श्रीसाईसच्चरित : अध्याय-३ : भाग-८५

रोहिले की कथाद्वारा हमारे मन में चलनेवाले तीनों गुणों का खेल ही बाबा हमें स्पष्टरूप में दिखा रहे हैं। रोहिला शिरडी में आया, उसने द्वारकामाई में ही अपना स्थान निश्‍चित कर लिया। उसका बाबा पर पूरा विश्‍वास था और परमात्मा के गुणसंकीर्तन में ही उसकी श्रद्धा थी। यह रोहिला दिन-रात द्वारकामाई में एवं चावड़ी में जोरदार आवाज में जोर-जोर से ईश्‍वर का गुणसंकीर्तन करने लगा। अब उसकी इस कृति से सभी ग्रामवासियों को तकलीफ होने लगी। दिनभर धूप में खेती में काम करना पड़ता था और रात्रि के समय में शांति से नींद ले सके पर कहाँ! इस समय भी रोहिले की गुहार शुरु ही रहती थी। फिर ऐसी स्थिती में शांति की नींद भी भला कैसे आ सकती थी?

सारे ग्रामवासी रोहिले से रूष्ट हो गए थे, उनके लिए रोहिले की जोरदार आवाज असह्य हो गई। बाबा को भले ही तकलीफ न होती होगी, परन्तु इस रोहिले के कारण हमें कितनी अधिक परेशानी झेलनी पड़ ही रही है। फिर आखिर ऐसी परिस्थिती में करे भी तो क्या? आखिरकार एक दिन गाँव के सभी लोगोंने मिलकर बाबा के पास जाकर गुहार लगाई, और अपनी अड़चन बाबाको बतायी। बाबा से कहने से पूर्व इन लोगों ने, रोहिले पर जोर-जबरदस्ती की थी। परन्तु पहले ही सिर फिरा रोहिला, बाबा के गुणसंकीर्तन के प्रति होनेवाला प्रेम (पाठिंबा) जानकर और भी अधिक मनमानी (अनावर) हो गया था। वह किसी की भी परवाह नहीं करता था। उलटे उसने लोगों के साथ तू-तू-मैं-मैं की उन्हें उलटा जवाब दिया।

इसीलिए लोगों ने यह फैसला किया कि वे बाबा को सब कुछ बता देंगे और इस रोहिले का बंदोबस्त हमेशा के लिए करवा देंगे। सभी लोग मिलकर जब रोहिले की शिकायत करने के लिए बाबा के पास गए और बाबा के समक्ष उन्होंने रोहिले का पक्ष रखा। तब बाबा ने उनकी शिकायत की ओर ध्यान दिए बगैर ही उलटे उनसे हे कहने लगे कि इस रोहिले को वे परेशान पर न करे, वह मुझे अत्यन्त प्रिय है। इस रोहिले की घर घुसनेवाली उसकी पत्नी उसके साथ नहीं रहना चाहती है। उसे छोड़ उलटे वह मुझे ही परेशान करना चाहती है। इस रोहिली के पास लाज-लज्जा नहीं है। इसे कितनी ही बार गाँव सीमा से बाहर निकाल दिया था, फिर भी वह पुन: पुन: घुसने के चक्कर में पड़ी रहती है।

इस रोहिले की चिल्लाहट के रूकते ही वह अंदर घुसने की कोशिश करती है। और इसका चिल्लाना शुरु होते ही वह वहाँ से भाग खड़ी होती है, इसीलिए तुममें से कोई भी इस रोहिले को परेशना नहीं करेगा। उसे मुक्त होकर चिल्लाने दो। उसके बगैर मुझे रात्रि में भी आराम नहीं मिलता। मेरी रात नहीं बितती है। उसके इस ईश्‍वरीय गुणसंकीर्तन से मुझे अत्यन्त सुख की अनुभूति होती है। उसका यह गुणसंकीर्तन अत्यन्त हितकारी है। इस परोपकारी रोहिले को चिल्लाने दो, यथेच्छ गुणसंकीर्तन करने दो, क्योंकि इसी में सभी की भलाई है।

यह स्वयं ही जब रूक जायेगा, स्वयं ही जब चिल्लाना बंद कर देगा, उस वक्त तुम्हारा कार्य साध्य हो जायेगा और मुझे भी कष्ट नहीं होगा। बाबा ही जब ऐसा कह रहे हैं तो लोग लाइलाज हो गए। लोगों को ऐसा लगा कि बाबा कितने क्षमा संपन्न हैं। जिस आवाज को सुनकर माथा ठनकने लगता है। उसी में बाबा तल्लीन हो जाते हैं। इस रोहिले का चिल्लाना कितना तकलीङ्गदायक है और वह भी बाबा के बिलकुल नजदीक बैठकर करता है, फिर भी बाबा को कभी तकलीफ नहीं होती। उलटे बाबा का उदार मन से उसे क्षमा करके गुणसंकीर्तन करने को कहते हैं। बाबा स्वयं ही यदि ऐसा कहते हैं तो यहाँ पर लोगों का नाइलाज ही है और वे वहाँ से चुपचाप लौट जाते हैं।

रोहिले को जब इस वृत्तांत का पता चलता है। तब उसे और भी अधिक उत्साह (ताव) आ जाता है। कहावत है ‘पहले ही उल्हास, उसमें फागुन मास!’ फिर यह रोहिला इस घटना के पश्‍चात यह जानकर कि बाबा तो मेरे पक्ष में हैं, ईश्‍वर का मुझे पूरा सहयोग है, ईश्‍वर मुझे पूरीतरह से सहायता कर रहे है, अब तो मुझे कोई भी रोक नहीं सकता है। इस बात का पूरा विश्‍वास हो जाने पर वह और भी अधिक जोर से जोर गुणसंकीर्तन करने लगता है।

इस सभी वर्णन के माध्यम से बाबा हमें काफ़ी सुंदर मार्गदर्शन कर रहे हैं। परमार्थ के प्रवास में हमारे मन को होनेवाले तीन गुणों के खेल का दिग्दर्शन इस कथा के माध्यम से कह रहे है। सच इस रोहिले की कथा अत्यन्त उद्बोधक है। और हर एक श्रद्धावान के लिए मार्गदर्शक भी है। भक्तिमार्ग पर चलने की शुरुआत करते समय ही हमें स्वयं ही अपने मन के इस तीन गुणों के खेल की परिभाषा समझ में आ गई होगी, तो हमारे लिए हमारा अगला प्रवास काफ़ी आसान हो जाता है और इसके लिए हेमाडपंत तृतीय अध्याय में, साईसच्चरित के आरंभ में ही यह कथा लिख रहे हैं। अब हम संक्षिप्त रूप में अध्ययन करने जा रहे हैं इस बात का कि इन तीन गुणों का खेल मन में कैसे चलता है।

यहाँ पर रोहिला यह रूपक है सत्वगुणों का और रोहिली रूपक है तमोगुण की। तथा ग्रामवासी रूपक है रजोगुण का। अधिकतर हम सभी लोग भी इन ग्रामवासियों की तरह ही होते हैं। ना यहाँ के और ना ही वहाँ के। हम भक्ति तो करना चाहते हैं पर किस लिए? तो हमारी पारिवारिक समस्यओं का समाधान न हो सके इसके लिए साथ ही हम जो चाहते हैं उसे पा सके इसीलिए। इसके साथ ही हम संपूर्ण रूप से भगवान का होने के लिए तैयार नहीं होते। क्योंकि हमारा मन परिवार में ही आसक्त रहता है प्रेम-सेवाभाव शारण्य का मार्ग हमें स्वीकार नहीं होता। इसीकारण हमारा मन हमेशा दुविद्या की स्थिती में ही रहता है। कभी भक्ति की ओर तो कभी परिवार की ओर हिचकोले खाता रहता है। कभी ऐसा प्रतीत होता है कि गृहस्थी छोड़कर भक्ति में डूब जाना चाहिए, परन्तु कुछ ही समय पश्‍चात् मन विचलित होने लगता है और परिवार का मोह बढ़ जाता है। यह वृत्ति रजोगुण की है, ‘चंचलता’।

इसके विरूद्ध रोहिला यह मन का सत्वगुन है। जिसे ईश्‍वर के गुणसंकीर्तन में ही माधुर्य है। और उसे स्वयं को बाबा के चरणों में पूर्णरूप में झोक देना है। और भक्ति में ही मन, वाचा, कर्मणा से एकजूट होकर रम जाना है। रोहिली यह भक्ति से, भगवान से निवृत्त करनेवाली होती है। परमात्मा के आड़े आनेवाली तमोगुण की निदर्शक है। बाबा रोहिले की कथा के माध्यम से हमसे कहना चाहते हैं कि यह सत्वगुण ईश्‍वर के गुणसंकीर्तन से प्रबल होता है। और वह तमोगुण पर मात करता ही है। परन्तु जिस रजोगुण को मात करना कठिन होता है उसपर भी सत्वगुण से मात किया जा सकता है।

हमारा रोहिला अर्थात मन का सत्वगुण प्रबल होने लगता है, उस वक्त ग्रामवासी अर्थात रजोगुण उठकर सत्वगुण को दबा देना चाहता है। यह रजोगुण जरूरतों को संभालकर स्वयं का पक्ष कितना मजबूत है और सत्वगुण के कारण कैसे तकलीफ उठानी पड़ती है, अपने इस पक्ष को वह सफाई के साथ पेश करने लगता है, परन्तु उसी वक्त ये साईनाथ हमारे सत्वगुणों को बल देकर इस रजोगुण को सिर ऊपर उठाने नहीं देते। हमारे भगवान ही भक्त के मन में उत्पन्न होनेवाली चंचलता को खत्म करते हैं और सत्वगुण को बल देते हैं। सत्वगुण यह रोहिला और भी अधिक जोर के साथ गुणसंकीर्तन करने लगता है।

अपने श्रीसाईनाथ के भक्तिमार्ग में सत्त्वगुण का रजो एवं तमो गुणों पर विजय प्राप्त करना सहज आसान है। क्योंकि यहाँ पर ये भगवान सदैव भक्तों के पिछे उसके चहुँओर तत्पर खड़े ही रहते हैं। अन्य मार्गों में मात्र इस रजोगुण पर रोक लगाना काफ़ी मुश्किल होता है। और साधक यही पर मात खा जाता है। हम अपने श्रीसाईनाथ के भी मार्गपर हैं, यही कितना महत्त्वपूर्ण है। इस बात का पता चलता है रोहिले की कथा से। हम अपने श्रीसाईनाथ के लिए क्या करेंगे? उलटे ये श्रीसाईनाथ ही सदैव हमारे लिए अथक परिश्रम करते रहते हैं। यही हम यहाँ पर जान पाते हैं (यही सीख हमें मिलती है)।

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