श्रीसाईसच्चरित : अध्याय-३ : भाग-८३

रोहिले की कथा से सीख लेते समय हमने यह सीखा की भक्तिमार्ग पर चलते हुए स्वयं की प्रगति करने की इच्छा रखनेवाले मेरे मन में जब-जब भी अनचाही यादें भूतकाल के गलतियों की डाकिने परेशान करने की कोशिश करने लगती हैं अथवा भविष्यकाल की चिंताएँ मुझे ग्रसित करने की कोशिशें करने लगती हैं। ऐसे में उसी दौरान हमें ईश्‍वर का गुणसंकीर्तन करना चाहिए। ‘श्रीरामरसायन’ यह ग्रंथ गुणसंकीर्तन का सहज आसान सर्वांग सुंदर साधन है, श्रीसाईसच्चरित यह ग्रंथ गुणसंकीर्तन का सहज आसान सर्वांग सुंदर सोपान है। श्रीरामचरितमानस का ‘सुंदरकांड’ यह इस गुणसंकीर्तन का सहज आसान सर्वांग सुंदर माध्यम है। ऐसे इस भगवान का गुणसंकीर्तन करनेवाले ग्रंथ का पठन, मनन, चिंतन, निरीक्षण द्वारा हम अपना विकास सहजरूप में साध्य कर सकते हैं। ग्रंथराज श्रीमद्पुरुषार्थ तो इस मर्यादाशील भक्ति का रसायन ही हैं। हम इस ग्रंथराज के पठन से, मनन से, चिंतन से निरिक्षण से अपना समग्र विकास साध्य कर सकते हैं।

गुणसंकीर्तन का अर्थ केवल गुणों का गायन, वर्णन, कथन इतना ही नहीं बल्कि मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम का आदर्श, गुण अपने में प्रवाहित करता यही गुणसंकीर्तन का सर्वोच्च बिंदू हैं। गुणसंकीर्तन करते-करते उस उत्तम, पवित्र गुणों को हमें अपने आचरण में उतारना यही गुणसंकीर्तन का शिखर है। जहाँ पर इस प्रकार की गुणसंकीर्तन भक्ति होती रहती है, वहाँ पर भूतकाल के भूत अथवा भविष्यकाल की डाकन कुछ भी बुरा नहीं कर सकते हैं। मूलत: ये सभी दुष्ट शक्तियाँ वहाँ पर जा ही नहीं सकती हैं, ऐसे इस गुणसंकीर्तन करनेवाले श्रद्धावान के पास वे बुरी नज़र से देख भी नहीं सकती है। फिर वे हमारा बुरा कैसे कर सकती हैं?

साईबाबा, श्रीसाईसच्चरित, सद्गुरु, साईनाथ, हेमाडपंत, शिर्डी, द्वारकामाईकभी-कभी हम शांतरूप में निश्‍चिंतभाव से गुणसंकीर्तन करने बैठते हैं, उपासना करने बैठते हैं, उस मन में बुरे-बुरे विचार आने लगते हैं, हमें अपने से ही घृणा होने लगे ऐसे विचार किंबहुना वे कल्पनाएँ होती हैं, हम शर्मिंदा हो जाते हैं। हमें बुरा लगता है। अरे इतना पवित्र भक्तियुक्त आचरण करते हुए भी ऐन उसी मौके पर ये अपवित्र कल्पनाएँ मन में आई भी तो कैसे? परन्तु यहीं पर इस रोहिली के घर में घुसनेवाली वृत्ति की याद हमें रखनी चाहिए। इन अपवित्र बीजों को जला देने के लिए ही, मन से उनको नष्ट करने के लिए कही गहराई में छिपकर बैठा हुआ मन का यह मैल जिसे ये परमात्मा स्वच्छ करते रहते हैं और इसीलिए कभी-कभी उपासना के समय उनका अहसास हमें होते रहता है।

जैसे यदि कोई तालाब साङ्ग करना होता है तो सर्वप्रथम वर्षानुवर्ष उस तालाब की गहराई में छिपकर बैठी हुई काई को घिसकर निकालना पड़ता है। बिलकुल वैसे ही हमारे परमात्मा भी हमारे मन की सङ्गाई, शुद्धता करते रहते हैं। इसीलिए सचमुच यह सब बाहर क्यों आता है, इस बात का पता भी हमें नहीं चल पाता है। यह सब जानने के पिछे पड़े रहने से भी क्या लाभ? इसकी अपेक्षा जितनी गति के साथ ये अपवित्र गतिवाले विचार उछल खाने लगते हैं, उससे दसगुणा अधिक जोर लगाकर मुझे श्रीसाईनाथ के गुणसंकीर्तन में अपने मन को उलझाये रखना चाहिए। श्रीसाईनाथ के गुणसंकीर्तन के अलावा अन्य कहीं पर भी ध्यान न देकर, अपने मन को उसी में तल्लीन बनाये रखना चाहिए। यह कार्य तो नित्य अभ्यास के साथ हर कोई कर ही सकता है।

श्रीरामरसायन इस ग्रंथ में श्रीअनिरुद्धजी ने चित्रों का भी समावेश किया है। इसके साथ ही श्रीराम के चरित्रवर्णन में गुणसंकीर्तन का बीजारोपन भी किया गया है और इसीलिए श्रीरामरसायन का पठन, उसमें होनेवाले चित्र देखना इससे मन को सहज ही गुणसंकीर्तन में तल्लीन होने का प्रचंड सहकार्य प्राप्त होता है। हमें बारंबार श्रीरामरसायन को खोलकर उसका पठन करते रहना चाहिए। उनमें होनेवाले चित्रों को निहारते रहना चाहिए विशेषतौर पर राम, लक्ष्मण, सीतामैया, भरत एवं हनुमंत इस रामपंचायतन का गुण एवं उसमें होनेवाले चित्रों को बारंबार स्मरण करते रहना चाहिए। श्रीसाईसच्चरित का पठन करते समय भी बाबा की आकृति उनका स्वरूप आँखों के समक्ष लाकर यदि हो सके तो बाबा की तस्वीर सामने रखकर बारंबार कथाओं का पठन करना चाहिए।

केवल भूतकालीन गलतियों को, भविष्यकाल की चिंता, अपवित्र कल्पनाओं से ही नहीं बल्कि सभी प्रकार के दुष्चक्रों से हमें छुड़ानेवाले इस भगवान का गुणसंकीर्तन ही है। गुणसंकीर्तन यही उनका सुदर्शनचक्र है और जहाँ पर भगवान का सुदर्शन चक्र घुम रहा है। वहाँ पर दुष्चक्र घुम ही नहीं सकता है। आपितु उसकी परछाईं भी नहीं पड़ सकती हैं।

भगवान का एक-एक गुण यह इस सुदर्शन चक्र का आरा है और संकीर्तन यह उसकी गति है इस तरह गुणसंकीर्तन रूपी सुदर्शन जहाँ पर है, वहाँ पर सबकुछ शुभ ही शुभ होगा इसमें कोई शंका नहीं। यह भगवान का सुदर्शन चक्र अर्थात गुणसंकीर्तन सभी प्रकार के दुष्चक्रों का, दुष्टशक्तियों का विनाश करनेवाला है। गुणसंकीर्तनरूपी सुदर्शनचक्र श्रद्धावानों का प्रतिपालन करनेवाला है, श्रद्धावानों को अभय देनेवाला, श्रद्धावानों का समग्र विकास करनेवाला, श्रद्धावानों का संसार एवं परमार्थ एक ही समय पर आनंददायक बनानेवाला श्रद्धावानों का कवच है तो फिर इस प्रकार का सुदर्शनचक्र हमारा प्रतिपालन करने के लिए सज्ज होने पर हमें भय किस बात का? यह सुदर्शनचक्र अर्थात महाशेष? तो फिर ये महाशेष जिस तरह से महाविष्णु के सिर पर छत्र धरे सज्ज रहते हैं, उसी प्रकार वे सभी श्रद्धावानों के सिर पर भी छत्र धारण करनेवाले हैं।

सहस्त्रमुखोंवाले ये महाशेष स्वयं भी श्रीमहाविष्णु का गुणसंकीर्तन सतत करते रहते हैं जो कोई भी श्रीमहाविष्णु का गुणसंकीर्तन करता है, उसके सिर पर छत्र धारण करने के लिए ये शेष समर्थ एवं तत्पर ही हैं। इतना जानलेने के पश्‍चात् फिर हमेम पूर्णरूप में निर्भय होकर गुणसंकीर्तन का मार्ग चचोड़ना (चोखायलाच) ही है। अपने इस लक्ष्मण भैया का, महाशेष का मार्ग ही हमारे संपूर्ण संसार को सुखमय, आनंदमय करके महाविष्णु के चरणों में बेरोकटोक एवं महावेग के साथ ले जानेवाला है।

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