श्रीसाईसच्चरित : अध्याय-३ : भाग-८४

अपने श्रीसाईनाथ का, भगवान का गुणसंकीर्तन यही साक्षात् सुदर्शन चक्र है। यह तो हमने पिछले लेख में देखा। रोहिले की कथा में सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण मुद्दा इस गुणसंकीर्तन का है। रोहिले की कथा में गुणसंकीर्तन का विस्तारपूर्वक अध्ययन करते हुए सहज ही हमें स्मरण होता हैं। १९वे अध्याय के रामनाम एवं राम का गुणसंकीर्तन, इनसे संबंधित पंक्तियों का, वहाँ पर हेमाडपंतने अत्यंत सुंदर तरीके से गुणसंकीर्तन का एवं नामसंकीर्तन का महत्त्व हमें समझाया है।

जहाँ रामनाम का घोष। फिरे वहाँ विष्णु का सुदर्शन।
करे कोटि विघ्नों का निर्दलन। दीन संरक्षण नाम यह॥
(जेथे रामनामाचे गर्जन। फिरे तेथे विष्णुचे सुदर्शन। करी कोटी विघ्नांचे निर्दळण। दीनसंरक्षण नाम हे॥)

रामनाम का गर्जन इसमें राम के नाम के साथ उनके गुणों का संकीर्तन भी अंतर्भूत है ही। जहाँ पर राम का गुणसंकीर्तन शुरु होता है, वहाँ पर विष्णु का सुदर्शनचक्र निरंतर घुमता ही रहता है। और यह सुदर्शन चक्र कोटि विघ्नों का निर्दालन करता ही है। असंख्य प्रारब्ध भोगों का नाश करके भक्तों का संरक्षण करता है। फिर गुणसंकीर्तन करनेवाले श्रद्धावान को सुदर्शनचक्र के समान संरक्षक कवच प्राप्त हो जाने पर रोहिली ही क्या अन्य किसी का भी भय नहीं रहता है।

साईबाबा, श्रीसाईसच्चरित, सद्गुरु, साईनाथ, हेमाडपंत, शिर्डी, द्वारकामाईपरमात्मा का गुणसंकीर्तन करते रहनेवाला मन अर्थात रोहिला। रोहिली अर्थात अपना स्वयं का ही रोना रोनेवाली वृत्ति। जब भक्त साईनाथ का, अपने परमात्मा का गुणगान करने लगता है। ऐसे में स्वयं के कर्तृत्व का दिखावा करने की वृत्ति अपना मुँह उठाने लगती है (उफाळून उठते)। हर एक प्रगति के पड़ाव पर ‘यह परमात्मा की ही कृपा है’ इस तरह से मन:पूर्वक उद्घोष करनेवाला भक्त अर्थात रोहिला और ‘मेरे कर्तृत्व से ही यह सब मुझे प्राप्त हुआ है’ यह अहंकार रखनेवाली वृत्ति अर्थात रोहिली। हरएक बात का श्रेय (क्रेडिट) मुझे मिलना ही चाहिए। यह अट्टाहास करनेवाली वृत्ति अर्थात रोहिली। और हर एक स्तर पर होनेवाले विकास का श्रेय परमात्मा को अर्पण करनेवाला भक्त मन अर्थात रोहिला। जब भक्त मन इस तरह से परमात्मा का गुणसंकीर्तन करने लगता है। ऐसे में ही यह रोहिली मन में घुसकर हमारी प्रगति में बाधा लाने की कोशिश करती है।

ऐसे में हमारे इस रोहिले को अधिकाधिक सक्रिय (अ‍ॅक्टिव्ह) रहना चाहिए। यह जितना अधिकाधिक सक्रिय होता रहेगा उतनी ही अधिक यह रोहिली निष्क्रिय होती रहेगी। मैं जब अपना स्वयं का ही गुणगान करने लगता है। ऐसे में अपने-आप ही उस परमात्मा का विस्मरण होने लगता है और परमात्मा के गुणों का विस्मरण अर्थात परमात्मा के कर्तापन का विस्मरण। परिणाम स्वरूप परमात्मा का ही विस्मरण। जब मेरे जीवन में परमात्मा का गुण, कर्तृत्व एवं परमात्मा का विस्मरण हो जाता है, उसी वक्त में प्रारब्ध के दुष्टचक्र में फँस जाता हूँ।

इसीलिए मुझे स्वयं ही इस बात का निश्‍चय करना है। हमें स्वयं का गुणसंकीर्तन करना है कि परमात्मा का। मैं जितना अधिक स्वयं का गुणसंकीर्तन करता रहूँगा, अपनी ही आरती उतारता रहूँगा, उतना ही अधिक मेरी अहंकारी वृत्ति और भी बढ़ती जायेगी। इसके विरूद्ध मैं जब परमात्मा का गुणसंकीर्तन करता रहता हूँ ऐसे में मेरे अंदर होनेवाला महाप्राण का हुंकार और भी अधिक बढ़ता है (बळावत जातो) और अपनेआप ही अहंकार कम होने लगता है। ये महाप्राण का हुंकार ही मेरे अंदर होनेवाले उचित बीजों का विकास करनेवाले हैं। हम सुंदरकांड में पढ़ते हैं कि हनुमानजी की हुंकार से राक्षसियों का गर्भपात हो जाता है। तात्पर्य यह है कि राक्षसी प्रवृत्तियों को जन्म देनेवाली, बुरी शक्ति, जो मेरे मन में होती हैं, उन अनुचित प्रवृत्तियों को जन्म दे ही नहीं सकती हैं, जन्म से पहले ही राक्षसी प्रवृत्ति के बीज नष्ट हो जाते हैं।

यदि कोई बुरा विचार मन में जन्म ले ही लेता है, तो उसे नष्ट करने के लिए काङ्गी कष्ट झेलने पड़ते हैं। राक्षस तो क्षण प्रति क्षण प्रचंड वेग के साथ बढ़ते ही रहते हैं, जन्म लेते ही वे प्रचंड वेग के साथ बढ़ जाते हैं। हमारे मन की विकृति भी कुछ इसी प्रकार की होती है। जिस पल मन में विकृत विचारों का, कल्पनाओं का, प्रवृत्तियों का जन्म होता है उसी क्षण से वे चहुँ ओर से पनपने लगती हैं। और अल्पावधि में ही प्रचंड बड़ा रूप धारण करके मुझ पर अपना अधिकार जमा लेती हैं। और उन पनपनेवाली प्रवृत्तियों को जड़मूल के साथ उखाड़ फेंकने के लिए काफ़ी कष्ट उठाना पड़ता है। इसीलिए मूलत: इस प्रकार की प्रवृत्तियों को मन में उभरने से पहले ही उन्हें नष्ट कर देना चाहिए। हम ठहरे सामान्य मनुष्य ऐसे में कौन सी बुरी प्रवृत्ति कहाँ ओर कैसे जन्म ले लेगी यह जान पाना मुश्किल होता है, फिर उनको जन्म लेने से पहले ही हम उन्हें नष्ट कैसे करेंगे? उस पर भी हमारी क्षमता भी उतनी अधिक नहीं है। सीमित ही है, हमारी शक्ति भी अल्प है। एकमेव ये महाप्राण हनुमानजी ही इन सभी बुरी प्रवृत्तियों को नष्ट करने के लिए सदैव सक्षम एवं तत्पर हैं।

बुरी प्रवृत्तियों के जन्म लेने के पश्‍चात्, वे कितना भी भयानक अक्रालविक्राल रूप धारण कर लेती हैं फिर भी ये महाप्राण हनुमंत उन्हें एक पल में ही नष्ट कर सकते हैं, उनके लिए असंभव ऐसा कुछ भी नहीं। परन्तु वे आसुरी शक्तियाँ जन्म लेने के पश्‍चात् हमारे मन में तूफान मचा देती हैं, इससे हमें काफ़ी तकलीफ सहनी पड़ती है। इसीलिए भलाई इसी में है कि ऐसी सभी आसुरी शक्तियों का जन्म होने से पहले ही उन्हें नष्ट हो जाना चाहिए। इसके लिए महाप्राण हनुमानजी का हुंकार मेरे जीवन में प्रकट होना ही चाहिए साथ ही महाप्राण का हुंकार मेरे जीवन में सतत प्रकट होने के लिए सहज आसान मार्ग हनुमानजी ने ही हमें दिखा रखा है और वह है श्रीराम का गुणसंकीर्तन।

आज हम कितनी भी विपरित परिस्थिती के जकड़ में आ गए हो, हमसे आज तक अनेकों गलतियाँ हो चुकी हो, परन्तु हम यदि सच्चे दिस से पश्‍चाताप करते हैं और अपने-आप को सुधारकर श्रीराम की शरण में जाते हैं तो ये परमात्मा श्रीराम मुझे सभी प्रकार की सहायता के लिए हमारे पास भेजने के लिए तत्पर ही हैं। परन्तु इसके लिए मुझे श्रीराम के गुणसंकीर्तन के मार्ग का अवलंबन करना होगा। रोहिली के आड़े जाते ही हमें गुणसंकीर्तन आरंभ कर देना चाहिए। जो रोहिले को रोकता नहीं, उसके जीवन में श्रीहनुमान सक्रीय होते ही हैं। हनुमानजी का हुंकार प्रकट होता ही है। और फिर ये हनुमंत हमें हमारे भगवान के पास वायुगति के साथ ले जाते है। हनुमानजी के मार्गपर चलनेवाले भक्त को रोहिली ही क्या पर कोई भी रोक नहीं सकता है।

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