काशी भाग- ४

Pg12_Ganga Mahal ghatकाशी के अधिकतम चित्रों में गंगाकिनारे के घाट और उन घाटों पर रहनेवाली विशेषतापूर्ण छत्रियाँ दिखायी देती हैं।

दरअसल वाराणसी-काशी में गंगाजी के तट पर घाटों का निर्माण किया गया, वह मनुष्यों की सहूलियत के लिए; क्योंकि काशी आनेवालें और काशी में बसनेवालें पवित्र गंगाजी में स्नान तो अवश्य करेंगे ही। १२वी सदी के गाहडवाल राजाओं के शिलालेख में काशी के सिर्फ ५ घाटों का उल्लेख मिलता है। साधारणत: १९ वी सदी तक काशी के बहुत सारे घाटों का निर्माणकार्य पूरा हो चुका था।

दशाश्वमेध और मणिकर्णिका इन घाटों के बारे में काफी लोग जानते हैं। मगर इनके अलावा भी काशी में कईं घाट हैं। कईं पुराणों में जिसका उल्लेख किया गया है ऐसा ‘असि घाट’, श्रीरामचरितमानस की रचना करनेवाले संतश्रेष्ठ श्रीतुलसीदासजी के नाम का ‘तुलसी घाट’। इनके अलावा रेवण घाट, भदैनी घाट, जानकी घाट, दण्डी घाट, गंगामहल घाट आदि कईं घाट गंगाजी के तट पर हैं। दशाश्वमेध घाट के बारे में ऐसा कहा जाता है कि प्राचीन समय में यहाँ पर दस बार अश्वमेध यज्ञ किया गया था, इसीलिए इस घाट को ‘दशाश्वमेध’ कहा जाता है। एक आख्यायिका यह हैकि विष्णुजी ने अपने चक्र के द्वारा ज़मीन की खोदाई करके जहाँ कुण्ड का निर्माण किया और तपश्चर्या भी की, वह कुण्ड विष्णुजी के घर्म (पसीने) से भर गया। उनकी इस कृति को देखकर शिवजी ने आनन्दित होकर उनकी वाहवा में सिर हिलाया, जिस वजह से उसी समय शिवजी के कान का कुण्डल इस कुण्ड में गिर गया और उसी स्थान को आज ‘मणिकर्णिका घाट’ कहते हैं।

काशी जानेवाले यात्री को पंचक्रोशी की परिक्रमा करनी चाहिए, ऐसा कहा जाता है। इस पंचक्रोशी का मध्यबिन्दु मणिकर्णिका है और इस मध्यबिन्दु से काशी के चारों ओर पाँच कोस की त्रिज्या के वर्तुलाकार की कल्पना की जाती है। इस तरह यह परिक्रमा-मार्ग कुल ८० किलोमीटर्स की लंबाई का है। इस परिक्रमा-मार्ग पर कईं मंदिर एवं तीर्थ हैं, जिनका दर्शन इस परिक्रमा में किया जाता है और परिक्रमा पूरी होने के बाद मध्यबिन्दु माने गये मणिकर्णिका घाट पर स्नान करके साक्षी-विनायकजी के दर्शन किये जाते हैं।

विश्‍वनाथजी या विश्‍वेश्‍वरजी के अर्थात् शिवजी के काशी के उनके अपने स्थान को ‘काशी विश्‍वनाथजी का मंदिर’ कहा जाता है। काशी जाकर विश्वेश्वरजी का दर्शन करना यह काशीयात्रा करनेवालों का प्रमुख उद्देश्य रहता है।

काशी पर हुए कईं आक्रमणों के द्वारा यहाँ के कईं प्रार्थनास्थल नष्ट कि यें गयें। काशीविश्‍वनाथजी के मंदिर को भी इन आक्रमणों में ध्वस्त किया गया। आज विद्यमान काशीविश्‍वनाथजी के मंदिर का निर्माण १७८० में महारानी अहिल्याबाई होळकरजी ने किया। १९वी सदी में पंजाब के महाराजा रणजीतसिंगजी ने इस मंदिर पर स्वर्ण का कलश स्थापित किया। इस कार्य के लिए लगभग १००० किलो स्वर्ण उन्हों ने मंदिर को अर्पण किया। आज के इस मंदिर में स्थित शिवलिंग की उँचाई ६०  सें.मी. और परिधि ९० सें.मी. है। इस मंदिर के परिसर में कईं छोटेछोटे मंदिर हैं। अविमुक्तेश्‍वर, दण्डपाणि, विरूपाक्ष, शनीश्‍वर, महाकाल, विनायक, विष्णु और विरूपाक्ष गौरी इनके वे मंदिर हैं।

विश्‍वनाथजी काशी के सम्राट हैं और उनके आसपास के अन्य शिवलिंग उनके द्वारा नियुक्त कियें गयें व्यवस्थापक हैं। ढुंढिराज उनके अधिकारी, भैरव उनके कोतवाल, हरेश्‍वर उनके मंत्री, तारकेश्‍वर उनके धनाध्यक्ष, ब्रह्मेश्‍वर उनके कथावाचक, दण्डपाणि उनके प्रतिहारी, वीरेश्‍वर उनके कोषाध्यक्ष और अन्य शिवलिंग उनसे संबंधित प्रदेश की प्रजा का परिपालन करते हैं।

१९८३ से इस मंदिर की देखभाल का काम उत्तरप्रदेश की सरकार कर रही है। महाशिवरात्रि के प्रमुख उत्सव के समय काशीनरेश को विशेष सम्मान का स्थान यहाँ आज भी दिया जाता है।

काशी यह शक्तिपीठ होने के कारण भगवान की शक्ति भी काशी में विभिन्न नामों के साथ विभिन्न रूपों में प्रतिष्ठित है। काशीविश्‍वनाथजी के मंदिर के निकट ही अन्नपूर्णा देवी का मंदिर है। हर एक जीव का भरणपोषण करनेवालीं माँ अन्नपूर्णा ही हैं। अन्नपूर्णा के मंदिर में माँ चांदी के सिंहासन पर विराजमान हैं। कहा जाता है कि काशी में उपस्थित हर एक मनुष्य का भोजन होने के बाद ही माँ अन्नपूर्णा पहला निवाला लेती हैं। ललिता घाट पर ललितागौरी का मंदिर है। सौभाग्यप्राप्ति के लिए प्राचीन समय से इनका पूजन किया जाता है। दुर्गा घाट एवं दुर्गा कुंड पर स्थित मंदिर में दुर्गादेवी विराजमान हैं। देखा जाये तो काशी में शिव और शक्ति दोनों विराजमान हैं। अर्थात् जहाँ भगवान हैं, वहाँ भगवतीजी का वास होता ही है।

एक विशेष बात पर गौर करना चाहिए कि काशी के इन मंदिरों में स्थापत्य, शिल्प इनकी भव्यता और शान नज़र नहीं आती। काशी पर बार-बार हुए आक्रमण और इन आक्रमणों में प्रार्थनास्थलों का किया गया विध्वंस यही इसका कारण है।दरअसल इन सब बातों से सच्चे भाविक को कोई फर्क नहीं पड़ता, उसके लिए वह उसके भगवान का स्थान होता है।

इन सब देवताओं के साथ बुद्धि के देवता गणपतिजी भी काशी में विराजमान हैं। साक्षी-विनायक के रूप में जिस तरह वे काशी में विराजमान हैं, उसी तरह ढुंढिराज(धुंडीराज) के रूप में भी उनका वास्तव्य है। कहा जाता है कि राजा दिवोदासजी ने गंडकी नदी में से पाषाण लाकर उसमें से धुंडिराजजी की मूर्ति का निर्माण करवाया।

काशीनगरी यह एक राज्य था, जिस पर विभिन्न कालखण्डों में विभिन्न शासकों ने शासन किया। मगर इसापूर्व छठी सदी में यह एक महाजनपद था। उस समय उत्तर भारत में १६ महाजनपद थें और उनमें से ही एक काशी भी था। बौद्ध वायय के वर्णन के अनुसार भारत के १६ महाजनपद और ७ देशों में काशी की गणना होती थी। समय के अनुसार भिन्न-भिन्न राजसत्ताओं ने काशी पर राज किया। काशी के राजा को ‘काशी नरेश’ कहा जाता है। स्वतन्त्रता के बाद सभी संस्थानों को भारत में विलीन किया गया; लेकिन आज भी काशी की स्थानिक जनता के मन में ‘काशी नरेश’ इस पद के बारे में सम्मान की भावना है।

काशीनरेश का क़िला रामनगर में है। वाराणसी (काशी) से यह स्थान लगभग १४ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। १८वी सदी में महाराजा बलवंतसिंगजी ने यहाँ पर इस क़िले का निर्माण किया। लाल रंग के बालु के पाषाणों से इस क़िले का निर्माण किया गया है। इस क़िले में राजा एवं राजपरिवार के सदस्य इनसे संबंधित वस्तुओं का संग्रहालय है। इस संग्रहालय में विंटेज कारें, पालकियाँ, शस्त्र और कईं पुरानी वस्तुओं का संग्रह किया गया है।

रामनगर का क़िला वाराणसी की पूर्व की ओर है और काशी के ही दूसरे राजा का ‘चेतसिंग पॅलेस’ यह राजमहल शिवाला घाट के पास है।

गंगाजी हजारों वर्षों से बह रही हैं और गंगाजी के किनारे पर बसी हुई काशी में हजारों वर्षों से चहलपहल है। गंगाजी का हाथ थामकर ही हम काशी के वर्णन का अगला प्रवास करते रहेंगे।

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