श्रीसाईसच्चरित : अध्याय-३ (भाग-०५)

फिर जो कोई भी गायेगा उलटे-सीधे।
मेरा चरित्र, मेरा पँवाड़ा (यशगान)।
उसके आगे-पिछे चहुँ ओर।
मैं रहूँगा खड़ा॥

ये पंक्तियाँ अर्थात साक्षात् साईनाथ द्वारा दिया गया भरोसा ही है। ये भरोसा हमें बताता है कि मेरी आवाज में कर्कशता है अथवा मधुरता, मैं कथा कहते समय कितने बड़े-बड़े गिने-चुने शब्दों का उच्चारण कर सकता हूँ या फिर मैं सीधे-सादे शब्दों का उच्चारण कर सकता हूँ, मेरा उच्चारण शुद्ध है अथवा अशुद्ध है? आदि बातों के झमेले में न फँसते हुए मैं जैसा हूँ वैसा ही मैं अपने साईनाथ का ही हूँ। मुझसे जैसे भी हो सकेगा वैसे ही मैं अपने भगवान का गुणसंकीर्तन करूँगा ही। इस शुद्ध प्रेमभाव के साथ मुझे अपने बाबा के चरित्र का गायन करना ही है।

ये पंक्तियाँ हमें दो महत्त्वपूर्ण बातें स्पष्ट करके बताती हैं।

१) जव्हाराली के भ्रम का भांडा बाबा फोड़ते ही हैं।

२) रोहिले को बाबा पसंद करते हैं।

१) जव्हाराली जैसे दंभी प्रवृत्तिवाले व्यक्ति के भ्रम का भांडा बाबा फोड़ते ही हैं।

जव्हारअली के कथा में हम देखते हैं कि जव्हारअली प़ढ़ीक होते हुए भी उसे कुराण मौखिक रुप में याद था। उसने मी़ठी बातें करके कई बार बहुत से लोगों को अपने बातों में फँसा रखा था। लोग भी उसकी मी़ठी वाणी में फँसकर उसके दंभीपन के आधीन हो गए थे। परन्तु केवल मी़ठी आवाज़ में कुराण प़ठन करना और मन में मात्र कुविचार रखना इससे सामान्य लोगों को फँसाना आसान हो सकता है परन्तु परमात्मा को फँसाना मात्र आसान नहीं है। जव्हाराली को सबके मालिक कहलानेवाले ईश्‍वर की भक्ति की अपेक्षा लोगों को अपने जाँल में फँसाये रखने में अधिक रस था। ईश्‍वर की अपेक्षा स्वयं का ही महत्त्व एवं वर्चस्व प्रस्थापित करने का हेतु लेकर ही वह स्वयं के मी़ठे स्वर का उपयोग करता था। एक ओर अपनी मी़ठी आवाज का जादू दूसरों पर चलानेवाला जव्हाराली दूसरी ओर उसके प्रभाव में आनेवालों को जोरदार आवाज में डाँट-डपटकर उन्हें अपने दबाव में भी रखता था। स्वयं ईश्‍वर की खातिर कष्ट उठाने के बजाय वह इस साईनाथा का उपयोग करने के मनसूबे बनाता रहता था। हरकोई तो यही समझता था कि इस जव्हार अली ने बाबा पर भी अपने आवाज की मोहिनी डाल रखी है। परन्तु ये साईनाथ अवलिया हैं, इन्हें कोई भी फँसा नहीं सकता है।

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जव्हारअली की आवाज में कितनी मिठास है, उसके बाह्य दिखावे वह बाखूबी निभा रहा था परन्तु बाबा उसके बातों से भूलनेवालों में से नहीं थे। बाबा जव्हाराली के अन्तस्थ हेतु को बाखूबी जानते थे कि उसका बाह्य दिखावा चाहे कितना भी अच्छा क्यों न हो परन्तु उसका अन्त:करण कुटिल ही था। इसीलिए यदि वह कितने भी मी़ठे स्वर में क्यों न गाता हो फिर भी उसके भाव शुद्ध न होने के कारण उसका यह गायन कर्कश ही था। साईनाथ ने समय आते ही जव्हाराली के भ्रम का भांडा फोड़ ही दिया और हमें यह दिखा दिया कि बाहरी दिखावे पर कभी भी भूलना नहीं चाहिए। यदि कोई बाहरी दिखावा करने की कितनी भी कोशिश करे कि मैं कितना अच्छा हूँ ये, तो उसके इस बाहरी दिखावे पर हमें उसका मूल्यमापन नहीं करना चाहिए। जो स्वयं को साईनाथ से बड़ा मानता है, जो उनका ही उपयोग अपने स्वार्थ हेतु करना चाहता है, वह बाहर से कितना भी अच्छा लग रहा हो फिर भी उसका ढ़ोंग-ढ़कोसला अधिक समय तक रह नहीं सकता है। साईनाथ समय आते ही उसे उसकी औकात का अहसास करा देते हैं।

‘हरि से बड़ा कोई नहीं’ इस सत्य को ध्यान में रखकर हमें जव्हाराली का उदात्तीकरण न करते हुए केवल अपने साईनाथा की ही भक्ती करनी चाहिए। जव्हारअली के समान प्रवृत्ति के लोग कितने भी मधुर बोलों में गाये, उनके ज्ञान का दिखावा चाहे जितना भी हो पर फिर भी उनके इस गायन से भगवान का गुणसंकीर्तन नहीं होता, इसीलिए मेरी आवाज़ चाहे जैसी भी हो, मुझे ़ठीक से गाते नहीं भी आता हो, मेरा उच्चारण भी अशुद्ध होगा इन सभी बातों के झमेले में न पड़ते हुए प्रेमपूर्वक मुझे बाबा का गुनसंकीर्तन करना चाहिए। जव्हारअली की कथा से हमें यही सीख मिलती है कि बाहरी दिखावे की अपेक्षा मन का शुद्धभाव ही अधिक महत्त्व रखता है और इसी भाव के साथ साईनाथ का सच्चा गुणसंकीर्तन होता है। बाबा का यह भरोसा भी हमें यही सीख देता है कि जव्हारअली की मी़ठी आवाज़ से नहीं बल्कि शुद्ध प्रेमभाव के साथा गाये जाने वाले अशुद्ध, कर्कश बोल ही क्यों न हो, परन्तु बाबा का चरित्र गायन जैसे हो सकेगा वैसे करनेवाले सीधे-सादे, अनाड़ी, भोले भाविकों के आगे-पिछे, चहुँ ओर बाबा खड़े ही रहते हैं।

२) रोहिले की संगति मुझे अच्छी लगती है।

जव्हारअली के बिलकुल विपरीत रोहिले की कथा है। ये रोहिला भी कुराण की कथाएँ जोर-जोर से पढ़ता था। उसका स्वर मूलत: कानों को चीर देनेवाला था और उसी स्वर में वह जोर-जोर से आनंदपूर्वक मन:पूर्वक कलमें गाया करता था। उसका वह गायन लोगों को कर्णकर्कश शोर ही लगता था, इतनी उसकी आवाज़ बेसूरी थी। वह रातदिन इसी बेसूरी आवाज में अन्तरमन से खींच कर आवाज़ निकालकर जोर-जोर से चिल्लाकर कलमें पढ़ा करता था। बाबा पर उसकी श्रद्धा थी। ईश्‍वर का गुणसंकीर्तन जैसे उससे हो पाता था वैसे ही निरंतर करता रहता था।

ग्रामवासियों को यदि उसका यह तरीका केवल शोर-शराबा ही लगता था, लोग उससे परेशान हो चुके थे फिर भी बाबा को मात्र वह रोहिला अच्छा लगता था। उसकी आवाज़ चाहे जैसे भी हो, उसे अच्छे से गाना नहीं आता था फिर भी वह प्रेमपूर्वक अंत:करण से ईश्‍वर का गुणसंकीर्तन करता था। उसे जैसे आता था बिलकुल वैसे ही और बगैर किसी की परवाह किए वह अपने भगवान का गुणसंकीर्तन करता था इसीलिए बाबा को उसकी यह कर्णकर्कश आवाज भी मधुर लगती थी। यहीं पर हमें इस बात का पता चलता है कि रोहिला की कथा द्वारा बाबा हमें यही समझाना चाहते हैं कि जो केवल इस साईनाथा का परमात्मा का गुणसंकीर्तन मन:पूर्वक करने की इच्छा रखते हैं, उनकी आवाज़ चाहे जैसी भी हो साईनाथ को इससे कोई फ़र्कनहीं पड़ता है, साईनाथ श्रद्धावान के मन के भाव जानते ही हैं। जव्हारअली का ढ़ोंग एवं रोहिला का सच्चा गुणसंकीर्तन इन दोनों को ही साईसच्चरित की कथा के माध्यम से बाबा हमारे समक्ष रखते हैं। बाबा हमें दिये हुए भरोसे में जो स्पष्ट रुप में कहते हैं वही सीख इन दोनों कथाओं द्वारा हमें मिलती है।

तृतीय अध्याय में आगे चलकर रोहिला की कथा का वर्णन किया गया और इसीलिए उस का बोध अध्याय के आरंभ में ही बाबा हमारे लिए स्पष्टरुप में विषद कर रहे हैं।

इसी अभिप्राय को अपने तरीके से।
बाबा ने सभी को प्रतीती दिखा दी।
रोहिले की संगति मुझे अच्छी लगती है।
उसके इन बोलों में प्रेमभाव है॥

हमारा लक्ष्य यह नहीं होना चाहिए कि मेरी आवाज़ कैसी है, मेरा प्रस्तुतिकरण (Presentation) कैसा है आदि बातों की ओर ध्यान न देकर केवल साईनाथ की ओर ही हमारा ध्यान होना चाहिए और शुद्धभाव के साथ मुझसे जैसे हो सकता है बिलकुल वैसे ही गाते रहना चाहिए। बाबा सेकुछ भी छिपा नहीं रहता। बाबा हर किसी के मन के हर एक कोने में छिपे हुए भावों को भी भली-भाँति जानते ही हैं। इस बात का ध्यान रखकर यदि मेरा भाव शुद्ध होगा तो मुझे अन्य किसी भी बात की परवाह नहीं करनी चाहिए। फिर उलटे-सीधे हो या अशुद्ध उच्चारन हो इस बात का निश्‍चय करनेवाले हम कौन होते हैं? बाह्यस्वरुप से उलटा-सीधा लगने वाला संकीर्तन वास्तविक रुप में सच्चा संकीर्तन हो सकता है, यदि हमारा भाव मूलत: शुद्ध होगा तो। यदि मुझे कुछ गलती हो रही है तो मेरे साईबाबा निश्‍चित ही मुझे बता देंगे। ऐसा मेरा विश्‍वास होना चाहिए। मेरा काम केवल मेरे इस साईनाथ के, सद्गुरुनाथ के पँवाड़े गाते रहना है, इतना ही है और वह मैं भली-भाँति करूँगा ही। फिर मेरी अन्य सभी बातों की चिंता मेरे बाबा को ही होगी क्योंकि जब मैं उनके पँवाड़े (यशगान) गाते रहता हूँ, तब बाबा मेरे आगे-पिछे चहुँओर खड़े ही रहते हैं। बाबा का यह भरोसा बारंबार मन पर अंकित करते हुए हमें बाबा के पँवाड़े (यशगान) गाते ही रहना चाहिए क्योंकि यही एक हमारे समुद्धार का सहज आसान मार्ग है। बाबा के पँवाड़े (यशगान) गाते रहना यह मेरा काम है और मेरा उद्धार करना यह बाबा का काम है और मेरे ये बाबा अपना काम पूरे इत्मीनान के साथ करते ही रहते हैं, बस् मुझे अपना काम ईमानदारी के साथ शुद्ध भाव के साथ करना चाहिए।

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