कुलू भाग – १

दो पहाड़ियों के बीच में से बाहर निकलकर सूरज बस अभी अभी अपनी किरनें बिखेरने लगा है। उन कोमल किरनों ने बियास के पानी में रंग भर दिया है। माहौल में शान्ति इतनी है कि बियास के बहने की आवाज़ भी साफ़ साफ़ सुनायी दे रही है। ‘कुलू’ की अधिकांश सुबहें कुछ इसी तरह उगती हैं। बस, बदलते मौसम के साथ इसमें कुछ थोड़ाबहुत परिवर्तन होता होगा।

कुलू! हिमाचल प्रदेश की बियास नदी की घाटी में बसा है, कुलू! दर असल इस संपूर्ण प्रदेश को ‘कुलू घाटी’ ही कहा जाता है। रोहतांग पास के दक्षिण में उद्गमित होनेवाली बियास जब यहाँ से आगे बढ़ती है, पर्वतीय प्रदेश से मैदानी इला़के की ओर जाती है, तब उसके इस सफ़र में मनाली के बाद इस घाटी की शुरुआत होती है। बियास और कुलू इनके बीच का यह रिश्ता हज़ारों वर्ष पुराना है।

‘कुलू’ यह शब्द ‘कुलूत’ इस मूल संस्कृत शब्द से बना है, ऐसा कहा जाता है। प्राचीन साहित्य में प्राप्त होनेवाले उल्लेखों के अनुसार ‘कुलूत’ यह बियास नदी के ऊपरी प्रदेश की वादियों में रहनेवाली एक जनजाति थी और इस जनजाति के कारण इस प्रदेश को भी ‘कुलूत’ कहा जाता था, जो आगे चलकर ‘कुलू’ बन गया। दर असल प्राचीन वाङ्मयीन उल्लेखों से यह ज्ञात होता है कि इस प्रदेश में प्राचीन समय से आबादी बस रही है। महाभारत में कहा गया है कि अर्जुन जब दिग्विजय के लिए निकला, तब कुलू के राजा ने उसे यहाँ पर रोक दिया, लेकिन अर्जुन ने उसे परास्त कर दिया।

बियास

रामायण, महाभारत, विष्णुपुराण तथा अन्य कुछ प्राचीन संस्कृत वाङ्मयों में भी ‘कुलू’ का उल्लेख मिलता है, जिससे इस प्रदेश की प्राचीनता सिद्ध होती है।

जिसकी वादियों में कुलू बसा है, वह बियास नदी भी अतिप्राचीन है। उसे बियास, विपाशा, व्यास, विशाला, महावेगा इन नामों से भी जाना जाता है। ॠग्वेद में उसका उल्लेख ‘विपाशा’ इस नाम से किया गया है और उससे भी पहले वह ‘ऊरुंजिरा’ इस नाम से जानी जाती थी।

आप सोचेंगे कि कुलू की बात करते करते बीच में बियास नदी की बात कैसे छिड़ गयी! जिसकी वादियों में कुलू सदियों से बसा है, उस बियास की थोड़ीबहुत जानकारी भी हमें रहनी ही चाहिए, है ना!

बियास नदी को ‘विपाशा’ यह नाम कैसे प्राप्त हुआ इस विषय में एक कथा कही जाती है।

वसिष्ठजी के सौ पुत्र मारे जा चुके थे और पुत्रशोक से व्यथित हुए वसिष्ठजी ने अपने आपको बेलियों से बाँधकर इस नदी में छलाँग मार दी। लेकिन इस नदी ने उनके पाश तोड़कर उन्हें पाशमुक्त कर दिया और तब से इस नदी को ‘पाश-विरहित करनेवाली’ होने से वि-पाशा = विपाशा कहा जाने लगा।

महाभारत में कुलू का उल्लेख मिलता है। पांडव इस कुलू घाटी में आये थे। लाक्षागृह की घटना के बाद पांडव यहाँ पर आये थे। कुलू से कुछ ही दूरी पर है, ‘मनाली’ और मनाली में है, हिडिंबा का मन्दिर। हिडिंब नाम के राक्षस को मारकर उसकी बहन हिडिंबा के साथ भीम ने विवाह किया था और आगे चलकर उन्हें ‘घटोत्कच’ नामक पुत्र भी हुआ। इससे ज्ञात होता है कि पांडव फिर एक बार इस प्रदेश में आये थे। अन्त में, दिग्विजय के लिए अर्जुन ‘कुलूत’ में आया था, यह उल्लेख हम इस लेख में पहले ही कर चुके हैं।

कश्मीर और कांगड़ा यह प्रदेश जितने प्राचीन हैं, उतनी ही यह कुलू घाटी भी प्राचीन है।

लेकिन इतिहास की इस धारा में बहते बहते हमें कुलू की प्राकृतिक सुन्दरता को भी नहीं भूलना चाहिए। कुलू की सुन्दरता का मात्र वर्णन सुनते ही हमारे मन की आँखों के सामने चंद कुछ पलों के लिए ही सही, लेकिन कुलू का चित्र सचेत हो जाता है।

मधुर संगीत सुनाता हुआ, दिल के तार छेड़ता हुआ, बियास का बहता जल और वह भी बहुत ही शीतल! गर्मियों में बऱङ्ग के पिघलने से आ रहा शीतल जल कड़ाके की ठंड के कारण सर्दियों में और भी शीतल बन जाता है। यदि दूर तक नज़र दौरायें, तो आपको दिखायी देगें, ऊँचे ऊँचे पर्वत! उन्हें देखकर लगता तो हैं कि वे बहुत पास हैं, लेकिन जैसे ही हम उनकी ओर बढ़ने लगते हैं, वैसे यह समझ में आता है कि वे का़ङ्गी दूर हैं। इन पहाड़ियों के बीच कुलू ऐसे बसा है, मानों जैसे किसी गिलास या कप की नीचली सतह! यहाँ पर आपको हरे भरे पेड़ दिखायी देंगे और ये पेड़ हिमालय की ख़ासियत हैं। आपको दिखायी देंगे, सड़क के दोतरफा़ फैले हुए कुछ सुन्दर पौधें, हवा के झोंके के साथ लहरानेवाले कुछ बनफूल या फिर कभी दिखायी देंगे किसी घर, होटल या अन्य इमारत के अहाते में सुव्यवस्थित रूप से लगाये गये कई रंगबिरंगे फूल या गुलाब। कुलू की एक और ख़ासियत है, सेब। यहाँ की आबोहवा – सर्दियों में बहुत ही ठंड और गर्मियों में भी सुहाना मौसम। घूमने, देखने लायक यहाँ पर काफी़ कुछ है और यहाँ का मौसम भी सैलानियों के उत्साह को बढ़ाता है। कुलू के अतीत में झाँकते झाँकते हमने वर्तमान कुलू पर भी एक नज़र डाल ही दी। यह वर्णन करने का कारण है कि हम मन से कुलू में प्रवेश करें; क्योंकि जब तक हम किसी जगह मन:पूर्वक प्रवेश नहीं करतें, तब तक वहाँ की किसी भी बात को हम दिल से महसूस नहीं कर सकतें, फिर चाहे वह उस स्थान से जुड़ा अतीत ही क्यों न हो।

पहली सदी में ‘बिहंगमणि पाल’ नामक किसी व्यक्ति के यहाँ पर आने का उल्लेख मिलता है। उसने यहाँ के लोगों को अमीरजादों की ग़ुलामी से मुक्त किया और वह इस प्रदेश का राजा बन गया। इन पाल राजाओं का शासन १५ वीं सदी तक था। उनकी राजधानी ‘जगत्सुख’, ‘नगर’ इस तरह का प्रवास कर आख़िर कुलू बन गयी। १५ वीं सदी के मध्य तक इस राजवंश का कुलू पर शासन था। फिर लगभग ५० वर्षों तक इस राजवंश के बारे में कोई उल्लेख प्राप्त नहीं होता। कहा जाता है कि यहाँ के अमीरजादों ने पुन: इस अवधि में उनसे सत्ता छीन ली होगी। फिर १५ वीं सदी में ही ‘सिद्धसिंह’ का कुलू के शासक के रूप में उल्लेख मिलता है। १७ वीं सदी में यहाँ पर एक महत्त्वपूर्ण घटना हुई। १७ वीं सदी में ‘जगतसिंह’ नाम के राजा के शासनकाल में अयोध्या से रघुनाथजी की एक मूर्ति को यहाँ पर लाया गया और उसकी यहाँ पर स्थापना की गयी। यहाँ से फिर ‘रघुनाथजी’ कुलू तथा कुलूवासियों के आराध्य बन गये। यहाँ के शासक स्वयं को रघुनाथजी का दास मानकर शासन करने लगे। आज भी कुलू में रघुनाथजी के दो प्रमुख उत्सव मनाये जाते हैं। उनमें से एक है, दशहरा और दूसरा है बसन्तपंचमी का उत्सव। कुलू का दशहरे का उत्सव काफी़ मशहूर है।

पाल राजाओं का शासन यहाँ पर कब तक था, इसके बारे में कोई सुस्पष्ट जानकारी प्राप्त नहीं होती। फिर कुलू पर शुरू हुआ अंग्रेज़ों का राज। भारत के कई हिल स्टेशन्स, जिन्हें दर असल अंग्रेज़ों के आने से पहले हिल स्टेशन नहीं कहा जाता था, उन्हें अंग्रेज़ों ने किसी न किसी तरी़के से हड़प लिया। कुछ चंद स्थानों पर अंग्रेज़ों को स्थानीय नागरिकों के विरोध का सामना करना पड़ा। लेकिन इस बात को भी नज़र अंदाज़ नहीं किया जा सकता कि अंग्रेज़ों ने कई हिल स्टेशन बसायें। कुलू भी अंग्रेज़ों के कब्ज़े में चला गया। लेकिन सत्ताविस्तार और उत्पादसामग्री बेचने का मार्केट इस दृष्टि से उस ज़माने में कुलू उतना महत्त्वपूर्ण प्रतीत न होने के कारण यहाँ की अंग्रेज़ी हुकूमत के बारे में भी कुछ ख़ास उल्लेख प्राप्त नहीं होते।

….आख़िर १९४७ में भारत को आज़दी मिलने के बाद ‘कुलू घाटी’ भारतीय संघराज्य का एक हिस्सा बन गयी और १९६६ में हिमाचल राज्य का।

आइए, अब अतीत से वर्तमान की ओर रुख करते हैं। कुलू घाटी में आप सड़क मार्ग से जा सकते हैं और यहाँ पर आने के बाद आप आराम भी फर्मा सकते हैं। लेकिन इतने सुन्दर स्थल पर आने के बाद यहाँ की हवा ही मानों सैलानियों से कहती है कि चलो, उठो और मनमौजी बनकर घूमो! किसी भी रास्ते पर चल पड़ो, तुम्हारा स्वागत हँसकर अवश्य करेंगे, बनफूल और फलों के लदे पेड़।

कुलू से कुछ ही दूरी पर है, ‘मनाली’! मनाली के आगे है, रोहतांग पास और कुलू के पास में ही बसा है, मनीकरण। इसलिए हमारा यह सफ़र केवल कुलू तक ही सीमित नहीं है, बल्कि इन ऊपरोक्त स्थलों की सैर, कुदरती ख़ूबसूरती से भरपूर रहनेवाले ऐसे इन स्थलों की सैर भी हम करेंगे। कभी कभी इस सफ़र में निसर्ग का रुद्र रूप भी दिखायी देता है। अब शायद आप घूमफिरकर थक चुके होंगे। लेकिन आपकी इस थकान को मिटाने की ताकत भी कुलू की आबोहवा में है। कुलू में बननेवाली शाल ओढ़कर बियास के किनारे पर उसका संगीत सुनते हुए बैठ जाइए, फिर देखिए, आपकी सारी थकान एक पल में ही दूर हो जायेगी।

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