नासिक भाग – १

रामायण कई ह़जार वर्ष पूर्व इस भारतभूमि पर घटित हुआ। सदियाँ बीत गयीं, मग़र फ़िर भी जनमानस पर आज भी रामायण की मोहिनी क़ायम है। मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम, आनंदिनीस्वरूप उनकी शक्ति – पत्नी सीतामाई और उनके बन्धु लक्ष्मण इन तीनों के प्रति आज भी भारतवासियों के मन में अपरम्पार प्रेम तथा अत्यधिक पूज्य भाव है। दरअसल यह रामायण घटित हुआ अयोध्या से लेकर लंकातक और फ़िर पुनः अयोध्या तक। इस सम्पूर्ण प्रवास में परमात्मत्रयी ने कई स्थानों को अपने चरणस्पर्श से पावन किया। इन्हीं में से एक स्थान है, महाराष्ट्र का ‘नासिक’ यह शहर। वनवास के दौरान श्रीराम ने इस स्थान पर निवास किया था, ऐसा माना जाता है।

पश्‍चिमी काशी

‘नासिक’ को ‘नाशिक’ भी कहते हैं। क्या ऐसा आपको नहीं लगता कि इस ‘नासिक’ शब्द का सम्बन्ध कहीं न कहीं तो ‘नासिका’ (नाक) के साथ होगा? नासिक यह सदियों से ऋषियों की, तपस्वियों की, सिद्धों की भूमि मानी जाती है और इस पुण्यक्षेत्र को मानवों की मोक्षभूमि भी कहा जाता है।

‘पश्‍चिमी काशी’ के रूप में मशहूर नासिक, भारत के पाँच प्रमुख महातीर्थों में से एक माना जाता है। नासिक में मनुष्य की आबादी कबसे बस रही है, यह बताना तो मुश्किल है। लेकिन सम्भवतः हर एक युग में यहाँ पर लोग बस रहे थे, ऐसा हम मान सकते हैं, क्योंकि हर एक युग में यह स्थान विभिन्न नामों से जाना जाता था।

कहा जाता है कि कृतयुग में ब्रह्माजी ने यहाँ पर पद्मासन में बैठकर तपश्चर्या की थी, इसीलिए इस स्थान को ‘पद्मनगर’ कहा जाने लगा। आगे चलकर श्रीरामप्रभु के समय में यहाँ पर ऋषियों के आश्रम थे, लेकिन ऋषियों की तपश्चर्या में राक्षस बाधाएँ उत्पन्न करते थे। खर, दूषण और त्रिसिरा ये तीन राक्षस यहाँ के ऋषियों की तपश्चर्या में रुकावटें उत्पन्न करते थे। श्रीरामप्रभु ने इन तीनों राक्षसों का वध कर दिया। ये तीन राक्षस उस समय तीन कंटकों (काटों) की तरह समाज को चुभ रहे थे। श्रीराम ने इन तीन कंटकों को नष्ट कर दिया, इसीलिए कृतयुग में इस स्थान को ‘त्रिकंटक’ कहा जाने लगा। द्वापार युग में इस स्थान को ‘जनस्थान’ कहते थे, तो कलियुग में इसे ‘नासिक’ कहने लगे। कलियुग में इस नासिक नाम के साथ ही इस स्थान को ‘नवशिख’ भी कहा जाता था। इस विवरण से यह बात हमारी समझ में आती है कि हर युग में इस स्थान का अस्तित्व होगा।

अब जरा हम ग़ौर करते हैं, नासिक और नाक इनके बीच के सम्बन्ध पर। प्रभु श्रीरामचन्द्रजी उनके वनवासकाल के दौरान जब यहाँ पर बस रहे थे, तब रावण की बहन शूर्पणखा यहाँ पर आयी और फ़िर क्या हुआ, यह तो हम सब जानते ही हैं। लक्ष्मणजी ने शूर्पणखा का नाक काट दिया और इसीलिए इस स्थान को ‘नासिक्य’ कहा जाने लगा। ‘नासिक’ यह नाम इसीका अपभ्रंश है।

यह नासिक क्षेत्र जिस पहाड़ी पर बसा हुआ है, उस पहाड़ी की नौं शिखाएँ यानि कि शिखर हैं। इसीसे इस पुण्यक्षेत्र को ‘नवशिख’ कहा जाने लगा, जिसका अपभ्रंश नासिक-नाशिक इस तरह हो गया। संक्षेप में, नासिक का सम्बन्ध जैसे नाक के साथ है, वैसे ही नौं शिखरों के साथ भी है।

ऐसे इस नासिक का लिखित उल्लेख भी कुछ स्थानों पर मिलता है। इसवी १५० में भारत आये इजिप्शियन यात्री ‘टोलेमी’ धर्मपीठ के रूप में इस शहर का गौरवपूर्ण उल्लेख करते हैं। जबलपूर के पास के भरतपूर नामक गाँव की कुछ गुफ़ाओं में स्थित ब्रह्मस्तूप पर नासिक का उल्लेख मिलता है। इन गुफ़ाओं का निर्माण इसापूर्व दूसरी सदी में हुआ था।

हालाँकि इतिहास में इस तरह नासिक के साथ हमारी मुलाक़ात होती रहती है, लेकिन इससे यह तय नहीं किया जा सकता कि नासिक पर किसी हुकूमत की शुरुआत कबसे हुई। क्योंकि किसी नगरी पर किसी राजा की हुकूमत की शुरुआत होना यह दर्शाता है कि उस विशिष्ट नगर को योजनाबद्ध रूप से विकसित किया गया था। नासिक के शासकों में सबसे पहला उल्लेख पाया जाता है, आन्ध्रभृत्यों का। उसके बाद नासिक पर आभीरों की सत्ता स्थापित हुई। छठी सदी की शुरुआत में चालुक्यों ने इस प्रदेश पर कब़्जा कर लिया और राठोड़ वंश ने यहाँ पर शासन किया। लेकिन राठोड़ शासकों की राजधानी नासिक के पास की मयूरखिंडी में थी।

१३वी सदी के अन्त तक देवगिरी के यादवों का यहाँ पर शासन था। १४वी सदी से लेकर १८वी सदी की शुरुआत तक मुघलों की यहाँ पर हुकूमत थी। उन्होंने सिक का नाम बदलकर ‘गुलशनाबाद’ कर दिया।

मुघलों के बाद नासिक पर मराठों का शासन था और लगभग इसवी १७४७ तक इस प्रदेश पर मराठों का पूरी तरह अमल क़ायम हुआ।

विदेशी हुकूमत के दौरान इस शहर का रंगरूप ही बदल गया था। प्राचीन समय से महातीर्थ के रूप में मशहूर रहनेवाले इस क्षेत्र को पुनः उसका मूल स्वरूप प्रदान करने का बहुत बड़ा कार्य पेशवाओं ने किया अर्थात् गुलशनाबाद का नामकरण पुनः नासिक कर दिया गया।

माधवराव पेशवा की माताजी गोपिकाबाई का निवास इस स्थान पर था और माधवराव के चाचा राघोबादादा का वास्तव्य भी इसी नगरी में था।

१९वीं सदी की शुरुआत में नासिक वहाँ के महलों के लिए, कलापूर्ण इमारतों के लिए, सुन्दर उपवनों के लिए और हाँ, आज भी नासिक की पहचान बने हुए अँगूरों के बाग़ानों के लिए मशहूर था। इतना ही नहीं, उस समय नासिक मशहूर था, सोने-चाँदी की पेठों के लिए। कहा जाता है कि नासिक को व्यापारी दृष्टिकोन से ऐसी ही ऊर्जितावस्था इसापूर्व १५० साल के दौरान भी थी। उस समय यह देश का एक प्रमुख व्यापारी केन्द्र था।

नासिक पर रहनेवाली मराठों की हुकूमत के अस्त के साथ साथ ही शुरू हुआ भयावह परतन्त्रता का दौर, जो कि १५० साल तक क़ायम रहा। नासिक पर अंग्रे़जों की हुकूमत शुरू हुई, लेकिन अंग्रे़जों की इस हुकूमत का इस शहर के वीरों ने डँटकर मुक़ाबला किया।

भक्ति तथा शौर्य, एक ही सिक्के के दो पहलू। अत एव ऋषियों के, तपस्वियों के और साक्षात् प्रभु श्रीरामचन्द्रजी के वास्तव्य से पुनित हुई इस नगरी में, देश को अंग्रे़जों की ग़ुलामी से आ़जाद करने के लिए जूझनेवाले शूरवीरों ने जन्म लिया, इसमें कोई अचरज की बात नहीं है।

भारत के स्वतन्त्रतासंग्राम में नाशिक क्रान्ति की एक धधकती मशाल बन चुका था।

१९वी सदी के मध्य में नासिक पर पूर्ण रूप से अपनी सत्ता स्थापित किये हुए अंग्रे़जों ने सुधार करने का दिखावा कर इस शहर में अपने पैर खूब जमा लिये। पहले उन्होंने यहाँ पर एक लायब्ररी शुरू की, उसके बाद अँग्लो-व्हर्नाक्युलर स्कूल शुरू किया और अन्त में नासिक शहर को स्वतन्त्र महापालिका का (म्युनिसिपालटी का) द़र्जा भी बहाल किया।

नासिक में ‘अभिनव भारत’ इस संगठन की स्थापना की गयी। ज़ुल्मी अंग्रे़ज सत्ता का और सत्ताधीशों का प्रतिकार करना, यह उस संगठन का उद्देश्य था। स्वतन्त्रताप्राप्ति की ईर्ष्या से सुलगते हुए नासिक के युवावर्ग ने इस प्रतिकार करने के लिए अलग-अलग राहें चुनी। इसके लिए अनन्तजी कान्हेरे तथा उनके मित्रों ने सशस्त्र विरोध का मार्ग अपनाया। उस समय के नासिक के ज़ुल्मी अंग्रे़ज कलेक्टर जॅक्सन का इन क्रान्तिवीरों ने वध कर दिया। यह घटना घटित हुई, तब जॅक्सन विजयानन्द थिएटर में ‘संगीत शारदा’ नाटक का खेल देख रहा था। कान्हेरेजी और उनके सहकर्मियों को कुछ ही दिनों में मनुष्यवध के इल़जाम के तहत फाँसी की स़जा दी गयी।

यह स्वतन्त्रतापूर्व दौर नासिक के लिए एक अनोखा दौर था। मन्त्रपाठ, संध्यावन्दन, आरती के स्वर जहाँ गूँजते थे, उसी नासिक में उस समय भारत के हर एक सपूत को जगानेवाले देशभक्ति के गीत गाये जाने लगे। देश आ़जाद हो, इस जुनून को हर एक के मन में जगानेवाले गीत नासिक की गली गली में गूँज रहे थे। सचमुच, कितना सुनहरा होगा वह दौर! हम केवल मन के पटल पर एक तेजस्वी और स्फ़ूर्तिदायक चित्र देख सकते हैं। लेकिन साथ ही यह विचार भी मन में प्रवाहित होता है कि आज हम इस आ़जाद भारत में चैन की साँस ले रहे हैं, वह केवल इन अनगिनत ज्ञात तथा अज्ञात स्वतन्त्रतावीरों के बलिदान के कारण ही।

अंग्रे़जी हुकूमत के दौर में इन देशभक्ति के गीतों के साथ ग़ुलामी की जंजीर को तोड़ने के लिए अपनी अपनी क्षमता के अनुसार कार्य करने का आवाहन कई देशभक्त सभाओं द्वारा कर रहे थे। ऐसा वह एक देशभक्ति के जुनून से भरा दौर था।

आख़िर अंग्रे़जों को भारत छोड़ना ही पड़ा और नासिक भी अंग्रे़जों के चंगुल से आ़जाद हुआ।

बहुत बार हम ऐसा कहते हैं कि किसी जगह का पानी किसी अच्छी बात के लिए, किसी अच्छी वृत्ति के लिए पोषक रहता है। शायद नासिक इस शहर को मिली भक्ति और शूरता, यह गोदावरी के जल की ही देन होगी।

गोदावरी! कहा जाये तो नासिक की पहचान और कहा जाये तो प्राणवाहिनी! इस गोदावरी के तट पर ही यह नासिक शहर बसा हुआ है। गोदावरी में स्थित कई कुण्डों और तीर्थों के कारण इसे मोक्षदायिनी भी कहा जाता है। नाशिकसमीप के ‘ब्रह्मगिरी’ पर्वत में उद्गमित गोदावरी से नासिक शहर में कई जगह मुलाक़ात होती है। लेकिन आज इन्हीं स्थानों पर गोदावरी की अवस्था ठीक नहीं है।

गोदावरी के उद्गमस्थान से कुछ ही दूरी पर स्थित है, ‘त्र्यंबकेश्‍वर’! ‘ॐ त्र्यंबकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्।’ यह कहकर जिनकी प्रार्थना की जाती है, वे त्र्यंबकेश्‍वर अर्थात् शिवजी ही हैं और इन शिवजी की उपस्थिति के कारण ही इस नासिक नगरी को माना जाता है, पश्‍चिमी काशी!

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