श्रीसाईसच्चरित : अध्याय-३ : भाग-४५

श्री साईनाथ मुझ से अनंत अपरंपार प्रेम करते हैं। यही बात हेमाडपंत हमें बतला रहे हैं। यहाँ पर हेमाडपंत का ‘मैं’ यह केवल एक व्यक्ति से संबंधित न होकर सारे श्रद्धावानों को निर्दिष्ट करनेवाला ‘मैं’ है। धेनु (गाय) – बछड़े का, घन (बादल) – चातक का उदाहरण देकर श्रद्धावानों के प्रति रहनेवाले साईबाबा के प्रेम को हेमाडपंत स्पष्ट करते हैं। ‘मेरे हृदय में श्रीसाईसच्चरित लिखने की भूख-प्यास उत्पन्न होते ही श्री साईनाथ ने अपरंपार प्रेम का वर्षाव करके श्रीसाईसच्चरित का लेखन करने का अनुमोदन देकर मेरी भूख-प्यास का शमन तो कर ही दिया है, परन्तु इसके साथ ही उन्होंने हर किसी के लिए यह श्रीसाईसच्चरितरूपी अद्भुत मार्ग खोल दिया है’, यही हेमाडपंत हमें बता रहे हैं।

आगे माँ और बच्चे का उदाहरण देकर वे साईनाथ के अपरंपार वात्सल्य का वर्णन करते हैं। श्रीसाईनाथ के निरपेक्ष प्रेम का रहस्य वे इसी प्रकार से उजागर कर रहे हैं। इस बात का वर्णन करनेवाली पंक्तियाँ सचमुच अप्रतिम हैं।

भक्ति-प्रेम की कैसी यह महिमा। माँ को लगे बच्चे की भूख।
बच्चे के मुख न खोलने पर भी। देती है स्तन स्वयं ही बच्चे के मुख में ॥
कौन जाने माँ की थकान। बालक को न हो इसका अहसास।
कौन पूछे उसे उसकी अपनी माँ के बिना। अन्य कौन दे स्थान उसे॥
बालक को माँ गहने पहनाये। बालक नहीं उनमें दिलचस्पी।
प्यार दुलार एक माता ही जाने। वैसी ही करनी सद्गुरु की॥
मुझे अपने बच्चे से प्यार। कौन करेगा मेरे सिवा उसका प्यार दुलार।
माँ के बगैर किसे है यह आत्मीयता। यह वत्सलता-लगन है दुर्लभ॥
सन्माता की कोख से जन्म लेना। महद्भाग्य से मिलती है यह ईश्‍वरीय देन।
प्रसवपीडा सहकर जन्म देती है माँ। बालक नहीं जानता है यह॥

जन्मदात्री माँ का बालक के प्रति होनेवाला प्रेम हम सभी लौकिक दृष्टि से अनुभव करते ही हैं। जिस बात का पता हमें है, उसी के आधार पर बाबा के हम सब के प्रति रहनेवाले प्रेम को हेमाडपंत समझाकर बतला रहे हैं, अन्यथा साईनाथ के प्रेम का वर्णन करना सचमुच असंभव है। बाबा के प्रेम का वर्णन शब्दों में कैसे किया जा सकता है? क्योंकि प्रेम यह अनुभव करने की चीज है और हेमाडपंत हमें यही कह रहे हैं कि मैं इस साईमाऊली के प्रेम को उन्हीं की कृपा से अनुभव कर सका हूँ, इसीलिए आप लोगों को भी इसका अनुभव करना चाहिए।

माँ के प्रेम का उदाहरण देते समय हेमाडपंत नीचे प्रस्तुत किये गए मुद्दों को स्पष्ट कर रहे हैं।

साईबाबा, श्रीसाईसच्चरित, सद्गुरु, साईनाथ, हेमाडपंत, शिर्डी, द्वारकामाई१) माता को ही लगे अपनी संतान की भूख
यह उदाहरण दो स्तरों को उजागर करता है। पहली बात यह है कि जब बालक अपनी माँ के पेट में रहता है, ऐसे में गर्भस्थ शिशु की जो खाने की इच्छा होती है, वही इच्छा माँ के मन में भी उत्पन्न होती है और अपने बच्चे की इच्छा पूरी करने के लिए माँ स्वयं उस व्यंजन को खाती है। कहने का ताप्तर्य यह है कि बच्चे की भूख माँ को ही लगती है। अर्थात् बालक को जिस चीज़ की ज़रूरत होती है, माँ स्वयं उसे प्राप्त करती है, उसका सेवन करती है, उसे पचाकर बालक के योग्य बनाकर अपने बच्चे को उसकी आपूर्ति करती है। ये परमात्मा भी दत्तगुरु से अष्टबीज ऐश्‍वर्यों का निरंतर स्वीकार करते हुए उसी का रूपांतरण नौ अंकुर ऐश्‍वर्यों में करके उनकी आपूर्ति हमें करते रहते हैं। इन नौ अंकुर ऐश्‍वर्यों की ज़रूरत हमें होती ही है, परन्तु मेरे लिए ये भगवान स्वयं परिश्रम करते हुए परमेश्‍वरी ऊर्जा को मैं जितने प्रमाण में ग्रहण कर सकता हूँ, उसी स्वरूप में वे मुझे पूरा करते रहते हैं।

स्थूलरूप में हम लखमीचंद की कथा में देखते हैं कि लखमीचंद को शाम के वक्त सूजी का हलवा खाने की इच्छा होती है, ऐसे में साईनाथ प्रसाद के तौर पर सूजी का हलवा बनाने को कहते हैं और सोने पर सुहागा यह कि वे लखमीचंद को पेटभर खिलाते भी हैं। ‘भक्त की भूख बाबा की भूख बनकर बाबा को लगती है’ अर्थात ‘माता को ही लगती है बच्चे की भूख’ इस बात का प्रत्यक्ष एवं सुस्पष्ट उदाहरण हम श्रीसाईसच्चरित में देखते हैं।

दूसरा अर्थ यह है कि केवल माँ ही अपने बच्चे से बेहिसाब प्यार करती है। उसे स्वयं अपने बच्चे के बगैर कुछ भी अच्छा नहीं लगता है, वह एक पल भी अपने बच्चे के बगैर नहीं रह सकती है। वह अन्य किसी भी काम में चाहे कितनी भी व्यस्त क्यों न हो फिर भी उसका पूरा ध्यान अपने बच्चे पर ही रहता है। बिलकुल उसी तरह इस अनंत कोटी ब्रह्माण्ड का कारोबार चलानेवाले भगवान भी अपने श्रद्धावान पर सदैव अपना पूरा ध्यान बनाये रखते हैं। इन्हें चाहत होती है केवल अपने श्रद्धावानों की।

इन दो स्तरों पर अर्थ केन्द्रीत करनेवाली पंक्ति में वर्णित सरलार्थ के बारे में हमने पिछले लेख में विस्तारपूर्वक अध्ययन किया है। बच्चे को भूख लगी है या नहीं इस बात का पता उसे चल पाये या नहीं, परन्तु माँ को तुरन्त ही यह ज्ञान हो जाता है और वह उसे स्तनपान करवाती है। वैसे ही भक्त को इस वक्त किस चीज़ की ज़रूरत है, यह वह स्वयं नहीं जान पाता है, परन्तु उसे कब क्या देना है यह बात श्रीसाईनाथ जानते ही हैं और वे उसे योग्य समय पर योग्य वह देते ही हैं।

२) कौन जान पाये उसकी थकान
सच हमारे लिए हमारी साई माऊली कितना कष्ट उठाती रहती है, इस बात का अहसास हमें ही नहीं होता है। हमारा सब कुछ भली-भाँति चल रहा है, वह अपने साईनाथ की कृपा से ही इसबात का हमें अहसास नहीं होता है। परन्तु हमारे श्रीसाईनाथ हमारे आगे-पिछे, चहुँओर खड़े ही रहते है और हमारा ध्यान रखते हैं। इसीलिए में सुख से जी रहा हूँ, इस बात का स्मरण हमें सदैव रखना ही चाहिए। फिर जब भी हम किसी मुसीबत में फस जाते हैं, उस वक्त हम बाबा के नाम की रट लगाये रहते हैं। बाबा भी चाहे कितने भी थके क्यों न हो वे अपने भक्त की रक्षाहेतु दौड़ पड़ते हैं। राधाकृष्णामाई से ग्रसित थीं उस वक्त उनके घर के छप्पर पर सीढ़ी लगाकर चलनेवाली कथा हम सभी जानते ही हैं।

३) (बाळकासी घालितां लेणें। तें कौतुक एक माताच जाणे।)
बालक को देते ही आधार।यह कौतुक माता ही जाने।
भक्त को विकसीत करके उसके जीवन को सुंदर रूप प्रदान करनेवाली यह अपनी साईमाऊली ही है। साथ ही उसका कौतुक भी वो ही करते हैं। भक्त जब उचित आचरण करता है। उस वक्त उसका आनंद बाबा को ही होता है। इससे संबंधित वर्णन भी हमने पिछले लेख में देखा है।

४) दु:ख सहकर जन्म देना
बच्चा इस दुनिया में आ सके इसके लिए उसे माँ नौ महिनों तक अपने गर्भ में धारण कर, प्रसव पीड़ा सहकर माँ ही बच्चे को जन्म देती है। माँ की वेदना एवं उसका कष्ट केवल माँ ही जानती है। बच्चे को इस बात का अहसास भी नहीं होता। अपने बच्चे की खुशी की खातिर माँ यह सब कुछ बिलकुल हँसते हुए सहती है। तथा अपनी वेदना का, श्रम का उल्लेख भी वह कभी नहीं करती है। हमारे अपने श्रीसाईनाथ भी अपने श्रद्धावानों के लिए इसी तरह से कष्ट सहते रहते हैं। हम जरा सा भी यदि कुछ करते हैं, जरा सा भी थक जाते हैं तो हम दस बार बोलकर सुनाते हैं। परन्तु ये साईनाथ मात्र दिनरात भक्तों के हर एक जन्म जन्मातरों तक अनंत परिश्रम करते रहकर भी वे एक शब्द भी कभी बोलकर नहीं सुनाते, साथ ही हमारे सभी दु:खों को भी वे सहते हैं। हमारी खातिर चाहे जो भी काम हो वे करने के लिए सदैव तप्तर रहते हैं और हमारी मदद करने के लिए दौड़े चले आते हैं। कर्म से कम हमें बाबा के इन ऋणों का स्मरण तो होना ही चाहिए।

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