श्रीसाईसच्चरित : अध्याय-३ : भाग-४१

बाबा के शुद्ध यश का वर्णन। प्रेमपूर्वक उनका श्रवण।
होगा इससे भक्त-कश्मल-दहन। सरल साधन परमार्थ का॥

बाबा के शुद्ध यश का वर्णन अत्यन्त प्रेमपूर्वक करना और उसी प्रेम के साथ उस गुणसंकीर्तन का श्रवण करना यही सबसे अधिक आसान साधन है। यह साधन भी है और यह साध्य भी है, इसीलिए यह सबसे अधिक आसान एवं सर्वश्रेष्ठ भी है। प्रेम ही साध्य है और प्रेम ही साधन है। साईनाथ अनन्यप्रेमस्वरूप हैं और उन्हें हम प्रेम से ही प्राप्त कर सकते हैं, अन्य किसी भी तरह से नहीं। हम सभी को इसी आसान एवं सर्वथा सुंदर मार्ग का दिग्दर्शन इस पंक्ति के माध्यम से श्रीसाईनाथ कर रहे हैं।

बाबा के शुद्ध यश का प्रेमपूर्वक वर्णन करना एवं उसका प्रेमपूर्वक श्रवण करना, इनमें सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण बात है, ‘कौतुक’, ‘गौरवगान’। हमें श्रीसाईनाथ का गौरवगान करना चाहिए और यह करते ही रहना चाहिए। क्योंकि यह गौरवगान ही प्रेम की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति है। हेमाडपंत संपूर्ण साईसच्चरित में श्रीसाईनाथ का गौरवगान ही करते रहे हैं। और एक हम हैं जो अकसर अपनी ही प्रशंसा करने में मस्त रहते हैं और साथ ही हम यही अपेक्षा रखते हैं कि अन्य लोग भी हमारी ही प्रशंसा करें। यही हम सदैव चाहते हैं। हम यदि थोडा बहुत भी कुछ करते हैं तो लोग हमारी प्रशंसा करें ऐसी हमारी इच्छा होती है। वहीं, दूसरा कोई अच्छा कार्य करता है तो क्या हम उसकी प्रशंसा करते हैं? नहीं।

हम अकसर अपनी ही प्रशंसा करवाना, सुनना पसंद करते हैं और जहाँ किसी अन्य श्रद्धावान के अच्छे कार्य के लिए हम उसकी प्रशंसा करने से कतराते हैं, वहाँ हमारे मन में भगवान की प्रशंसा करने का विचार भी भला कहाँ से आयेगा? हमें केवल हम ही दिखाई देते हैं और इसीलिए हम केवल अपनी ही प्रशंसा करने करवाने में मग्न रहते हैं।

परन्तु यहीं पर हमारे ध्यान में यह बात आनी चाहिए कि स्वयं अपनी ही प्रशंसा, गौरवगान करवाकर हम अपने अंदर अहंकार को बढ़ावा देते रहते हैं और भगवान से दूर होते रहते हैं। बिलकुल इसके विपरित जब मैं भगवान की प्रशंसा करता हूँ, उनका गौरवगान करता हूँ, उस वक्त मेरे जीवन के पापों की राशि जलकर खाक होती रहती है और मैं भगवान के अधिकाधिक करीब जाते रहता हूँ।

भगवान की प्रशंसा करने पर ही भगवान प्रसन्न होते हैं ऐसा विचार करना भी भगवान को मनुष्य के और वह भी अहंकारी मनुष्य के बराबरी में ले आने के बराबर होता है। भगवान कोई हमारी तुम्हारी तरह सामान्य मनुष्य नहीं हैं, जो स्वयं की प्रशंसा करने करवाने से खुश होंगे। भगवान की प्रशंसा करने से हमारे मन में भगवान के प्रेम का प्रवाह जीवन के सभी स्तरों पर प्रवाहित होने लगता है। और भगवान की उस प्रेम की ऊर्जा से उचित बीज विकसित होने लगते हैं, साथ ही अनुचित बीज नष्ट होने लगते हैं। जैसे बारिश होने पर सूखापन नष्ट होकर धरती पर चहूँ ओर हरियाली फ़ैल जाती है, नदी, झील आदि भरकर बहने लगते हैं, उसी तरह भगवान की प्रशंसा करने से हमारे मन में, जीवन में भगवान का प्रेम भरभरकर प्रवाहित हो उठता है।

साईसच्चरित का पठन करने के पश्‍चात् क्या कभी हमने मन:पूर्वक श्रीसाईनाथ का गौरवगान किया है? हम तो बस पोथी तब ही उठाते हैं, जब हम पर कोई मुसीबत आती है। इस तरह मैं केवल पाठ पर पाठ ही करते रहता हूँ, परन्तु क्या कभी हम साईनाथ की प्रशंसा करते हैं?

‘मेरे साईनाथ कितने ग्रेट हैं’, ‘मेरे साईनाथ की गेहूँ पीसनेवाली लीला तो देखो, हमारे बाबा हमारी ही खातिर गेहूँ पीसने बैठे हैं और इससे महामारी जैसी खतरनाक बीमारी भी तुरंत ही दूर हो जाती है’। ‘देखो मेरे बाबा की लीला! वे भक्तसे (हेमाडपंत से) मिलने के लिए स्वयं ही साठेजी के वाड़े तक दौड़े चले आते हैं’, ‘मेरे साईनाथ कितने सुन्दर दिखते हैं’, ‘मेरे ये साईनाथ कितनी सहजता से कोई भी बात समझाते हैं’, ‘बाबा कितनी अच्छी कहानियाँ सुनाते हैं’, ‘बाबा के उपदेश करने की पद्धति कितनी अनोखी है’, ‘बाबा स्वयं ही चूल्हा जलाकर हंडी पर भोजन पकाते हैं, स्वयं ही उस उबलते हुए हंडी में हाथ डाल देते हैं, स्वयं ही प्रेमपूर्वक भक्तों को भोजन भी परोसते हैं’, ‘वह देखिए, मेरे साईनाथ द्वारकामाई में बैठे कितने प्रेमपूर्वक अपने भक्तों का इंतजार कर रहे हैं’, ‘मेरे बाबा कितने प्रेमपूर्वक भक्तों को उदी दे रहे हैं’।

‘बाबा आपके हाथों में कितना दर्द होता होगा ना!’, ‘बाबा आप हमारी खातिर कितनी तकली़फ़ उठाते हैं!’, ‘वह देखिए, मेरे बाबा शामा से पहले ही जा पहुँचे हैं’, ‘वह देखो, मेरे बाबा चांदोरकर के घर उदी पहुँचाने के लिए कितनी अद्भुत अतर्क्य लीला कर रहे हैं!’, ‘बाबा आपने भगवद्गीता का अर्थ कितनी अच्छी तरह से समझाया!’, ‘बाबा, हमें परमार्थ इतने आसान तरीके से किसी ने भी समझाकर बतलाया’।

‘बाबा, इतना प्रेम तो हमसे कोई भी नहीं करता।’ ‘बाबा आप हमारा कितना खयाल रखते हैं।’ ‘वह देखो, हमारे साईनाथ चावडी यात्रा में भक्तों के साथ कैसे प्रेमपूर्वक चल रहे हैं।’ ‘बाबा कितने अच्छे लग रहे हो आप, इन दीपकों के प्रकाश में कितने मनोरम लग रहे हैं आप!’ ‘बाबा आप धुरंधरजी को इसी तरह दिखाई दिए थे क्या?’ ‘देखिए, मेरे साईनाथ के चरणों से गंगा-यमुना प्रवाहित हो रही हैं।’ ‘बाबा, दासगणु की पहेली कितने अद्भुत तरीके से, आसानी से सुलझायी थी आपने!’

‘बाबा, खापर्डे के बच्चे को होनेवाली ग्रंथीज्वर की गॉंठों को स्वयं अपने शरीर पर आपने ले लिया था!’ ‘बाबा, हमारे भोगों को आप अपने ऊपर ले लेते हो! बाबा, आप हमारी सारी तकली़फ़ो को स्वयं ही सहते हो!’

‘बाबा, आपका रूप कितना मनोहर है। आप के नाम में कितनी मिठास है। बाबा, आप की लीलाएँ मन को लुभा लेनेवाली होती हैं।’ ‘बाबा, हर एक श्रद्धावान के लिए आप दिनरात कष्ट उठाते रहते हैं।’ ‘बाबा, हमारी मुसीबतों एवं जानलेवा आपत्तियों में से आप हमें कितनी आसानी से बाहर निकालते हो।’ ‘बाबा, आपके चरण कितने सुंदर हैं! आपकी पादुका कितनी मोहक हैं!’

‘बाबा, आप यदि न होते तो मेरा क्या होता? मैं किसके पास जाता? मैं आजीवन यूँही भटकता रह जाता, कूढ़-कूढ़कर मुझे जीवन जीना पड़ता! श्रीसाईसच्चरित की साँप-मेंढक वाली कथा मुझे याद आ रही है। आप मुझे भूले नहीं। आप मेरा परिपालन करते ही रहे।’

‘बाबा, मैं आपके गुण भला कितना गा सकता हूँ! मैं ठहरा मूर्ख, अनाड़ी, अहंकारी, अनेकों गलतियाँ करनेवाला, किसी भी दृष्टि से योग्य न होने के बावजूद भी आप मेरी सारी गलतियों को माफ़ कर मुझसे अपरंपार प्रेम करते रहे। बाबा, आपके ‘निरपेक्ष प्रेम’ का, ‘अकारण कारूण्य’ का कोई मेल नहीं है। बाबा, आपका सबसे बड़ा ऋण मुझ पर जो है, वह है ‘मैं कदापि तुम्हारा त्याग नहीं करूँगा’ यह अभिवचन। बाबा, मुझे सदैव केवल आपका ही गुणसंकीर्तन करते रहने दीजिए, मैं अन्य कुछ भी नहीं चाहता।’

इस तरह क्या हम बाबा का कौतुक कभी करते हैं? इस प्रकार से कौतुक करने का कोई अंत ही नहीं है। यह अनंत है। कभी ना कभी कहीं न कहीं से हमें इसकी शुरुआत करनी ही चाहिए। अपना कामकाज सँभालते हुए भले कुछ समय के लिए ही सही, किन्तु साईनाथ का गौरवगान करने के लिए अपना समय तो हमें देना ही चाहिए। बाबा का दिल से कौतुक करने के लिए समय देना ही चाहिए।

क्या यह कठिन लगता है? हम यह करके देखेंगे, तब हमें पता चलेगा कि किस तरह सारी समस्यायें चुटकी बजाते ही गायब हो जायेंगी। पापों का ढ़ेर भी जलकर राख हो जायेगा। बाबा का कौतुक करने की ज़रूरत बाबा को नहीं, बल्कि हमें ही होती है और वह भी हमारे ही लिए।

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