कन्याकुमारी भाग-१

इस पृथ्वी पर भूमि का प्रमाण ३०% है और जल का प्रमाण ७०% है, यह हम स्कूल में पढते ही हैं। पृथ्वी पर जल अधिक प्रमाण में है इस बात का अनुभव हम कर सकते हैं, भारत के दक्षिणी छोर पर। पृथ्वी पर सागर, उपसागर, महासागर आदि विभिन्न रूपों में जल रहता है। क्या कभी ये सागर, उपसागर, महासागर एक-दूसरे से कहीं मिलते भी है? जी हाँ! यह हम देख सकते हैं, हमारे सुपरिचित स्थान में , तमिलनाडू के कन्याकुमारी में।

कन्याकुमारी

कन्याकुमारी भारत का दक्षिणी छोर। यहीं पर अरब सागर, हिन्द महासागर और बंगाल उपसागर आपस में मिलते हैं। इन तीनों का आपस में मिलना हम देख सकते हैं, कन्याकुमारी के सागर में स्थित ‘विवेकानंद रॉक’पर से। तीन विभिन्न रंगों के जलों का अस्तित्व और तीन विभिन्न नामों का अस्तित्व बड़ी आसानी से एक-दूसरे में घुल-मिल जाता हैं।

दरअसल ‘कन्याकुमारी’ इस शब्द से, इस शहर का नाम ‘कन्याकुमारी’ कैसे हुआ होगा, इस बात का हमें थोडा बहुत अनुमान तो हो चुका होगा। यहाँ पर कुमारी देवी का मंदिर है और इसी देवी के नाम से इस क्षेत्र का नाम ‘कन्याकुमारी’ हो गया। कुमारी देवी के बारे में एक कथा प्रचलित है। बाणासुर नाम के एक राक्षस ने साधना कर शंकरजी से अमरत्व का वरदान माँग लिया। इस अमरत्व के वरदान में शंकरजी ने एक मेख मारकर रखी ही थी। उसके अनुसार बाणासुर का वध कुआँरी कन्या के अलावा और किसी के भी हाथों नहीं हो सकता था। लेकिन बाणासुर को इस बात की कोई फ़िक्र ही नहीं थी। अमरत्व के वरदान के प्राप्त हो जाते ही उन्मत्त बनकर उसने त्रिलोक में तबाही मचाना शुरु कर दिया। उसके कारनामों से परेशान और भयभीत होकर सभी देवतागण विष्णु की शरण में गये। विष्णु ने उन्हें कन्या की उत्पत्ति के लिए यज्ञ करने की आज्ञा दी। उसके अनुसार देवताओं ने यज्ञ किया। उस यज्ञाग्नि में से दुर्गाजी कन्या के रूप में प्रकट हो गयीं। इन कुमारी देवी ने फिर दक्षिणी सागरतट पर रहकर ‘पति के रूप में शिवजी मिलें’ इस उद्देश्य से तपश्‍चर्या करना आरंभ किया। कुमारी देवी की तपश्‍चर्या से प्रसन्न होकर शिवजी ने उनके साथ विवाह करने की बात मान ली। लेकिन इस घटना के कारण देवतागण पुन: डर गये; क्योंकि कुमारी देवी का विवाह हो जाने के बाद बाणासुर का वध होना नामुमक़िन हो जाता।

अब इस समस्या का समाधान करने की जिम्मेदारी सौंपी गयी नारदजी को। कुमारी देवी और शिवजी के विवाह का मुहूर्त तय हो चुका था, भोर के समय का और शिवजी सीधे कैलास से विवाह के लिए प्रस्थान करनेवाले थे। शिवजी निर्धारित योजना के अनुसार प्रस्थान कर भी चुके थे, लेकिन रास्ते में ही मुर्गे ने बाँग दी और विवाह का मुहूर्त निकल गया। शिवजी कन्याकुमारी के पास के ‘शुचीन्द्रम्’ इस क्षेत्र तक पहुँच चुके थे। लेकिन विवाह का मुहूर्त निकल चुका था और कुमारी देवी ने पुन: तपश्‍चर्या करना आरंभ किया।

कुमारी देवी की सुंदरता की ख्याति बाणासुर तक पहुँच गयी और कुमारी देवी के साथ विवाह करने की इच्छा से वह वहाँ पर आ पहुँचा। कुमारी देवी ने बाणासुर के साथ विवाह करने से सा़फ़ सा़फ़ इनकार कर दिया और दोनों के बीच घमासान जंग छिड़ गयी। युद्ध में कुमारी देवी ने बाणासुर का वध कर दिया। लोगों का मानना है कि कुमारी देवी आजतक शिवजी की प्रतिक्षा में इस दक्षिणी छोर पर खड़ी हैं।यह प्रचलित कहानी हो, लोककथा हो या पुराणकथा, मगर इस कथा का तात्पर्य यहीं है कि ईश्‍वर असुरों का विनाश अवश्य करते हैं।

इस कुमारी देवी को ‘कुमारी देवी’, ‘कन्याकुमारी देवी’ जैसे विभिन्न नामों द्वारा संबोधित किया जाता है। देवी का कन्याकुमारी के किनारे पर स्थित मन्दिर सुंदर है। मुख्य गर्भगृह में प्रवेश करने के लिए कई द्वारों को पार करना पड़ता है। देवी की मूर्ति दर्शनीय है और उनके एक हाथ में जपमाला है। पर्वविशेष पर देवी की इस मूर्ति को रत्नों तथा गहनों से सजाया जाता है।

ईश्‍वर की शक्ति जिस तरह इस स्थान पर निवास कर रही हैं, उसी तरह इस स्थान का संबंध अगस्त्य ऋषि के साथ है, ऐसा भी कहा जाता है। अगस्त्य ऋषि स्वयं एक श्रेष्ठ चिकित्सक तथा औषधियों के सर्वोत्तम ज्ञाता थे, इसी कारण जहाँ पर उनका आश्रम था, वहाँ के आसपास के इलाके में विपुल मात्रा में औषधि वनस्पतियाँ थी, ऐसा भी कहा जाता है और आज भी कन्याकुमारी के पास की ‘मरुत्वळँ मलै’ नाम की पहाड़ी पर औषधि वनस्पतियाँ पायी जाती है। यहीं पर अगस्त्य ऋषि का आश्रम था ऐसा माना जाता है।

इस ‘मरुत्वळँ मलै’ नाम की पहाड़ी का संबंध एक लोककथा के द्वारा सीधे हनुमानजी के साथ भी जोड़ा जाता है। इस स्थानीय लोककथा के अनुसार लक्ष्मणजी की जान बचाने के लिए ‘संजीवनी’ बुटी लाने गये हनुमानजी पूरा का पूरा द्रोणागिरी पर्वत ही उठा लाये। उसी पर्वत का एक हिस्सा रास्ते में गिर गया और वह हिस्सा है यह‘मरुत्वळँ मलै’ नाम की पहाड़ी। ‘मरुत्वळँ मलै’ शब्द का अर्थ है- जहाँ पर औषधियाँ पायी जाती है, वह पहाड़ी।

तो ये थी इस कन्याकुमारी स्थान के बारे में प्रचलित विभिन्न कथाएँ। लेकिन इनसे एक बात निश्‍चित रूप से समझ में आ जाती है कि कन्याकुमारी बहुत ही प्राचीन समय से स्थित नगरी है।

कन्याकुमारी में तीनों सागरों का यानि की एक महासागर, एक उपसागर और एक सागर इनका संगम होने के कारण यह एक तीर्थस्थल है। पश्‍चिमी सागर-अरबी सागर (सिंधुसागर), दक्षिणी महासागर(हिन्द महासागर) और बंगाल उपसागर(गंगा सागर) इन तीन सागरों का संगमस्थल होने के कारण प्राचीन समय से यहाँ पर विभिन्न धार्मिक कार्य किये जाते है।

प्राचीन समय में इस स्थान का नाम ‘गंगैकोंडचोलपुरम्’ था। यहाँ पर कुलोत्तुंगचोळ- प्रथम, जिनका समय दूसरी सदी था, उनके समय के एक शिलालेख की खोज की गयी है।

कन्याकुमारी यह ५१ शक्तिपीठों में से एक पीठ माना जाता है। यहाँ पर सति के देह का पृष्ठभाग गिरा था, ऐसा कहा जाता है।
कन्याकुमारी की सबसे खास बात है, यहाँ से दिखायी देनेवाला दूर दूर तक फ़ैला हुआ सागर और साथ ही यहाँ का सूर्योदय तथा सूर्यास्त। दिन की शुरुआत हो चुकी है यह बताने के लिए सूरज का लाल गोला मानों जल में से निकलकर आसमान को छू लेता है और दिनभर अपना काम कर थका भागा पुन: उसी लाल गोले के रूप में अपने घर लौट जाता है, जिस रास्ते से आया था, उसी रास्ते से। सूर्योदय और सूर्यास्त के ये पल मन के कॅमेरे में हमेशा के लिए जतन करने जैसे सुंदर होते है।

समुद्री सतह से कन्याकुमारी की ऊँचाई शून्य है, क्योंकि यह सागरेकिनारे ही बसा हुआ है।

एक ऐसी भी किंवदन्ति है कि कई हज़ारों वर्ष पूर्व आज की इस कन्याकुमारी के दक्षिणी भाग में एक भूभाग था, जिसे ‘कुमारी कंदम’ कहा जाता था।

सारांश, कन्याकुमारी और उसके आसपास का इलाका प्राकृतिक संपदा से भरपूर है। इसी कारण केवल कन्याकुमारी ही नहीं, बल्कि उसके आसपास के छोटे मोटे गाँव भी दर्शनीय हैं। तीर्थक्षेत्र के रूप में प्राचीन समय से कन्याकुमारी मशहूर था ही, साथ ही व्यापार और अर्थकारण का भी एक मुख्य केंन्द्र था।

कन्याकुमारी का इतिहास शुरु होता है, ऊपर उल्लेखित लोककथाओं एवं दन्तकथाओं से। बाद में विभिन्न राजवंशों ने कन्याकुमारी पर शासन किया, इसके संदर्भ में उल्लेख प्राप्त होते है। इनमें चोळ, पांड्य, चेर, नायक ऐसे विभिन्न राजवंश थे।

कुछ समय बाद वेनाड राजवंश की सत्ता यहाँ पर स्थापित हुई। इस वेनाड राजवंश की राजधानी ‘पद्मनाभपुरम्’ में थी। इस वेनाड राजवंश के मार्तंड वर्मा नामक राजा ने अपने राज्य का विस्तार कर त्रावणकोर राज्य की स्थापना की। त्रावणकोर की स्थापना के बाद कन्याकुमारी और उसके आसपास का प्रदेश ‘दक्षिणी त्रावणकोर’ इस नाम से जाना जाने लगा। अंग्रेजों की दक्षिणी भारत में हुकूमत स्थापित हो जाने के बाद भी कन्याकुमारी त्रावणकोर संस्थान में ही था यानि की अंग्रेजों की प्रत्यक्ष रूप में कन्याकुमारी पर हुकूमत नहीं थी।

आज़ादी के बाद त्रावणकोर संस्थान स्वतंत्र भारत में विलीन हो गया। १९४९ में कन्याकुमारी का समावेश पुन: रचित त्रावणकोर-कोचीन राज्य में किया गयाथा और अंत में १९५६ में कन्याकुमारी का समावेश आज के तमिलनाडू राज्य में यानि कि उस समय के मद्रास राज्य में किया गया। यहाँ पर एक बात का ज़िक्र करना ज़रूरी है कि अंग्रेज़ों के शासनकाल में उन्होंने कन्याकुमारी का नाम ‘केप कोमोरिन’ कर दिया था। अर्थात् इसका कारण था उनके उच्चारण की सहूलियत।

भूतकाल से लेकर आजतक कन्याकुमारी में कई परिवर्तन हुए होंगे, लेकिन जिनमें कोई बदलाव नहीं आया वे तीन बातें हैं-सागरी तट पर खड़ी रहकर शिवजी की प्रतिक्षा करनेवाली देवी कुमारी, बड़ी आसानी से एकदूसरे में मिल जानेवाले वे तीन सागर और वह सूरज, जिसका हररोज़ उदय होता है और अस्त भी।

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