श्रीसाईसच्चरित : अध्याय-३ (भाग-०४)

मेरा चरित्र, मरे पोवाड़े (यशगान)। जो कोई शुद्ध भाव के साथ गायेगा।
फिर चाहे उसकी वाणी अशुद्ध भी क्यों न हो। मैं उसके आगे-पीछे, चारों ओर खड़ा ही रहूँगा॥

यह अभिवचन साईनाथ स्वयं दे रहे हैं। ‘जो कोई भी मेरा चरित्र गायेगा, मेरी लीलाओं का यशगान करेगा, फिर भले ही उसमें उसके उच्चारण अशुद्ध होंगे, वाणी भी उलटी-सीधी होगी, परन्तु उसका भाव शुद्ध होने के कारण मैं उसके आगे-पीछे, चारों ओर खड़ा ही रहता हूँ अर्थात उसका परिपालन करने के लिए मैं उसके पास सदैव सिद्ध ही रहता हूँ।’ इस प्रकार से श्रीसाईनाथ हमें भरोसा दे रहे हैं।

यहाँ पर हमें यह सीखना चाहिए कि मुझे बाबा की कथा ठीकसे कहते बनता हो या न हो, मेरा उच्चारण अशुद्ध क्यों न हो, मग़र तब भी लोग हँसेंगे आदि किसी भी बात की परवाह किए बगैर यदि मैं अपने बाबा के प्रति भोली भावना रखता हूँ, पूरा विश्‍वास रखता हूँ तो मुझे अपने बाबा का गुणसंकीर्तन प्रेम-विश्‍वास-पूर्वक करना चाहिए। मैं जैसा हूँ वैसा मैं अपने साईनाथ का हूँ और अपने बच्चे के बोल तो अशुद्ध होने पर भी माँ को जिस तरह मधुर ही लगते हैं, उसी तरह इस साईमाऊली को मेरे बोल भला क्यों अच्छे नहीं लगेंगे? इसलिए मुझे नि:शंक होकर बाबा के गुणों का गायन करना चाहिए। यहाँ पर बाबा ‘जो कोई गाता है’ इस प्रकार से कहते हैं। ‘गाना’ इसका अर्थ है – रसपूर्णता के साथ कथाओं का प्रतिपादन करना।

यह पंक्ति हमें इन मुद्दों के बारे में मार्गदर्शन करती है।

साईबाबा, श्रीसाईसच्चरित, सद्गुरु, साईनाथ, हेमाडपंत, शिर्डी, द्वारकामाई

१) मुझे यदि अन्य कोई साधन नहीं साधता है तो केवल बाबा के गुणसंकीर्तन का, लीलासंकीर्तन का अर्थात कथाओं का गान करने का मार्ग तो हर कोई अपना ही सकता है, यह हर एक के बस की बात है।

२) बाबा के चरित्र का गायन करना यह हमारे जीवन में बाबा को कर्ता बनाना है।

३) चरित्र गायन में नामसंकीर्तन बारंबार होते ही रहता है और इसी कारण मेरी नाभिनाल साई माऊली के साथ, इस साईनाथ के साथ अपने-आप ही जुड़ जाती है।

४) चरित्र गायन का अधिकार हर एक भक्त को होता है। इसके लिए केवल ‘भोली भाली प्रेमभावना’ यही एकमात्र ज़रूरत होती है। इसके पश्‍चात् मेरी आवाज कैसी है, मुझे ठीक से कथा कहने आती है या नहीं, मेरा उच्चारण कैसा है आदि बातों के झमेले में पड़ने की कोई ज़रूरत नहीं है।

५) क्या लोग मुझे हँसेंगे, लोग क्या कहेंगे? इन जैसी बातों की चिंता तो बिलकुल भी नहीं करनी चाहिए। लोगों को क्या करना है? मैं तो अपनी खुशी से आनंद-प्राप्ति हेतु अपने सद्गुरु की कथा कह रहा हूँ, अपने जीवन-विकास हेतु यह मेरी ज़रूरत है। मैं अपने साईनाथ के प्रेम की खातिर, मुझे वे और उनकी कृपा चाहिए इसीलिए उनके पोवाड़े (यशगान) गा रहा हूँ, लोगों के लिए नहीं।

६) मुझे जो कुछ भी देना है, वह सब कुछ मुझे ये साईनाथ ही देंगे और कोई भी नहीं, तो फिर मैं दूसरों की परवाह क्यों करूँ?

७) मुझे अपने साईनाथ को जो कुछ भी देना है, उसके लिए किसी भी प्रकार के बिचौलिए की ज़रूरत नहीं है। ये बातें हम इन कथाओं के माध्यम से सीखते हैं। बाबा को अपने भक्तों को जो कुछ भी देना है, जो कुछ भी करना है। वह तो बाबा स्वयं ही प्रत्यक्ष रूप में करते ही हैं। यह सब कुछ मैं इन कथाओं में देखता हूँ। तो फिर मुझे जो कुछ भी देना है वह साईबाबा ही देंगे। इन्हें देने के लिए किसी भी प्रकार के बिचौलिए की ज़रूरत नहीं लगती हैं। ‘साईनाथ और उनके श्रद्धावान के बीच कोई भी दलाल नहीं होता’ यह सच्चाई इन कथाओं के माध्यम से मेरे मन में घर कर जाती है।

८) ‘मद्भक्ता: यत्र गायन्ति तत्र तिष्ठामि नारद’ यह गवाही पुन: साईनाथ ने इस पंक्ति के माध्यम से दी है। मेरे साईनाथ सदैव मेरे संग होते ही हैं, परन्तु वे साक्षी रूप में न रहकर सक्रिय रुप में कर्ता बनकर मेरे साथ सदैव रहें, यही सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण बात है और यह कार्य चरित्रगायन से ही सहज रूप में साध्य किया जा सकता है।

९) मेरा उच्चारण कैसा है, मैं कितना शब्दपांडित्य दिखाता हूँ यह बात सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है, यही बात यह पंक्ति हमें बताती है। बाबा को यदि कुछ सबसे अधिक पसंद है तो वह है श्रद्धावान के हृदय का प्रेमभाव। बाह्य आडंबर अथवा अन्य बातों की अपेक्षा अन्त:करण की शुद्धता अधिक महत्त्वपूर्ण होती है। उच्चारण उलटा-सीधा भले ही क्यों न हो, परन्तु मन उलटा-सीधा नहीं होना चाहिए, यह अधिक महत्त्वपूर्ण है।

१०) बाबा की कथाओं से मुझे इस बात का पूरा विश्‍वास हो चुका है कि बाबा के भक्तों पर आनेवाले संकटों को उन्होंने देखते ही देखते दूर कर दिया, फिर मुझे घबराने की क्या आवश्यकता है? संकट चाहे कितना ही बड़ा क्यों न हो, प्रारब्ध चाहे कितना भी काँटों भरा क्यों न हो फिर भी मेरे साईनाथ के होते हुए मुझे इन सब की कोई परवाह नहीं है।

११) बाबा अपने श्रद्धावानों का त्याग कभी नहीं करते। बाबा के चरित्र में हम देखते हैं कि बाबा ने श्रद्धावानों का परिपालन सदैव किया ही है। श्रीसाईसच्चरित की कथाएँ हमें यही बताती हैं – क्या भक्तों से गलतियाँ नहीं होती थीं? होती ही थीं। परन्तु हर किसी को अपनी गलती का अहसास होने पर पश्‍चाताप होता ही था और अपनी गलती को जो बाबा के समक्ष विनम्रभाव से कबूल कर लेता है और उसे सुधारने की कोशिश करता है, ऐसे भक्तों का ध्यान बाबा अवश्य रखते ही हैं।

१२) केवल इसी जन्म में ही नहीं बल्कि आनेवाले सभी जन्मों में भी बाबा अपने भक्तों की ज़िम्मेदारी अपने ऊपर लेते ही हैं।

१३) जो कोई भी श्रद्धावान है, उनके योगक्षेम का वहन बाबा करते ही हैं।

१४) पोवाड़े अर्थात यशगान। ‘मेरा चरित्र मेरे पँवाड़े’ इससे हम यही जान पाते हैं कि बाबा की हर एक लीला वीररसपूर्ण है और इसीलिए उसे पोवाड़े कहकर संबोधित करते हैं। बाबा की कथाएँ मेरे मन में प्रवाहित होने लगती हैं और मैं अपने इस साईनाथ का वानरवीर बन जाता हूँ।

१५) इसके विपरित मैं जब अपने स्वयं के ‘मैं’ पन के ही पोवाड़े गाता रहता हूँ, स्वयं ही अपने चारों ओर दीपक घुमाते रहता हूँ तब हमारे जीवन में अंधकार बढ़ते रहता है और मैं पूर्णत: दुर्बल होने लगता हूँ।

१६) इस साईराम के, महाविष्णु के गुणसंकीर्तन से मेरे अंदर की कुंडलिनी, महाप्रज्ञा अपने आप ही सक्रीय होते रहती हैं और इनके साथ-साथ महाशेष भी, जो ओज: स्वरूप में मेरे देह में रहते हैं, क्योंकि इस महालक्ष्मी और महाशेष को जो सर्वाधिक पसंद होता है, वह है इस साईराम का गुणसंकीर्तन, लीलासंकीर्तन। ये दोनों भी सदैव यही करते रहते हैं। इसी तरह सदैव रामकथा का गुणगान करते रहने वाले महाप्राण हनुमानजी भी मेरे जीवन में क्रियाशील रहते हैं।

१७) श्रीहनुमान के क्रियाशील होते ही रावण की लंका जलायी जाती है और सेतु बना दिया जाता है, रामायण की रामविजय की कथा मेरे जीवन में प्रकट हो उठती है।

१८) साईराम की कथा का गायन करने से जीवन में रामरसायन की प्राप्ति होती है, साथ ही वह प्रवाहित होने लगती है और रामरसायन ही तो मेरी वास्तविक ज़रूरत है।

१९) बाबा स्वयं ही सदैव मेरे चारों ओर खड़े ही रहते हैं अर्थात सबसे बड़ी बात यह है कि महत्त्वपूर्ण होनेवाला ‘सामीप्य’ मुझे बाबा के चरित्र गायन से ही प्राप्त होता है।

२०) बाबा ‘किसी को भी भक्त की रक्षा करने के लिए भेजूँगा अथवा भक्त को कवच दूँगा’ ऐसा न कहकर ‘मैं स्वयं चहूँ ओर खड़ा रहूँगा’ ऐसा कहते हैं। अर्थात इस संकीर्तन से स्वयं ये साईनाथ ही मेरा परिपालन करने के लिए मेरा कवच बन जाते हैं, फिर मुझे डर किस बात का?

२१) ये साईराम स्वयं मेरे जीवन में सक्रिय रहेंगे, मेरे चहूँ ओर खड़े रहेंगे तो सारा चण्डिकाकुल भी होगा ही। इसीलिए वे सब मेरा सर्वांगीण विकास करेंगे ही।

२२) ये सद्गुरु स्वयं जहाँ पर भक्त का परिपालन करने के लिए खड़े हैं, वहाँ पर कलिदोष की पहुँच संभव ही नहीं।

२३) ये सद्गुरु स्वयं जहाँ पर भी खड़े रहेंगे, वहीं वैकुंठ है, वहीं गोकुल है अर्थात भक्त को अपने-आप ही सदैव गोकुल में रहने का परम सौभाग्य प्राप्त होता है।

२४) रामकथा की यही महिमा है कि जहाँ रामकथा चल रही होती है, वहाँ विघ्न अपना असर दिखा ही नहीं सकते।

बाबा के द्वारा दिये गये भरोसे से अनेक महत्त्वपूर्ण बातों का अध्ययन किया जा सकता है, जितना भी हम अध्ययन करते हैं, उतना कम ही है। परन्तु इन पंक्तियों में बाबा हमें दो महत्त्वपूर्ण मुद्दों का मार्गदर्शन करते हैं, जिससे हमें महत्त्वपूर्ण बोध प्राप्त होता है। बाबा के चरित्र को कौन कितना अधिक पांडित्य से गाता है, इसकी अपेक्षा ‘उस भक्त का भाव कैसा है’ यह बात अधिक महत्त्वपूर्ण है। मन में शुद्ध भाव न होते हुए भी बाहर दिखावटी भाव रखनेवाले का बुरका फट ही जाता है। जिसका भाव शुद्ध है, फिर उसकी आवाज़ कैसी भी क्यों न हो, उसकी वाणी अशुद्ध भी क्यों न हो, साई को वही पसंद होता है। यहाँ पर हमें साईसच्चरित की दो कथाओं का स्मरण होता है – जव्हार अल्ली की कथा और रोहिले की कथा। उन कथाओं से हमें क्या बोध प्राप्त होता है?

१) जव्हार अल्ली के समान प्रवृत्ति वाले व्यक्ति का भ्रम का भांडा साईनाथजी फोड़ते ही हैं।

२) रोहिला बाबा को अच्छा लगता है।

साईसच्चरित की दो कथाओं के आधार पर हम इस मुद्दे का अगले लेख में अध्ययन करेंगे।

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