तिरुपति भाग-२

उत्तिष्ठ उत्तिष्ठ गोविन्द उत्तिष्ठ गरुडध्वज।
उत्तिष्ठ कमलाकान्त त्रैलोक्यं मफलं कुरु॥

‘सुप्रभातम्’ इस स्तोत्र के साथ प्रात: भगवान व्यंकटेश को जगाते हैं और यहीं से सप्तगिरि की दिनचर्या शुरू होती है।

प्रात:समय से ही तिरुपतिजी के दर्शन करने के लिए भाविकों की भीड़ उमड़ पड़ती है और जैसे जैसे दिन आगे बढ़ते रहता है, वैसे वैसे भाविकों की कतारें भी बढ़ती रहती हैं। लगभग पाँच हज़ार से भी अधिक भाविक तिरुपतिजी के दर्शन करने प्रतिदिन आते हैं ऐसा कहा जाता है और छुट्टी के दिन या किसी उत्सव के समय तो इस संख्या में कई हज़ारों की वृद्धि होती है। सारांश, सप्तगिरिस्थित तिरुपतिजी के इस मंदिर में हमेशा ही भाविकों की चहलपहल रहती है।

पौं फट रही है, माहोल बिलकुल शान्त है, ठंडी हवा बह रही है। चलिए! ऐसे इस सुप्रभात के समय मंदिर में प्रवेश कर गर्भगृह में जाकर भगवान के दर्शन करते हैं।

व्यंकटेश को जगाते

गर्भगृह में है, श्याम वर्ण की व्यंकटेशजी की मूर्ति! श्रीलक्ष्मीजी की मूर्ति व्यंकटेशजी की मूर्ति का ही अविभाज्य अंग है। व्यंकटेशजी के उर:प्रदेश (छाती) पर लक्ष्मीजी की मूर्ति को अंकित किया गया है। व्यंकटेशमूर्ति की ऊँचाई लगभग छह फीट है। व्यंकटेशजी को देखते ही हमारा ध्यान जाता है, उनके माथे पर लगाये गये बड़े से नाम (तिलक) पर। कपूर द्वारा यह तिलक किया जाता है। व्यंकटेशजी की इस मूर्ति को ‘ध्रुव बेर’ कहा जाता है; क्योंकि यह मूर्ति हमेशा गर्भगृह में ही रहती है यानि कि अपने स्थान पर अचल (ध्रुव) रहती है। उत्सव अथवा अन्य पूजन आदि अवसर पर इस मूर्ति की प्रतिकृतियों को उपचार अर्पण किये जाते हैं। गर्भगृह की इस मूर्ति को प्रात:समय के बाद विभिन्न प्रकार की पुष्पमालाओं तथा स्वर्ण-चांदी के गहनों, हीरें आदि रत्नों के गहनों के साथ सजाया जाता है। आरती या स्तोत्र आदि में कई बार हम भगवान के लिए प्रयुक्त किये गये ‘हीरें आदि रत्नों से लदे हुए’ इस तरह के विशेषण सुनते हैं। व्यंकटेशजी की मूर्ति को पहनाये हुए गहनों को देखकर हम उन सब विशेषणों को प्रत्यक्ष अनुभूत कर सकते हैं।

पत्थर की इस चतुर्भुज मूर्ति के दो ऊर्ध्व हाथों में भगवान के शंख और चक्र ये आयुध हैं। वहीं दो अधोहस्तों में से एक हाथ वरदान देनेवाला है और दूसरा ‘कट्यावलंबित’ (कमर पर रखा हुआ) है।

स्वर्ण का मुकुट, कानों में स्वर्ण के मकराकार कुंडल, दोनों बाजुओं पर स्वर्ण के नागभूषण, गले में तुलसीमाला के साथ साथ स्वर्ण और रत्नों की कई मालाएँ, स्वर्ण के ख़ानों में स्थापित शालिग्रामों की माला, श्रीलक्ष्मीजी की १०८ प्रतिमाएँ अंकित की गयी माला, दोनों अधोहस्तों के लिए स्वर्ण के रत्नमय आच्छादन, स्वर्णमय चरण-आच्छादन और स्वर्ण की कटिमेखला….! व्यंकटेशजी के आभूषणों की सूचि तो बहुत बड़ी है।

तो ऐसे हैं, एक हाथ से वरदान देनेवालें, एक हाथ को कमर पर रखनेवालें और बाकी के दो हाथों में आयुधों को धारण करनेवालें भगवान व्यंकटेश; जिनके मात्र पल भर के दर्शन से भक्तगण तृप्त हो जाते हैं।

भगवान व्यंकटेशजी की गर्भगृह स्थित जिस मूर्ति को उपचार अर्पण किये जाते हैं, उसे ‘भोगश्रीनिवास’ कहा जाता है। चांदी से बनी इस मूर्ति की ऊँचाई हालाँकि मूल मूर्ति जितनी नहीं है, लेकिन यह मूर्ति भी चतुर्भुज ही है।

पल्लव राजा की समवाई नाम की रानी ने १०वीं सदी में इस मूर्ति की स्थापना की ऐसा कहा जाता है। यह मूर्ति हमेशा मूल मूर्ति के पास ही रहती है और इसेही सभी उपचार अर्पण किये जाते हैं।

व्यंकटेशजी की उत्सवमूर्ति को ‘मलय्यपन स्वामी’ कहा जाता है। इसकी ऊँचाई लगभग तीन फीट है और यह भी विभिन्न गहनों से लदी हुई है। इस मूर्ति की दाहिनी ओर ‘श्रीदेवी’ और बायीं ओर ‘भूदेवी’ विराजमान हैं।

व्यंकटेशजी की पूर्वकालीन उत्सवमूर्ति को ‘उग्र श्रीनिवास’ कहा जाता है। इसकी ऊँचाई लगभग डेढ़ फीट है और इसकी दाहिनी और बायीं ओर श्रीदेवी और भूदेवी विराजमान हैं। साल में मात्र एक बार, कार्तिक मास की द्वादशी को प्रात:समय में इसकी शोभायात्रा निकाली जाती है।
भगवान व्यंकटेशजी की मूल मूर्ति स्वयंभू है, ऐसा माना जाता है।

हम सब हमेशा यह कहते हैं कि इस दुनिया पर भगवान की सत्ता है, वे ही इस विश्‍व के शासक हैं। तिरुपति के मंदिर में हम इस बात को महसूस कर सकते हैं। यहाँ पर प्रतिदिन भगवान का दरबार भरता है। ‘कोलुवू श्रीनिवास’ इस दरबार के महाराजा हैं। उनके सामने इस दरबार का कार्य चलता है। उन्हें प्रतिदिन का पंचांग भी पढ़कर सुनाया जाता है। प्रतिदिन के कार्यक्रम भी विस्तारपूर्वक सुनाये जाते हैं और साथ ही पिछले तथा अगले दिन के कार्यक्रम भी संक्षेप में सुनाये जाते हैं। मंदिर की हुंडी में भक्तों द्वारा अर्पण की गयी वस्तुओं की जानकारी भी उन्हें दी जाती है। इस तरह प्रतिदिन ‘कोलुवू श्रीनिवासजी’ के दरबार का कामकाज़ चलता है।

‘हुंडी’ यह शब्द तिरुपतिजी के मंदिर के साथ अभिन्नतापूर्वक जुड़ा हुआ है। ‘हुंडी’ यानि कि एक ऐसी बड़ी थैली, जिसे गर्भगृह के सामनेवाले मंडप में रखा जाता है। भाविक व्यंकटेशजी को जो कुछ धन, अलंकार आदि अर्पण करना चाहते हैं, उसे इस हुंडी में अर्पण करते हैं।

अब हुंडी से फिर चलते हैं, मंदिर की अन्य मूर्तियों के दर्शन करने।

व्यंकटेशजी की मूल मूर्ति की प्रतिकृति रहनेवालीं उपरोक्त मूर्तियों के अलावा कुछ अन्य मूर्तियाँ भी इस मंदिर में हैं।
बाल श्रीकृष्णजी की नृत्यमुद्रान्वित मूर्ति यहाँ पर है। कन्हैया के हाथ में मक्खन का गोला है। धनुर्मास में इस मूर्ति को उपचार अर्पण किये जाते हैं।

सुदर्शनचक्र की अधिष्ठात्री देवता मानी जानेवाली, ‘चक्रट्टलवर’ इस नाम से जानी जानेवाली मूर्ति भी इस मंदिर में है। जब उत्सवमूर्ति की शोभायात्रा निकाली जाती है, तब यह मूर्ति प्रमुख मूर्ति के आगे रहती है।

इनके अलावा श्रीराम, सीताजी और लक्ष्मणजी इनकी मूर्तियाँ भी यहाँ पर हैं। एक और ग़ौर करने लायक बात यह है कि अन्यत्र अधिकांश रूप में न पायी जानेवालीं दो मूर्तियाँ हमें यहाँ पर दिखायी देती हैं। रामायण के दो प्रमुख व्यक्तित्व रहनेवालें सुग्रीव और अंगद इन दोनों को यहाँ पर हम मूर्ति रूप में देख सकते हैं।

भगवान श्रीविष्णुजी के इस व्यंकटेश अवतार में उनके सहायक रहनेवाले ‘विष्वक्सेन’ भी यहाँ पर मूर्तिरूप में उपस्थित है।

व्यंकटेशजी के इस देवालय में भगवान को नित्य-उपचारों के साथ साथ सप्ताह के विशिष्ट दिनों में विशिष्ट उपचार भी अर्पण किये जाते हैं।
व्यंकटेशजी को अर्पण किये जानेवाले उपचारों की विधि श्रीरामानुजाचार्यों द्वारा निर्धारित की गयी हैं। मंदिर में होनेवाला पूजन-अर्चन ‘वैखानस आगम’ के अनुसार किया जाता है।

जिस ‘सुप्रभातम् स्तोत्र’ से हमने शुरुआत की, उसके रचनाकार हैं – प्रतिवादी भयंकर अण्णाजी।

व्यंकटेशजी और उनकी प्रतिकृतियों के दर्शन तो हम कर चुके; लेकिन देवी पद्मावती के दर्शन किये बिना हमारी यह यात्रा पूरी नहीं होगी। देवी पद्मावती के दर्शन करने के लिए हमें सप्तगिरि से उतरकर ‘तिरुचानूर’ जाना पड़ेगा। चलिए, तो फिर चलते हैं, माता के दर्शन करने!

तिरुपति से लगभग पाँच कि.मी. की दूरी पर बसा है, तिरुचानूर। देवी पद्मावती के मंदिर के बाजू में ही ‘पद्मसरोवर’ नामक तीर्थ है।

देवी पद्मावती का मंदिर बहुत ही सुन्दर है। पद्म (कमल) धारण करनेवालीं देवीमाँ भक्तों को अभय और वरदान दोनों भी देती हैं। साल में एक बार यानि कि व्यंकटेशजी के साथ जब उनका विवाह होता है, तब उन्हें हाथी पर के हौदे में विराजित करके सप्तगिरि ले जाया जाता है। वहाँ पर भगवान व्यंकटेश और देवी पद्मावती इनका मंगलविवाह संपन्न होता है।

हालाँकि अब देवी पद्मावती के दर्शन करने से हमारी तिरुपति यात्रा पूरी तो हो गयी; लेकिन ठेंठ मंदिर के गर्भगृह में प्रवेश करने की वजह से देवालय की सैर करना तो बाकी रह गया। कोई बात नहीं, तिरुचानूर से देवीमाता के साथ पुन: सप्तगिरि चलते हैं!

Leave a Reply

Your email address will not be published.