श्रीसाईसच्चरित : अध्याय-३ (भाग-०८)

जो मेरे प्रति अनन्य शरण हो जाता है।
विश्‍वास के साथ मेरा भजन करता है।
मेरा भजन, मेरा ही चिन्तन, मेरा ही स्मरण।
उसका उद्धार करना मेरा बिरुद है॥

साईनाथ स्वयं ही अपने स्वयं के बिरुद के बारे में बता रहे हैं। अन्य मार्गों से भक्तिमार्ग यह सहज एवं सरल क्यों है, इस प्रश्‍न का उत्तर हमें श्रीसाईसच्चरित पढ़ते समय कदम-कदम पर मिलता है। अन्य मार्गों में भगवान कैसे हैं, उस परमात्म-तत्त्व तक पहुँचने का मार्ग कैसा है, उस परमात्मतत्व को कैसे प्राप्त किया जा सकता है आदि सभी प्रश्‍नों के उत्तर ढूँढ़ते हुए प्रवास करना पड़ता है। वहीं, भक्तिमार्ग में ये भगवान, ये परमात्मा स्वयं ही सगुण साकार रूप में अवतरित होकर ‘मैं कौन हूँ?’ इस बात का स्पष्टीकरण स्वयं ही देते रहते हैं। मैं कौन हूँ, मैं कैसा हूँ, मुझे क्या अच्छा लगता है, मैं मनुष्य से क्या चाहता हूँ, मुझ तक कैसे पहुँचा जा सकता है, मेरे वचन, मेरा भरोसा, मेरा बिरुद, मेरी प्रतिज्ञा आदि क्या हैं इन सभी बातों की जानकारी भगवान स्वयं ही हमें देते रहते हैं।

यहाँ पर हमें भक्तिमार्ग की गरिमा का पता चलता है। स्वयं अध्ययन करके, बगैर किसी के मार्गदर्शन के, केवल पुस्तकों के ही आधार पढकर परीक्षा में बैठना और शिक्षकों के मार्गदर्शन के अनुसार अध्ययन करके परीक्षा में बैठना इन दो बातों में जो फर्क है, वही फ़र्क मनुष्य के लिए भक्तिमार्ग और अन्य मार्ग इनमें है। स्वयं केवल पुस्तकों के आधार पर अध्ययन करके परिक्षा देना मेरे समान सामान्य मनुष्य के लिए काफ़ी कठिन होगा, क्योंकि मेरी क्षमता काफ़ी सीमित है। परन्तु यही पर मुझे कोई दयालु शिक्षक मिल जाते हैं और उन्होंने मुझे मार्गदर्श्‍न किया तो मुझे न समझनेवाला, कठिन लगनेवाला विषय भी सहज आसान लगने लगता है। भक्तिमार्ग में सद्गुरु ही इस प्रकार से शिक्षक की भूमिका निभाते हैं और हमारे प्रवास को आसान एवं सुंदर बनाते हैं। स्वयं ये साईनाथ ही हमारे सखा बनकर हमारे साथ देवयान पंथ पर चलते हैं। वे कभी भी हमें अपने से दूर नहीं करते, बल्कि हमारी सुरक्षा ही करते हैं और इसीलिए हमारा प्रवास ‘प्रेमप्रवास’ बन जाता है।

साईबाबा, श्रीसाईसच्चरित, सद्गुरु, साईनाथ, हेमाडपंत, शिर्डी, द्वारकामाई बाबा यहाँ पर स्वयं का ‘बिरुद’ बता रहे हैं। जो मेरे प्रति अनन्य शरण हो जाता है, जो मुझ पर पूरा विश्‍वास रखकर मेरी भक्ति करता है। और जो निरंतर मेरा ही चिंतन, स्मरण करता रहता है, उसका उद्धार करना यही मेरा ‘बिरुद’ है। यहाँ पर हमें इस बात का पता चलता है कि मेरा उद्धार करने के लिए श्रीसाईनाथ एवं तत्पर है ही। परन्तु इसके लिए मुझे भी अपनी तैयारी करनी चाहिए। मुझे सिखानेवाले शिक्षक वर्ष के अंत में परीक्षक बनकर मेरे पेपर को जाँच कर मुझे अच्छे से अच्छे अंक देने के लिए उत्सुक ही हैं, हर एक शिक्षक को यही चाह होती है कि उनके छात्र की प्रगति होती रहे। परन्तु इसके लिए छात्र को ही अच्छी पढ़ाई करके परीक्षा में पेपर लिखना होता है। यदि कोई कहता है कि पढ़ाई भी शिक्षक ही करें और पेपर भी वे ही लिखें, ऐसा तो कदापि संभव नहीं। शिक्षक जी जान से कोशिश करके मुझे दिल से पढ़ा रहे हैं तो फिर मुझे अपनी पढ़ाई करने का कष्ट तो उठाना ही है।

यहाँ पर बाबा हमसे यह कह रहे हैं कि तुम्हारा उद्धार करना यह मेरा बिरुद ही है, तुम्हारा उद्धार होने के लिए तुम्हें क्या करना चाहिए, यह भी मैं ही बता रहा हूँ, परन्तु उसे करना तो तुम्हें ही है। बाबा हमारे लिए स्वादिष्ट भोजन भी स्वयं ही हंडी में पका रहे हैं, बाबा स्वयं के हाथों से ही उसे परोस भी रहे हैं। वे अपने हाथों से निवाला भी हमारे मुख में डाल रहे हैं; केवल मुख खोलकर उसे चबाने का काम मात्र हमें ही करना है। आगे उसके पाचन का कार्य भी हमारे इस साईनाथ के नियमानुसार चलनेवाली हमारे देह में स्थित पचनसंस्था ही करनेवाली है। हमें तो बस इतना ही करना है कि जब वे हमें खिलाने के लिए निवाला उठाकर हमारे सम्मुख हाथ करेंगे तब उसे मुख खोलकर चबाकर निगल लेना है। परन्तु हमारी प्रकृति ऐसी है कि हमसे इतना सा भी कष्ट नहीं उठाया जाता है और यदि हम से इतना सा काम भी नहीं हो सकता है तो फिर हम नालायक ही हैं। मेरे ये बाबा मेरे लिए इतना परिश्रम कर रहे हैं, यह देखकर भी, यह जानकर भी यदि केवल मुख खोलकर निगलने का काम तक हम से नहीं हो सकता है तो मुझसे अधिक अभागा और कौन हो सकता है। साईनाथ हमें चबाने के लिए भी कष्ट न उठाना पड़े इसके लिए वे उस निवाले को मसल-मसल कर बिलकुल नरम बनाकर दे रहे हैं; फिर भी हम आलस्य करते हैं?

बाबा का उद्धार करनेवाला बिरुद तो सदैव है ही, वे अपने इस बिरुद को जानते ही हैं परन्तु क्या हम बाबा के प्रेम को प्रतिसाद देते हैं? इस बात पर विचार करना आवश्यक है।

इसलिए मीनावैनी कहती हैं –

निवाला भी उनका और हाथ भी उन्हीं का, ममता भी केवल उन्हीं की।

केवल मुख खोलने में ही हमें क्यों कष्ट होता है?

मीनावैनी के ये बोल हमारे लिए वेदांत-वचन ही हैं। मुख खोलने में भी क्या कोई कष्ट होता है? परन्तु वह तक करने की हमारी तैयारी नहीं होती है। बाबा हमारे लिए –

१) खेत जोतें
२) खेत में पसीना बहायें
३) सूर्यप्रकाश, बारिश का पानी, खाद, कीटकनाशक औषधि का उपयोग करें अर्थात स्वयं अपनी कृपा से खेत पर नज़र रखकर आवश्यक रहनेवाले सभी घटकों की आपूर्ति एवं व्यवस्था करें।
४) कटाई, छटाई आदि सभी कार्य भी वे ही करें।
५) फसलों को उचित स्थान पर रखकर उसकी निगरानी भी करें।
६) गेहूँ पीसने के लिए जाते पर भी बैठें।
७) स्वयं ही चूल्हा जलायें।
८) चूल्हा जलाने के लिए लकड़ियाँ आदि भी वे ही इकठ्ठा करें।
९) अन्य चीजें भी अपने ही पल्लू से पैसे खर्च करके हजारों यत्न करके वे ही जमा करें।
१०) स्वयं आग की आँच सहकर रोटियाँ भी वे ही बनायें।
११) स्वयं उबलती हुई हंडी में हाथ डालें।
१२) हमारे पाचन एवं रुचि के अनुसार पौष्टिक पदार्थ बनाकर हमें रोज-रोज खिलायें।
१३) स्वयं हमारे लिए परोसने का काम भी वे हे करें।
१४) अपने हाथों से पकाकर स्वयं परमेश्‍वर को नैवेद्य अर्पण कर हमारी भलाई के लिए प्रार्थना भी करें।
१५) हमें शांति के साथ अपने गोद में बिठायें, जैसे एक माँ अपने बच्चे को बिठाती है।
१६) हमें कहानियाँ सुनाकर, हमारा मनोरंजन करते हुए हमें खाने के लिए उत्सुक बनायें।
१७) हमें खाने में कठिनाई न होने पाये इसीलिए उस पदार्थ को मसल-मसल कर नरम बनायें।
१८) स्वयं के ही हाथों से अत्यन्त प्रेमपूर्वक हमें खाना खिलायें भी।

साईनाथ इतना सब कुछ केवल मेरे लिए करते हुए भी और इसमें उनका बिलकुल भी स्वार्थ न होते हुए, केवल प्रेम के कारण ही यह सब कुछ करने पर यदि हमें मुँह खोलना भी कठिन लगता है तब तो हमें फटका पड़ना ही चाहिए। पर फिर भी ये साईनाथ बारंबार प्रेम से हम से यह कहते ही रहते हैं, अलग-अलग प्रकार की कहानियाँ सुनाकर वे हमें उस निवाले को निगलने के लिए प्रवृत्त करते ही हैं। जब तक हम सही दिशा प्राप्त नहीं कर लेते हैं, तब तक मेरे ये दयालु साईनाथ हमें प्रेमपूर्वक समझाते ही रहते हैं। परन्तु जब उन्हें सुनने की तैयारी हम बिलकुल नहीं दिखाते हैं तब वे हमारे प्रेम की ही खातिर क्रोध धारण कर लेते हैं और उनका यह क्रोध मेरे अंदर होनेवाले दुर्गुणों के प्रति ही होता है, वह भी केवल हमारी भलाई की ही खातिर। परन्तु बाबा को क्रोध धारण करने की नौबत ही हम क्यों आने दें? मेरे इस साईनाथ का मेरे लिए निरंतर चलते रहने वाला अनंत परिश्रम देखने पर मुख खोलना भी मुझे क्यों कष्टदायक लगना चाहिए? मीनावैनी द्वारा कहे गए ऊपर लिखित बोलों को हमें सदैव ध्यान में रखना ही चाहिए।

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