श्रीसाईसच्चरित : अध्याय-३ : भाग- ६८

पिछले लेख में हमने देखा कि बाबा के गुणों से मोहित होकर मुझे शिरडी में आना चाहिए और श्रीसाईनाथ का गुणसंकीर्तन करना चाहिए, इस क्रिया का अध्ययन किया। बाबा के चमत्कार से, बाबा पैसे बाँटते हैं इसीलिए मोहित न होकर हमें बाबा के गुणों से मोहित होना चाहिए। हमें यदि मोह करना ही है तो साईनाथ के गुणों के मोह में पड़ना चाहिए। काम, क्रोध, मोह, मद, लोभ एवं मत्सर इन षड्रिपुओं को साईचरणों में छोड़ देने का आसान मार्ग यहाँ पर स्वयं साईनाथ ही रोहिले की कथा द्वारा हमें समझा रहे हैं।

मोह में यदि पड़ना ही है तो मन को इस साईनाथ के गुणसंकीर्तन के मोह में फँसाकर रखना चाहिए। यदि मोह है तो वह साईनाथ के गुणों का एवं गुणसंकीर्तन का ही होना चाहिए। एक बार यदि मन बाबा के गुणों के मोह में पड़ जाता है तो अन्य मोहपाशों से वह अपने आप ही सुरक्षित रहता है। रोहिले की कथा से मुझे कैसा आचरण करना चाहिए यह सीख लेते समय यही ध्यान में रखना चाहिए कि बाबा के गुणों से मोहित होकर शिरडी में जाना चाहिए और बाबा का गुण गाना चाहिए।

शिरडी में आया एक रोहिला। वह भी बाबा के गुणों से आकर्षित हो गया।
वही पर काफी दिनों तक बस गया। प्यार लुटाता रहा बाबा पर॥
(शिरडीसी आला एक रोहिला। तोही बाबांचे गुणांसी मोहिला। तेथेचि बहुत दिन राहिला। प्रेमें वाहिला बाबांसी॥)

बाबा मुझे कुछ पैसे देंगे इसीलिए नहीं, बाबा मेरा कोई प्रोब्लेम दूर करेंगे इसीलिए नहीं, बाबा कुछ चमत्कार करेंगे इसलिए भी नहीं, बल्कि बाबा के गुणों से मोहित होकर ही यह रोहिला शिरडी में आया था। तीसरी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि –

३) वही पर काफ़ी दिनों तक रहा

रोहिला काफ़ी दिनों तक शिरडी में ही बाबा के पास रहा। हमें यहाँ पर रोहिले की कथा से यही सीखना चाहिए। बाबा का सामीप्य उसने शिरडी में काफ़ी लम्बे समय तक रहकर प्राप्त किया। सूर्य की छत्रछाया में हम जितना अधिक समय तक रहेंगे, उतने समय तक प्रकाश एवं उर्जा तो हमें प्राप्त होती ही है, परन्तु इसके साथ ही अन्य आवरण भी धीरे-धीरे विकसित होने लगते हैं, तथा अन्य अनावश्यक आवरण नष्ट हो जाते हैं। मैं स्वयं ही अपने ऊपर स्वयं के अनेक जन्मजन्मांतरों का जो अनावश्यक आवरणों पर आवरण चढ़ा चुका होता है, उन्हें उतारने का सहज आसान मार्ग अर्थात भगवान का सामीप्य, सूर्य के सामीप्य में जैसे अंधकार रह ही नहीं सकता है। और मलीन आवरण भी पिघलकर गिर जाते हैं। बिलकुल वैसे ही भगवान के सामीप्य में अविद्या का अंधकार एवं प्रारब्ध के भोग भी नष्ट हो जाता हैं। रोहिले की यह कृति इसीलिए हमारे लिए आदर्श है।

‘वहीं पर काफी दिनों तक रहा’ इससे, रोहिले के इस कृति से हमें यह सीख मिलती है कि बाबा का अधिकाधिक सहवास हम कैसे प्राप्त कर सकते हैं, इसके लिए हमें सतर्क रहना चाहिए। साईनाथ का सामीप्य यही मेरी सबसे बड़ी जरूरत है। और केवल इसी के आधार पर हमारा उद्धार हो सकता है। मुझे भी जितना अधिकाधिक साईनाथ का सामीप्य प्राप्त हो सकता है, उतना अधिक प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए।

इसका अर्थ क्या यह हुआ कि मुझे अपना घरबार, नौकरी धंदा, बाल-बच्चों को छोड़कर शिरडी में जाकर रहना पड़ेगा? बाबा के सामीप्य एवं इस पंक्ति का अर्थ ऐसा लेना होगा क्या? रोहिला वहीं पर, शिरडी में ही कई दिनों तक रहा, तो क्या मुझे भी रोहिला बनकर सन्यास लेकर हमेशा के लिए वहीं जाकर रहना होगा? नहीं कद्यपि नहीं। ऊपर दिए गए उद्गार के अनुसार ऐसा कुछ भी नहीं करना है, क्योंकि साईनाथ को ऐसा कुछ भी अभिप्रेत नहीं। मन:पूर्वक साईनाथ के समीप रहना यही सामीप्य का सच्चा अर्थ यहाँ पर अभिप्रेत है। रोहिला भले ही शारीरिक रूप में शिरडी में रहा होगा, उसे सभी संगी-साथियों (सर्वसंगत्याग) का त्याग करने के कारण भले ही यह स्वाभाविक हुआ होगा, परन्तु इसके साथ ही उसका मन भी बाबा के गुणों से मोहित होकर बाबा के समीपही था यह बात सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है। ‘सामीप्य’ इस शब्द का अर्थ शारीरिक धरातल की अपेक्षा मानसिक धरातल पर अधिक अभिप्रेत है। इसके लिए हम घर-गृहस्थी, नौकरी, व्यवसाय छोड़कर हमेशा के लिए शिरडी में जाकर रहेंगे इससे हमें सामीप्य प्राप्त होगा, ऐसा गलत अर्थ नहीं लगाना चाहिए। उलटे यदि शिरडी में रहकर भी मन में भक्ति के बजाय अन्य विचार बारंबार आते रहेंगे और बाबा के पास बैठकर भी मन बाबा से दूर भटकता रहेगा, तो फिर उस शारीरिक दृष्टि से बाबा के करीब होने का क्या मतलब इसके विपरीत अपना-अपना गृहस्थाश्रम उत्तम तरीके से चलाते हुए सदैव साईनाथ का ही स्मरण मन में करते रहना, बाबा का नाम, गुण, लीलासंकीर्तन आदि करते हुए गृहस्थजीवन व्यतीत करना इस स्थिती में हम शारिरीक दृष्टी से भले ही शिरडीसे दूर होंगे परन्तु मन से मात्र सदैव मैं बाबा के समीप ही रहता हूँ।

यह ऐसा मन का सामीप्य ही बाबा को यह अभिप्रेत हैं। मुझे जब-जब शक्य होगा तब-तब मैं साईनाथ के पास (शिरडी) जाऊँगा ही, परन्तु किसी कारणवश मैं शिरडी जा नहीं पाया तब भी मैं गुरुवार के दिन मेरे घर के पास के साईनाथ के मंदिर में जाऊँ गा। उसीके साथ मनसे मात्र सदैव साईस्मरणद्वारा मैं साईनाथ के समीप ही रहूँगा, जो सबसे महत्त्वपूर्ण बात है। साईनाथ की भक्ति और बाबाने दिखाया हुआ सेवाकार्य के मार्गसे ही मुझे साईनाथ का सहीरूप में सामीप्य प्राप्त होता है। क्योंकि यह साईनाथ भक्तिसेवा के मार्ग पर सदैव सक्रिय है ही और उनका सामीप्य सहजतासे ही मुझे मर्यादाशील भक्ती के मार्ग पर ही प्राप्त हो सकता है।

श्रीकृष्ण गोकुल छोड़कर लौकिक दृष्टि से चले गए थे फिर भी वे हर एक गोकुलवासी गोप के समीप सदैव थे ही। गोपों को उनका अखंड सामीप्य प्राप्त हुआ ही। क्योंकि कृष्ण के मर्यादाशील भक्ति से उनका मन सदैव केवल उस श्रीकृष्ण के पास ही रहता था, वे एक पल भी श्रीकृष्ण से जुदा नहीं रहते थे और इसीलिए उन भोले भाले गोपों को श्रीकृष्ण का सामीप्य प्राप्त हुआ। सीता को रावण ने लौकिक दृष्टि से श्रीराम से दूर कर दिया था, पर फिर भी सीता एवं राम सदैव एक दूसरे के समीप ही हैं क्योंकि उनका मन सदैव एक दूसरे के पास ही रहता है। श्रीराम का संदेश सीता तक पहुँचाते हुए हनुमानजी सुंदर बात कहते हैं, वह इस सामीप्य से संबंधित ही, श्रीराम सीतामैय्या से कहते हैं-

सो मन सदा रहत तोहि पाहि।
जानु प्रीतिरसु एतनेहिं माहि॥

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