्त होती है कि इस शहर के विष्णुमन्दिर से संलग्न एक सार्वजनिक रुग्णालय का निर्माण भी किया गया था।

बृहदीश्वर मन्दिर के ‘विमान’ अर्थात् कलश की ऊँचाई लगभग ६५ मीटर्स है और वह दुनिया का सबसे ऊँचा कलश माना जाता है। इस कलश की रचना कुछ इस तरह से की गयी है कि साल के किसी भी मौसम में दोपहर के समय इसकी परछाई जमीन पर नहीं पड़ती। चोळ राजाओं के कार्यकाल में इस मन्दिर की महत्ता अनन्यसाधारण थी। इस मन्दिर के कलश का निर्माण ८१ टन व़जनवाले ग्रॅनाईट पत्थर से किया गया है। ऐसा कहते हैं कि इस ८१ टनवाले ग्रॅनाईट पत्थर को, छः किलोमीटर की दूरी पर स्थित उसके मूल स्थान से मन्दिर तक ले आने के लिए एक विशिष्ट प्रकार की उतारवाली रचना की गयी थी, जिसके कारण उस पत्थर को वहॉं तक ले आना आसान हो जाये। इस मन्दिर के नन्दी का निर्माण अखण्ड पाषाण में से किया गया है और मन्दिर की ऊँचाई १२ फीट, लम्बाई २० फीट एवं व़जन २५ टन है।

विस्तार की दृष्टि से देखा जाये, तो इस मन्दिर का विस्तार बहुत ही प्रचण्ड है; साथ ही यह मन्दिर उसकी उत्कृष्ट शिल्पकला के लिए भी मशहूर है। लेकिन जिस समय इस मन्दिर का निर्माण किया गया, उस समय के उपलब्ध साधनों का विचार करने पर इस मन्दिर का निर्माण यह एक अजूबा ही माना जाता है। भगवान शिवजी और उनसे सम्बन्धित कईं कथाएँ, प्रसंग, व्यक्तिरेखाएँ इस मन्दिर में शिल्प के रूप में विराजमान हैं।

तंजावर पर शासन करनेवाले नायक और मराठा राजाओं ने तंजावर के राजमहल का निर्माण किया। तंजावर की कठपुतलियॉं भी बहुत मशहूर हैं।

जिस तरह तंजावर में शिल्पकला का विकास हुआ, उसी तरह एक विशिष्ट प्रकार की चित्रकला का भी विकास हुआ। ‘तंजोर पेंटींग’ के रूप में यह चित्रशैली मशहूर है। १६वी सदी में इस चित्रकला का तंजावर में विकास हुआ।

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इस चित्रशैली में वस्त्र पर देवताओं की प्रतिमाएँ-देवताओं से सम्बन्धित प्रसंग चित्रांकित किये जाते हैं। वस्त्र को पहले लकड़ी के त़ख्ते पर चिपकाया जाता है। उसपर चित्रों का प्राथमिक रेखाटन किया जाता है। चित्रों में रंग भरने के बाद उनकी सुन्दरता को बढ़ाने के लिए चित्ताकर्षक मणियों का इस्तेमाल किया जाता है। इन मणियों के द्वारा चित्रस्थित देवताओं के आभूषण, उनके वस्त्र आदि सुशोभित किये जाते हैं। इनके अलावा विभिन्न प्रकार के रंगबिरंगे धागे एवं लेस इनका इस्तेमाल भी किया जाता है। साथ ही एक विशेषता यह भी है कि इन चित्रों में सोने के वर्ख का प्रयोग भी किया जाता है।

सोलहवी सदी में विकसित हुई इस चित्रशैली ने आज इक्कीसवी सदी में भी तंजावर में अपना अस्तित्व बरक़रार रखा है। आज के कुछ चित्रकारों ने इस चित्रशैली को जीवित रखा है।
तंजावर के राजाओं ने प्राचीन समय के इतिहास का जतन करने के उद्देश्य से अपनी निजी लायब्ररी में कईं हस्तलिखितों का संग्रह किया है। इसी संग्रह को नायक राजाओं के कार्यकाल में ‘सरस्वती भण्डार’ कहा जाता था। भविष्य में कईं राजाओं ने इस भण्डार को अधिक बढ़ाते हुए इसका जतन किया। इसवी १९१८ में इस संग्रह को आम लोगों के लिए खुला कर दिया गया और ‘सरस्वती महल लायब्ररी’ के रूप में यह जाना जाने लगा।

तंजावर के महाराज सरफरोजी ने उनके कार्यकाल में इस लायब्ररी में बहुत सारे हस्तलिखितों का समावेश किया। जिस तरह इस लायब्ररी में भूर्जपत्रों पर लिखे गये हस्तलिखितों का संग्रह है, उसी तरह काग़ज के पन्नों पर लिखे गये हस्तलिखितों का भी संग्रह है। तंजावर यह चावल का भण्डार होने के कारण यहॉं चावल संशोधन केन्द्र विद्यमान है। साथ-साथ मिट्टी और पानी के संशोधन का केन्द्र भी यहॉं विद्यमान है। इसवी १८९३ में यहॉं स्कूल की स्थापना की गयी और पच्चास वर्ष पुराना मेडिकल कॉलेज भी यहॉं है। इनके कारण तंजावर आज भी शिक्षा के केन्द्र के रूप में जाना जाता है। कला, शिल्प, स्थापत्य इनकी सुन्दरता से निखरता तंजावर आज भी इन्हीं विशेषताओं के कारण जागतिक सांस्कृतिक धरोहर के रूप में मशहूर है।

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