श्रीसाईसच्चरित : अध्याय-३ (भाग-०९)

जो मेरे प्रति अनन्यशरण। विश्‍वासपूर्वक करता है मेरा भजन।
मेरा चिंतन, मेरा स्मरण। उसका उद्धार करना है ब्रीद मेरा॥

साईबाबा यहाँ पर अपना स्वयं का ब्रीद हमें बतला रहे हैं। हमें स्वास्थ्य प्रदान करना यह तो डॉक्टर का ब्रीद होता ही है, परन्तु इसके लिए हमें तीन बातों का ध्यान रखना ही पड़ता है।

१) डॉक्टर पर विश्‍वास रखना।
२) डॉक्टर के द्वारा दी गई औषधि का सेवन ठीक समय पर करना।
३) डॉक्टर के द्वारा बतलाये गए पथ्य का पालन करना।

डॉक्टर को तो मुझे ठीक करना ही है, मेरी बीमारी को दूर करना ही है और इसके लिए ही वे मुझे औषधि दे रहे हैं, परन्तु मुझे ठीक होने के लिए ऊपर लिखित तीनों बातों का ध्यान विशेष तौर पर रखना ज़रूरी है, क्योंकि यदि मैं इन तीनों बातों का ध्यान नहीं रखता हूँ तब भला मैं ठीक कैसे होऊँगा? इन तीनों बातों का ध्यान मैं नहीं रखूँगा और ऊपर से डॉक्टर को ही दोष देता रहूँगा तो क्या वैसा करना उचित होगा? ठीक यही बात यहाँ पर साईनाथ के ब्रीद के बारे में सच है।

बाबा तो सदैव अपना वचन निभाते ही हैं। वे अपना कार्य बगैर भूले करते ही हैं, मुझे अपना काम करना चाहिए। मुझे भी अपने उद्धार-हेतु इन तीनों बातों का ध्यान रखना ही चाहिए।

१) साईनाथ के प्रति अनन्यशरण होना।
२) विश्‍वासपूर्वक साईनाथ की भक्ति करन एवं सेवाकार्य करना।
३) साईनाथ का चिंतन एवं स्मरण करते रहना।

साईबाबा, श्रीसाईसच्चरित, सद्गुरु, साईनाथ, हेमाडपंत, शिर्डी, द्वारकामाई १) अनन्यशरण – अन् + अन्य अर्थात् अनन्य। अन्य कोई भी नहीं, केवल एकमात्र साईनाथ ही मेरे उद्धारक हैं, यह भाव रहना ही अनन्यता है। इस अनन्यभाव के साथ साईनाथ की शरण में जाना यह सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण बात है। अन्यथा, चार गुरुवार साईनाथ के पास गया परन्तु मेरी समस्या हल नहीं हुई तो अब मैं स्वामी समर्थ की शरण में जाकर आजमाता हूँ, फिर दो-चार गुरुवार स्वामी समर्थ के मठ जाकर भी यदि मेरा काम नहीं होता है, फिर और कहीं। बस ऐसा ही कुछ चलता रहता है। हम यही नहीं जान पाते हैं कि राम, कृष्ण, साई ये सभी एक ही हैं। परमात्मा के इन रूपों में से जो भी रूप पसंद हैं, मैं उस रूप की भक्ति करूँगा और उसी में मैं सभी रूपों को मानूँगा। मैं साईनाथ की भक्ति करता हूँ इसीलिए मैं स्वामी समर्थ के मठ में नहीं जाऊँगा ऐसा कहना भी सर्वथा गलत ही है। परन्तु साईनाथ के पास दो-चार गुरुवार जाकर यदि काम नहीं होता है। तो इसका अर्थ यह नहीं कि साईनाथ प्रसन्न नहीं होते, उनमें वह ‘शक्ति‘ कम है, यह मानना भी सर्वथा गलत ही है।

इस बात का फैसला करनेवाले आखिर हम होते ही कौन हैं, जो बाबा के सामर्थ्य का अंदाज़ा लगाए? हमें यही मानकर चलना है कि ये साईनाथ सर्वसमर्थ तो हैं ही। यदि हमारे प्रॉब्लेम्स दूर नहीं हो रहे हैं तो उनके इस समय दूर न होने में ही हमारी भलाई है। अब जब मैं इनकी शरण में आ गया हूँ, हमारे इस साईनाथ की शरण में आ गया हूँ, तब बाबा ही जो कुछ भी करना है, वह करेंगे। ऐसी अनन्यता हममें होनी चाहिए। एक बार यदि मैं स्वामी समर्थ के भक्तिपथ पर चलना आरंभ कर देता हूँ, तब मेरा खयाल रखने के लिए वे समर्थ हैं। चाहे जो भी हो जाए, लेकिन मैं अपने भगवान को छोड़ने का कभी विचार तक नहीं करूँगा। आज राम, कल कृष्ण, परसों साई इस प्रकार का बेतुकीपन हमारा ही घात करता है। मैं स्वामीजी के पास जाता हूँ इसलिए साई मुझ से खफ़ा नहीं होनेवाले हैं, कदापि नहीं। परन्तु मेरी श्रद्धा का क्या? साई से मेरे कार्य की सिद्धि नहीं हो रही है इसी लिए मैं यदि स्वामीजी के पास जाता हूँ तो इससे होता यह है कि मैं स्वयं ही अपनी श्रद्धा को खंडित करते रहता हूँ, क्योंकि स्वामीजी के पास भी मैं कोई सच्ची श्रद्धा लेकर नहीं जाता हूँ। यदि हमारी भावना ऐसी है कि देखते हैं कुछ काम होता है या नहीं, ऐसे में होता यह है कि हमारी श्रद्धा ना तो भगवान के प्रति सच्ची होती हैं ना ही उनके किसी रूप के प्रति। यहाँ पर प्रबल रूप में यदि कुछ होता है तो वह होता है हमारा स्वार्थ, मतलबीपन, ऐसी प्रवृत्तिवाले लोग सही मायने में देखा जाए तो कभी भी सुखी नहीं होते हैं, क्योंकि जहाँ पर श्रद्धा ही नहीं होगी, वहाँ पर संतुष्टि कहाँ से आयेगी?

हम साईनाथ के भक्त हैं। हम रामनवमी के अवसर पर राम का जन्मोत्सव ज़रूर मनायेंगे, श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के दिन दहीकाला ज़रूर मनायेंगे, क्योंकि हमारे साई ही हमारे राम एवं कृष्ण हैं। यह हमारा दृढ़विश्‍वास है। परन्तु उन्होंने हमारी इच्छा पूरी नहीं की इसीलिए उन पर बारंबार अविश्‍वास जताते हुए राम, कृष्ण अथवा स्वामी समर्थ के दर का चक्कर काट रहे हैं अर्थात हम गलत हैं। हम गलती पर गलती किए जा रहे हैं।

‘अनन्यशरण’ होना यह काफी महत्त्वपूर्ण बात है। हमारी अनगिनत गलतियों को सुधारने के लिए हमारे साईनाथ हमारे साथ रहेंगे ही, वे हमारे लिए असंभव को भी संभव कर देंगे। परन्तु इसके लिए अनन्य-शरण होना बहुत जरूरी है। यदि हम भगवान के प्रति अनन्य शरण नहीं होते हैं, तब उनकी कृपा का स्वीकार करनेवाले दरवाज़े हम स्वयं ही बंद कर देते हैं, इससे हमारे जीवन में परमेश्‍वरी ऊर्जा का प्रवाह नहीं होने पाता है। परमात्मा यदि हमारे लिए कुछ करते भी हैं अथवा करना चाहते भी हैं, तब ‘अनन्य-शरण’ न होने के कारण हम उनकी ओर से उसका स्वीकार कर ही नहीं सकते हैं।

इसीलिए बाबा सर्वप्रथम हम से यही कह रहे हैं कि ‘जो मेरे प्रति होगा अनन्यशरण…….।’ बाबा के प्रति अनन्य शरण होना अर्थात मेरे उद्धारक केवल ये साईनाथ ही हैं और मेरा जो कुछ भी होना है, वह साईनाथ के हाथों से ही हो, बाबा की इच्छा के अनुसार ही हो, चाहे जो भी हो जाए फिर भी मैं अपने इस साईनाथ के चरणों को नहीं छोडूँगा, मेरे जीवन में बाबा का स्थान अन्य कोई भी नहीं ले सकता है, यह भाव होना ही अनन्यभाव है।

‘मेरे साईनाथ का स्थान अन्य कोई भी ले ही नहीं सकता हैं, मेरे साईनाथ के स्थान पर मैं अन्य किसी को भी नहीं बिठाऊँगा’, यह सब से अधिक महत्त्वपूर्ण भाव है और यह भावना जिसके मन में निरंतर रहती है, वह साईनाथ के प्रति अनन्यशरण रह सकता है।

२) विश्‍वाससहित जो करता हैं मेरा भजन – यहाँ पर भजन इस शब्द का अर्थ भक्ति एवं सेवा यह है। नामसंकीर्तन, गुणसंकीर्तन इसके साथ-साथ भक्ति -सेवा के सभी प्रकारों का अंतर्भाव ‘भजन’ इस शब्द में होता है। परन्तु यह भक्ति सेवा करते समय मेरा बाबा पर ‘विश्‍वास’ है या नहीं, यह बात सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। नहीं तो एक तरफ़ ‘ॐ कृपासिंधु श्रीसाईनाथाय नम:’ यह जप करना और दूसरी तरफ़ ‘क्या ये साईनाथ सचमुच कृपासागर हैं? क्या मुझ पर इनकी कृपा है? फिर कृपासागर साईनाथ की भक्तिसेवा करते हुए भी मुझ पर इतने सारे संकट कैसे आ रहे हैं?’ इस प्रकार के विकल्प मन में होना, यह अनुचित है। मुझे अपने विश्‍वास को परख लेना चाहिए। ‘मेरे साईनाथ कृपासिंधु हैं ही और उनकी कृपा से ही मेरे प्रारब्ध को उन्होंने सौम्य कर दिया है और इसीलिए इतने सारे संकटों के आने पर भी मैं बाबा के भक्तिमार्ग का अवलंबन कर रहा हूँ, मेरी बुद्धि अभी भी मुझे साई की भक्ति में रहने के लिए कह रही हैं, मैं बाबा से विन्मुख नहीं हुआ हूँ, यही कितनी बड़ी कृपा है इस साईनाथ की। मेरे बाबा ही मेरे भगवान हैं और वे सदैव मेरे लिए जो उचित है वही मुझे देते हैं।’ यह विश्‍वास रखना महत्त्वपूर्ण है।

३) चिंतनस्मरण – मन में सदैव साईनाथ का ही चिंतन एवं मनन करते रहना, यह तीसरी महत्त्वपूर्ण बात है। चिंतन करते रहने से ये साईनाथ धीरे-धीरे मेरे अंतर्मन में उतरते जाते हैं और मेरे अंतर्मनरूपी द्वारकामाई में ये ‘कर्ता’ बनकर रहते हैं। यही तो मैं चाहता हूँ। बाबा का स्मरण सदैव बनाये रखना यह भी उतनी ही महत्त्वपूर्ण बात है। क्योंकि जब मैं साईनाथ को भूल जाता हूँ, उसी वक्त मुझ से प्रज्ञापराध होने की संभावना रहती है। साईनाथ का स्मरण यही वह कवच है, जिस से काम, क्रोध, असुर, बुरी शक्ति, वासना आदि मेरा कुछ भी बिगाड़ नहीं पाते हैं। मुख्य तौर पर मैं साईनाथ से कभी भी विभक्त नहीं होता हूँ।

ये तीन बातें जिनके पास होती हैं, उनका उद्धार करना यह मेरा ब्रीद ही है, यह बात स्वयं साईनाथ ही हमसे कह रहे हैं। इन तीनों बातों का ध्यान रखना बिलकुल भी कठिन नहीं है, हम इनका पालन निश्‍चित रूप से कर सकते हैं और इसके लिए साईसच्चरित, श्रीमद्पुरुषार्थ ग्रंथराज, सुंदरकांड और श्रीरामरसायन ग्रंथ इनका अध्ययन प्रेमपूर्वक करते रहना चाहिए।

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