श्रीसाईसच्चरित : अध्याय-३ : भाग- ६९

रोहिले की कथा के आधार पर हम विस्तारपूर्वक अध्ययन कर रहे हैं। श्रीसाईनाथ भगवान के भक्तिसेवा पथ पर चलने के लिए मुझे क्या करना चाहिए और क्या नहीं। अब तक हमने तीन मुद्दों पर अध्ययन किया।

१) शिरडी में उत्कटतापूर्वक जाना चाहिए
२) बाबा के गुणों से मोहित होकर ही वहाँ जाना चाहिए
३) बाबा के सामीप्य का अनुभव अर्थात मन से निरंतर बाबा के समीप रहना

हेमाडपंत की (हेमाडपंतांच्या या एका ओवीद्वारे) इस एक ही ओवीद्वारा बाबा हमें कितना मौलिक मार्गदर्शन करते हैं।

शिरडी में आया एक रोहिला। वह भी बाबा के गुणों से मोहित हो गया।
वहीं पर वह काफी दिनों तक रहा। प्रेम लुटाता रहा बाबा पर॥
(शिरडीसी आला एक रोहिला। तो ही बाबांचे गुणांसी मोहिला। तेथेंचि बहुत दिन राहिला। प्रेमे वाहिला बाबासीं॥)

४) प्रेम लुटाता रहा बाबा के प्रति (प्रेमे वाहिला बाबांसी)

रोहिले ने बाबा के प्रेम स्वयं को बाबा के चरणों में अर्पण कर दिया था। इससे समर्पण की क्रिया अभिव्यक्त होती है। सद्गुरु के चरणों में स्वयं को संपूर्ण रूपमें समर्पित कर देना यह अत्यन्त सुंदर बात रोहिले के आचरण से हमें सीखने को मिलती है। हम साईनाथ की भक्ति करते हैं ऐसा हम कहते हैं पर क्या सचमुच हम प्रेमपूर्वक साईनाथ की भक्ति करते हैं? यह प्रश्‍न हमें स्वयं ही अपने-आप से पुछना चाहिए। हमारी भक्ति कैसी होती है तो काम्यभक्ति। ‘आँखें चुराना’ इस प्रकार की जो व्यावहारिक वृत्ति हमारी होती है। उसी का उपयोग हम भक्ति में भी करते हैं। कोई भी मुसीबत आने पर, कुछ माँगना होगा तो वहीं तक, केवल मुसीबत में ही, माँगने के लिए हमें साईनाथ अच्छे लगते हैं, ऐसे हालात में हमारी मन्नतें शुरु हो जाती हैं, परन्तु हमारी मुसीबत टल जाने पर हम मन्नतें पूरी करना भूल जाते हैं। भगवान के साथ भी सौदा करने में (बार्टर सिस्टिम) हम जरासा भी कतराते नहीं। हम उनसे आँखें चुराने लगते हैं।

साईबाबा, श्रीसाईसच्चरित, सद्गुरु, साईनाथ, हेमाडपंत, शिर्डी, द्वारकामाईजब तक हमारा कोई स्वार्थ होता है, हमारा फायदा होता है। तब तक बाबा की भक्ति करने में हमें कोई तकलीफ नहीं होती। परन्तु एक बार यदि हमारा काम हो जाता है, मुसीबत टल जाती है तब भगवान एवं उनकी भक्ति दोनों ही हम भूल जाते हैं। लाभ के लिए किया जानेवाला प्रेम कभी हो ही नहीं सकता है। प्रेम सदैव बिना लाभ ही होता है। प्रेम में कभी भी कोई अपेक्षा नहीं होती। सच्चा प्रेम निरपेक्ष होता है। श्रीअनिरुद्धजी अकसर जो कहते हैं कि प्रेम में हमेशा त्याग होत है स्वार्थ नहीं। साई को पूर्णरूपेण अपना लेना यही प्रेम की पराकाष्ठा है। हम यदि कहते है कि हम साईनाथ से प्रेम करते हैं परन्तु हमने यदि स्वयं को साई चरणों में पूर्णरूपेण अर्पण नहीं किया है तो वह प्रेम हो ही नहीं सकता है, वह केवल मुँह से बोली हुई खोकली बातें (निव्वळ तोंडाच्या वाफा) हो सकती हैं।

‘गाय वहीं उसका बछड़ा’ इसी न्यायानुसार जहाँ पर प्रेम है वहाँ पर समर्पण अपने आप होता ही है। प्रेम में स्वयं ही अपने-आप को संपूर्णरूप में भगवान को अर्पण करने की सहज क्रिया होती ही है। किंबहुना समर्पण क्रिया यही प्रेम की पूर्णत: अभिव्यक्ति है। ‘प्रेम’ दिखाया नहीं जाता है, परन्तु समर्पण इस क्रिया द्वारा वह अभिव्यक्त जरूर होता है। वात्सल्य दिखाया नहीं जा सकता है। परन्तु नवजात शिशु के लिए स्रवित होनेवाला माँ का दुध ही उस वात्सल्य की अभिव्यक्ति है। उसी तरह यहाँ पर साई के चरणों में संपूर्णरूप से समर्पण यही भक्त के प्रेम की पूर्ण अभिव्यक्ति है।

रोहिला शिरडी में कई दिनों केवल रहा ही नहीं बल्कि उसने स्वयं को पूर्णत: साईचरणों में अर्पित कर दिया था। यहाँ पर हमें सीखना है कि मैं कितने वर्षों तक, कितने दिनों तक शिरडी में रहा अथवा कितने ही वर्षों से बाबा के पास आ रहा हूँ इसकी अपेक्षा मैंने स्वयं को साईचरणों में समर्पित किया है या नहीं यह अधिक महत्त्वपूर्ण है। बाबा के प्रति समर्पित कर देने का अर्थ ऐसा बिलकुल भी नहीं हैं। साईचरणों में समर्पित होना इसका अर्थ घरगृहस्थी पर तुलसी पत्र रखकर, स्वयं का कामकाज छोड़कर बाबा के कार्य में स्वयं को झोंक देना, ऐसा है क्या? स्वयं की कमाई (मिळकत), सभी कुछ बाबा को देकर, सिर्फ भजन-जप-जाप करते बैठना है (टाळ कुटत बसणे) ऐसा बिलकुल नहीं है।

हम समर्पण शब्दसे बीना वजह बहोत डरते हैं। समर्पण यानि गृहस्थी का त्याग कर (सर्व गोष्टींवर तुळशीपत्र ठेवून), सबकुछ साईनाथ को देना और खुद खाली झोली लेकर घूमना यह नहीं हैं। साईनाथ को हमारे धन-दौलत, पैसा-कौड़ी, घरबार आदि चीजों की ज़रूरत ही नहीं है। बाबा के चरणों में समर्पण करने का भौतिक एवं लौकिक चीज़ें बाबा को देना ऐसा नहीं है। स्वयं को संपूर्णत: समर्पित कर देन का अर्थ बाबा की दास्यभक्ति को मान्य कर लेना, मुझे अपने ‘मैं’ को बाबा को अर्पण कर बाबा को अपने जीवन में सर्वोच्च स्थान पर विराजमान करना होता है।

‘समर्पण’ का अर्थ मेरे अंदर जो ‘मैं’ है उस ‘मैं’ का समर्पण बाबा के चरणों में करना। ‘समर्पण’ का अर्थ मेरा ‘मन’ बाबा के चरणोम में पूर्णरूप से समर्पित कर देना। फिर ‘मेरी इच्छा’ नामक कोई चीज हमारे अस्तित्व में रह ही नहीं जाती है। क्योंकि जहाँ पर मेरा मन ही अस्तित्व में नहीं, वहाँ पर इच्छा प्रकट भी कैसे होगी? मन समर्पित करनेवाला भक्त केवल इतना ही जानता है कि साई की इच्छा ही मेरे लिए प्रमाण है। मेरी अपनी स्वतंत्र इच्छा ऐसी कुछ भी नहीं हैं। साई की इच्छा ही मेरी इच्छा है। इच्छा यानि हमारी पसंद-नापसंद। हमारे मन का यही प्रमुख गुणधर्म है। पसंद-नापसंद जब तक है तब तक ‘मन’ अस्तित्व में है।

मैंने अपने-आप को बाबा के चरणों में अर्पण कर दिया है। मैं पूर्णत: साईचरणों में समर्पित हो चुका हूँ। इस बात को मैं कैसे जान सकता हूँ? इसके लिए सबसे आसान तरीका है पसंद-नापसंद। अभी भी यदि मेरी अपनी पसंद-नापसंद थोड़ी सी भी शेष रह गई है तब जान लो कि मेरा मन अभी भी अस्तित्व में है। वह संपूर्ण रूप में समर्पित नहीं हुआ है जिस वक्त साईनाथ की जो इच्छा है वही होने दो अर्थात जैसी परमात्मा की मर्जी। इसमें मेरे अपने पसंद-नापसंद का सवाल ही नहीं उठता है। यह भावना हृदय में अखंड रूप में स्थिर रहेगी तब किसी भी घटन के संबंध में कोई शिकायत ही नहीं रह जायेगी। तब ही हम समझ सकते हैं कि मैं पूर्णरूपेण साईचरणों में समर्पित हो चुका हूँ। इस बात की गवाही साईनाथ का उत्कट प्रेम ही हमें देता है।

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