श्रीसाईसच्चरित : अध्याय-३ (भाग-०७)

और जो गाये उलटे-सीधे।
मेरा चरित्र मेरे पँवाड़े।
उन्हीं के आगे-पिछे।
चहुँ ओर मैं खड़ा ही रहता हूँ॥

यदि हम सभी भी यही चाहते हैं कि साईनातह मेरे भी आगे-पिछे, चहुँ ओर खड़े ही रहें तो हमें भी बाबा का चरित्र बाबा के पँवाड़े आदि जैसे भी आये उनका गुणगान करते रहना चाहिए। हम यदि सोचते हैं कि बाबा हर पल मेरे संरक्षण हेतु मेरे आगे पिछे खड़े रहे तो सबसे पहले हमें यह देखना चाहिए कि क्या मैं अपने दिन के चौबीस घंटों में चौबीस मिनट भी बाबा के नामस्मरण, उनके गुण संकीर्तन में व्यतीत करता हूँ? बाबा के चरित्र का गुणगान करना,उनके पँवाड़े आदि का संकीर्तन करना इसमें बाबा की नहीं बल्कि मेरी अपनी ही ज़रूरत छिपी रहती है। मेरा ही लाभ रहता है। श्रीसाईसच्चरित में आगे चलकर बाबा पुन: कहते हैं कि ‘तुम जोर लगाना शुरु कर दो। दुध की चिंता सर्वस्व त्याग दो। दुध की कटोरी लेकर मैं खड़ा ही हूँ पिछे।’’ परन्तु हमारी इच्छा तो सदैव यही होती हैं कि बाबा दुध की कटोरी हमें पकड़ा दें, और मैं बगैर जोर लगाये उसे (गटकता रहूँ) चट कर जाऊँ।

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परन्तु ऐसा कदापि नहीं होगा। एक सामान्य माँ भी बच्चे से कहती है कि पहले तुम इतनी पढ़ाई कर लो, तब मैं तुम्हें खाने के लिए बहुत सारी चीजें दूँगी। उस माँ को अपने बच्चे को इस प्रकार से कहना जरा भी अच्छा नहीं लगता है परन्तु बच्चा पढ़ाई करे इसलिए इसकी सारी तड़प चलती रहती है। फिर यहाँ पर तो साक्षात् साईमाऊली है जो अपने बच्चे के विकास के लिए कितनी तड़पती रहती होगी! इस बात का अंदाजा भी हम नहीं लगा सकते हैं। हमें अपने विकास के लिए उन्नति के लिए श्रीसाईनाथ का गुणसंकीर्तन करना अत्यन्त आवश्यक है। क्योंकी इसी के अनुसार हमारे अपने जीवन में रामरसायन प्रवाहित होता रहता है।

हमें अपनी ही प्रशंसा आदि रोककर, बाबा की प्रशंसा करना, उनका गुणसंकीर्तन, पँवाड़े आदि गाना आवश्यक है। मैंने ऐसा किया, वैसा किया, मैंने किया इसीलिए यह काम हुआ आदि का ‘अहंकार’ करने से मैं अपने बाबा को भूल जाता हूँ उनके नामस्मरण का विस्मरण कर देता हूँ। श्रीसाईनाथ का पँवाड़ा गाना भूल जाता हूँ और स्वयं ही अपने अधोगति का कारण बन बैठता हूँ। हमें अपने ऑफिस के बॉस का गुणगान करने का समय तो मिल जाता है। जिसकी हमें ज़रूरत होती है उसका गुनगान करते हमारी जबान नहीं थकती, परन्तु बाबा का गुणसंकीर्तन करने में हम थक जाते हैं, हमारी जबान लूली पड़ जाती है। हमें सदैव ध्यान रखना चाहिए कि अन्य किसी का भी गुणगान करने की बजाय मुझे अपने बाबा का ही गुणगान करना चाहिए और यही हमारे लिए हितकर है क्योंकि इसी से हमारा विकास संभव है।

श्रीमद्पुरुषार्थ ग्रंथराज भी यही कहते हैं कि भगवान का गुणसंकीर्तन ही हमारे जीवन में सर्वोच्च स्थान रखता है। ग्रंथराज हमें स्पष्ट रुप में यही बता रहे हैं कि मनुष्य की प्रशंसा उसके कार्य हेतु करनी चाहिए और स्तुति केवल भगवान की ही करनी चाहिए। मनुष्य का कौतुक करना होता है तो भगवान का गौरव करना होता है। बाबा भी अपने भक्तों के आगे-पिछे, चहुँओर ही अकसर खड़े रहना पसंद करते हैं। उन्हें अपने भक्तों से एक पल के लिए भी दूर रहना गवारा नहीं होता। परन्तु बाबा को कर्ता बनकर मेरे जीवन में सक्रिय होने में मेरा प्रज्ञापराध ही कारण बनता रहता है। इसीलिए मुझे प्रेमपूर्वक जैसा मुझसे हो सकेगा वैसे ही इस साईनाथ का यशगान करते रहना चाहिए। बाबा को भक्तों की याद सदैव बनी ही रहती है, परन्तु क्या मुझे सदैव साईनाथ की याद रहती है इस बात का विचार मुझे करना चाहिए।

जो भक्त अकारण । मुझसे प्रेम करते हैं।
उन्हें इस कथाओं के श्रवण से। सहज ही आनंद प्राप्त होता है।

जो भी भक्त बाबा से दिलोजान से प्रेम करते हैं, उन्हें इन कथाओं के श्रवण से आनंद प्राप्त होना स्वाभाविक ही है। यहीं पर बाबा हमें श्रद्धावान का एक महत्त्वपूर्ण लक्षण बत रहे हैं। हम यदि श्रीराम के वानर सैनिक हैं तब इस साईराम की कथाओं के श्रवण से अपने-आप ही अपार आनंद हमारे हृदय में उमड़ते रहता है। जो केवल अपनी ही प्रशंसा सुनना पसंद करता है। वह मात्र कभी भी श्रद्धावान नहीं हो सकता है। हम सामान्य मनुष्य हैं इसीलिए कोई भी यदि प्रशंसा भरे दो शब्द भी कह देता है तो हमारा मन प्रङ्गुल्लित हो उठता है। यहाँ तक तो ठीक है परन्तु उस प्रशंसा को पकड़कर बैठे रहना काल्पनिक उड़ानें भरने लगना आदि गलत है। जिस समय कोई हमारी प्रशंसा करता है उस समय उसका श्रेय स्वयं न लेकर तुरंत ही ‘श्रीराम’ कह देना चाहिए। ‘साईराम’ कह देना चाहिए। इससे सारा श्रेय साईराम के पास चला जाता है। स्वयं की प्रशंसा सुनकर खुश होना एक सामान्य मनुष्य के लिए तो स्वाभाविक ही है, परन्तु इसी सुख के समय में हमें यह मानकर चलना चाहिए कि यह सुख मुझे जिस साईनाथ की कृपा से प्राप्त हुआ है। इस साईनाथ को हमें उसी क्षण याद करना चाहिए और आनंद केवल साईनाथ की कथाओं के श्रवण से ही होना चाहिए।

मुझे आनंद की प्राप्ति किस बात से होती है यह मेरे लिए स्वयं को पहचानने की निशानी है जैसे मैदानी खेल खेलते समय हमें आनंद की प्राप्ति स्वाभाविक तौर पर होती है, खेलते समय हमें जानबूझकर आनंद ढूँढ़ने की ज़रूरत नहीं पड़ती है। उसी प्रकार मुझे साईनाथ की कथाओं का श्रवण करते समय अपने-आप ही आनंद मिलता होगा, मेरा मन अपने-आप ही आनंद-विभोर हो जाता होगा तभी मैं सही मायने में बाबा का श्रद्धावान हूँ। आरंभ में स्वयं की प्रशंसा से खुश होनेवाले मुझे बाबा की प्रशंसा सुनकर आनंदित तो होना ही चाहिए। बाबा के कथा-श्रवण से अर्थात बाबा की प्रशंसा सुनते समय जिसे अपने आप ही आनंद की अनुभूति होती है। वही सच्चा श्रद्धावान होता है।

ऐसे में ऐसा श्रद्धावान बाबा की प्रशंसा ही केवल सुनते नहीं बैठता है बल्कि वह आनंदित होकर स्वयं भी बाबा के गुणगान करने लगता है।

कोई भी यदि करता है मेरा किर्तन। उसे मैं दूँगा आनंदघन।
नित्य सौख्य समाधान भी। मानो इस वचन को सत्य॥

बाबा कह रहे हैं कि मनुष्य चाहे कितना भी पापी क्यों न हो, परन्तु जो पश्‍चाताप करता है और उस गलती को सुधारने की इच्छा लेकर वह मेरी शरण में आता है। ऐसे व्यक्ति मेरा नामस्मरण, गुणसंकीर्तन आदि के करते ही, मैं उसके जीवन में आनंदघन तो बरसाता ही हूँ और उसके जीवन को मैं आनंद से परिपूर्ण कर देता हूँ और फिर मेरा ऐसा भक्त नित्य सुखी समाधानी होता ही है। मेरे ये वचन संपूर्णरूप से सत्य हैं।

बाबा स्वयं यहाँ पर हमसे ये बता रहे हैं कि मेरे इस वचन को सत्य मानो। कहने का तात्पर्य यह है कि बाबा हमें स्पष्ट रूप से गवाही दे रहे हैं कि साईराम का, भगवान का संकीर्तन ही हमारे जीवन को सुखी, समाधानी एवं आनंदमय बनाने का राजमार्ग है। हम अपने जीवन को सुखी बनाने के लिए विविध प्रकार के साधनों का उपयोग करते रहते हैं, उलटे-सीधे, गलत मार्गों का भी अवलंबन करते रहते हैं। हमें यही भ्रम होता है कि हमारे हाथ में पैसा आते ही हम सुखी-समाधानी बन जायेंगे। कभी लगता है कि हमारे हाथ में सत्ता के आते ही हम सुखी बन जायेंगे। कभी लगता है कि हमारे हाथ में सत्ता के आते ही हम सुखी बन जायेंगें इसी प्रकार के गलत संकल्पनाओं के चक्कर में पड़कर हम अपने जीवन को दिशाहीन बना देते हैं।

किसी भी प्रकार के भौतिक साधनों द्वारा हमें आनंद और समाधान नहीं मिलता है। सच्चा आनंद एवं सच्ची संतुष्टि हमें केवल इस साईनाथ के गुणसंकीर्तन से ही प्राप्त होती है। हमें इसके लिए ना तो खुद का पैसा खर्च करना पड़ता है और ना ही तीर्थयात्रा का परिश्रम उठाना पड़ता है, ना ही किसी भी प्रकार का कष्ट उठाना पड़ता है। ना उपवास आदि करना पड़ता है। गुणसंकीर्तन का सहज आसान मार्ग सामने होते हुए भी हम अपने जीवन को आनंदमय एवं समाधानी बनाने के लिए अन्य उलटे-सीधे मार्गों की खोज़ में अपनी ऊर्जा, समय एवं बुद्धि व्यर्थ ही खर्च करते रहते हैं।

इससे तो कही अच्छा यही है कि बाबा के वचनों पर विश्‍वास करके साईनाथ के गुणसंकीर्तन के मार्ग का अवलंबन यदि हम करते हैं तो सुख, समाधान एवं समृद्धि इन सबके पिछे हमें भागने की ज़रूरत ही नहीं पड़ेगी, उलटे ये सभी कुछ अपनेआप ही हमारे पिछे-पिछे आते ही रहेंगे।

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