कांची भाग – ३ 

 

स्कूल में भूगोल इस विषय का अविभाज्य अंग रहता था, ऩक़्शा (मॅप) और उससे संबंधित प्रश्‍न। ऩक़्शे में कुछ विशिष्ट स्थानों (जैसे गाँव, नदी, क़िला, घर इत्यादि) को निदर्शित करने के लिए कुछ विशिष्ट संकेतचिह्न निश्‍चित किये गये थे। फ़िर वे संकेतचिह्न ही उन स्थानों की पहचान बन जाते थे। दक्षिणी भारत की सुस्पष्ट एवं गगनस्पर्शी पहचान हैं, वहाँ के मंदिरों के विशाल और सुन्दर ‘गोपुर’।

 ‘मंदिरों की नगरी’

यदि हम ‘गोपुर’ को मंदिर का संकेतचिह्न बनाकर कांची का ऩक़्शा बनाये, तो एक या दो नहीं, बल्कि ऐसे कई गोपुर वहाँ पर दिखायी देंगे

मोक्षदायिनी सप्तपुरियों में से एक रहनेवाली कांची में परमात्मा के शिव तथा विष्णु इन दोनों स्वरूपों के मंदिरों के साथ साथ कई छोटे बड़े मंदिर दिखायी देते हैं।

कांची के कई मंदिरों का निर्माण पल्लव राजाओं के शासनकाल में हुआ, ऐसा इतिहास कहता है। उनके बाद सत्ता में आये चोळ और विजयनगर के शासकों ने भी मंदिरों का निर्माण तथा पूर्वी शासकों द्वारा बनाये हुए मंदिरों का विस्तार कर कांची के वैभव, सुन्दरता और ख्याति को और भी बुलंद बना दिया। इसी वजह से आज ‘मंदिरों की नगरी’ के रूप में कांची जानी जाती है।

दर असल भारतीय संस्कृति की तथा यहाँ के जनमानस के जीवन की नींव है, ईश्‍वर के अस्तित्व को मानना, ईश्‍वर के प्रति श्रद्धा रखना और ईश्‍वर पर पूरा भरोसा रखना। इस भूमि पर शासन करनेवाले शासक भी इसके लिए अपवाद नहीं थे। यहाँ के राजाओं ने इसी भावना के साथ उपासनास्थलों का यानि कि  मंदिरों का निर्माण किया। चाहे वे पल्लव राजा हों या विजयनगर के सम्राट, वे कभी भी स़िर्फ़ राज्यविस्तार, युद्ध आदि बातों में अटकनेवालें संकुचित घमंड़ी वृत्ति के राजा नहीं थे, बल्कि उन्होंने कला, शिल्प आदि कई क्षेत्रों में काम करनेवालों को प्रोत्साहित किया और इसीलिए दक्षिण में कई विशाल और सुन्दर मंदिरों का निर्माण होता रहा। विजयनगर के सम्राटों की ईश्‍वरभक्ति और कलाप्रेम का आविष्कार आज भी ‘हंपी’ के रूप में विद्यमान है। वहीं पल्लवों की ईश्‍वरभक्ति और कलाप्रेम का आविष्कार उनके द्वारा बनाये गये मंदिरों द्वारा दृग्गोचर होता है कांची में और साथ ही कांची से कुछ ही दूरी पर रहनेवाले ‘मामल्लापुरम्’ में यानि कि आज के ‘महाबलिपुरम्’ में।

कांची के शासकों का कलाप्रेम प्रशंसनीय है, क्योंकि यहाँ के हर एक मंदिर का हर एक स्तंभ किसी न किसी ऩक़्क़ाशी, अलंकरण या किसी न किसी प्राणिशिल्प से सजा हुआ है। जिस समय इन मंदिरों का निर्माण हुआ उस समय आज के जैसी साधनसामग्री, इलेक्ट्रिसिटी आदि बातों का अभाव था; मग़र इसके बावजूद भी उस ज़माने में इतने विशाल मंदिरों का निर्माण किया जाना, यह अपने आप में एक क़ाबिले तारी़फ़ बात है। उस ज़माने में मंदिरनिर्माण के लिए उपयोग में लायी गयी तकनीक, साधनसामग्री और कारीगरों की कुशलता यक़ीनन ही बेजोड़ थी, क्योंकि आज इतनी सदियाँ बीतने के बाद भी कांची के ये मंदिर सुस्थिति में हैं।

कांची के अधिकतर मंदिरों की साधारण रचना कुछ इस तरह की है- यहाँ के मंदिरों के चारों ओर चहारदीवारी बनायी गयी है। मंदिर में प्रवेश करने के लिए विभिन्न दिशाओं में उसमें द्वार बनाये गये हैं। उन्हीं पर विशाल गगनस्पर्शी गोपुर बनाये गये हैं। कांची के अधिकतर मंदिर विशाल भूभाग पर बनाये गये हैं। प्रमुख प्रवेशद्वार में से प्रवेश करने के बाद प्रमुख देवता के मंदिर के साथ साथ अन्य देवताओं के मंदिर भी उसी अहाते में बनाये गये हैं। सबसे अहम बात यह है कि लगभग हर एक मंदिर में झील के रूप में जल को जतन किया गया है।

कांची के मंदिरों की पूर्वपीठिका जानने के बाद अब आइए चलते हैं, कांची के मंदिरों में, ईश्‍वर के दर्शन करने!

शिव उपासकों की दृष्टि से कांची जितनी महत्त्वपूर्ण है, उतनी ही विष्णु उपासकों की दृष्टि से भी। कांची के प्रमुख मंदिरों में शिव तथा विष्णु इन दोनों के मंदिर हैं।

‘एकांबरनाथ’ अथवा ‘एकांबरेश्‍वर’ इन नामों के साथ भगवान शिव का कांची में निवास है। भक्तों द्वारा की गयी, ‘यहाँ के आम्रवृक्ष (आम के पेड़) के नीचे आप सदा के लिए विराजमान रहिए’ इस प्रार्थना को मानकर भगवान शिव ने कांची में जहाँ निवास किया, वह स्थान है, एकांबरनाथ का अथवा एकांबरेश्‍वर का मंदिर।

इस मंदिर में प्रवेश करने से पहले इस मंदिर से जुड़ी एक अजीबों ग़रीब कहानी तो सुनिए। कहा जाता है कि यहाँ पर स्थित आम का पेड़ लगभग साढ़ेतीन हज़ार वर्ष पुराना है और इस आम के पेड़ को चार अलग अलग प्रकार के आम लगते हैं। ऐसे इस अनोखे आम के पेड़ को देखने के बाद अब आइए, मंदिर में चलकर भगवान के दर्शन करते हैं।

इस मंदिर का क्षेत्रफ़ल लगभग १२ हेक्टर है। मंदिर का दस मंज़िला गोपुर लगभग ५८ मीटर ऊँचा है। इस गोपुर का निर्माण विजयनगर के सम्राट कृष्णदेवराय ने किया है।

इस मंदिर के निर्माणकार्य में कांची पर राज कर चुकी हर एक राजसत्ता का योगदान रहा है। यह मंदिर का़फ़ी प्राचीन है ऐसा कहा जाता है। पल्लव राजाओं के शासनकाल में उन्होंने इस मंदिर की पुनर्रचना की, उनके बाद सत्ता में आये चोळ राजवंश ने इसका विस्तार किया और विजयनगर के शासकों ने १६वीं सदी में इस मंदिर की चहारदीवारी का निर्माण किया। संक्षेप में, इस एकांबरेश्‍वर मंदिर में प्रत्येक शासनकाल की वास्तुरचना तथा शिल्पकला की झलक हमें देखने मिलती है।

ब्रह्मांडपुराण में एकांबरेश्‍वर की कहानी इस तरह कही गयी है- एक बार चौसर खेलते हुए किसी कारणवश शिवजी और पार्वतीजी के बीच कुछ शिकवा-शिकायत हो गयी। क्रोधित हुए शिवजी ने पार्वतीजी से कहा कि तुम्हारा रंग काला हो जायेगा। रूठकर पार्वतीजी पृथ्वी पर विचरण करते करते कांची आ पहुँचीं और यहीं पर एक आम के पेड़ के नीचे आसन लगाकर तपाचरण करने लगीं। शिवजी का गुस्सा कुछ समय बाद ठंड़ा तो हो गया, लेकिन पार्वतीजी पर प्रसन्न होने से पहले उन्होंने पार्वतीजी की परीक्षा लीं। उन्होंने गंगाजी को पृथ्वी पर उतारा और उस वजह से आयी हुई बाढ़ में पार्वतीजी जिस शिवलिंग की उपासना कर रही थीं, वह डूबने जैसे हालात उत्पन्न हो गये। फ़ौरन पार्वतीजी ने अपनी जान की परवाह न करते हुए उस शिवलिंग को आलिंगन देकर उसे डूबने नहीं दिया। उसी क्षण प्रसन्न हुए शिवजी ने बाढ़ के जलस्तर को कम कर दिया और वे पार्वतीजी से मिले। शिव-पार्वतीजी जिस जगह एकदूसरे से मिले, वहाँ पर यानि कि आम के पेड़ के तले हमेशा के लिए निवास करने की प्रार्थना भक्तों ने शिवजी से की। भक्तों की विनति मानकर शिवजी ने उस आम्रवृक्ष के तले निवास करने का वचन दिया और इसीलिए वे ‘एक-आम्र-ईश्‍वर’= एकाम्रेश्‍वर= एकांबरेश्‍वर किंवा एकांबरनाथ इस नाम से जाने जाने लगे।

यह थी कहानी एकांबरेश्‍वर की। यहाँ का शिवलिंग पृथ्वीतत्त्व का प्रतिनिधि माना जाता है। इस सृष्टि में विद्यमान पंच महाभूतों के- आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी इन पाँच तत्त्वों के – प्रतिनिधि रहनेवाले पाँच शिवलिंग माने जाते हैं। उनमें से ‘एकांबरनाथ शिवलिंग’ को ‘पृथ्वीतत्त्व’का प्रतिनिधि माना जाता है। ‘चिदंबरम्’ स्थित मंदिर के शिवलिंग को ‘आकाशतत्त्व’ का प्रतिनिधि माना जाता है। ‘श्रीकलाहस्ति’ के शिवलिंग को ‘वायुतत्त्व’ का प्रतिनिधि माना जाता है। ‘थिरुवनैकवल’ के शिवलिंग को ‘जलतत्त्व’ का प्रतिनिधि माना जाता है। वहीं ‘थिरुवन्नमलै’ के शिवलिंग को ‘अग्नितत्त्व’ का प्रतिनिधि माना जाता है।

इस मंदिर का सभामंडप हज़ार स्तंभों से बना है। यह सहस्र स्तंभों का सभामंडप कृष्णदेवराय ने बनवाया था, ऐसा कहा जाता है। मंदिर की दीवारों पर १००८ शिवलिंगों की रचना की गयी है। शिवजी का मंदिर कहते ही हमारे मन की आँखों के सामने शिवपिंडी पर हो रहे अभिषेक की सुन्दर जलधारा आ जाती है। लेकिन यहाँ पर कुछ अलग ही बात है। एकांबरनाथ शिवलिंग पर जल द्वारा अभिषेक नहीं किया जाता, उनको केवल परिमलद्रव्यों का लेपन किया जाता है।

प्रमुख देवता के साथ साथ अन्य देवताओं के मंदिर भी यहाँ पर हैं। इस मंदिर के गोपुर की रचना में तथा स्तंभों और दीवारों पर भी शिल्पकला की सुन्दरता के विभिन्न पहलू दिखायी देते हैं। इस मंदिर की विशालता को देखें तो इस ऩक़्क़ाशीकाम में कारीगरों को कितना समय लगा होगा, इसका हम अनुमान कर सकते हैं; क्योंकि उस ज़माने में यह निर्माणकार्य केवल छेनी हथौड़े से होता था; स्तंभ और दीवारों को कुरेदकर अलंकृत किया जाता था।इस तरह विभिन्न अलंकरणों से युक्त यह मंदिर सुन्दरता की दृष्टि से बेमिसाल ही है।

कांची की सैर करते हुए अभी अभी तो हम कांची के ऩक़्शे पर स्थित एक गोपुर से परिचित हुए हैं। कांची के अन्य गोपुरों की यानि कि मंदिरों की जानकारी प्राप्त करने के लिए हमें इस सैर को जारी ही रखना है।

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