श्रीसाईसच्चरित : अध्याय-३ (भाग-३०)

साईनाथ के गुणसंकीर्तन की यह आसान राह प्रेमप्रवास करने के लिए हेमाडपंत ने चुन ली। परन्तु राह चाहे जो भी हो उस राह पर चलने के लिए जैसे पैरों का होना महत्त्वपूर्ण हैं, वैसे ही आँखें भी महत्त्वपूर्ण हैं। आँखों से राह को देखते रहते हैं और फिर उतार-चढ़ाव, काँटे, नुकिले पत्थर आदि से बचकर पैर आगे बढ़ाते चलते हैं। आँखों से हम बारंबार इस बात की जाँच कर सकते हैं कि हम उचित राह में प्रवास कर रहे हैं या नहीं और इन्हीं आँखों से ही हम अपने ही साथ चलने वाली अपनी परछाईं को भी निहार सकते हैं।

शास्त्रों में ऐसा कहा गया है कि ग्रंथकार के लिए श्रुति-स्मृति का ज्ञान होना अति आवश्यक है। वेद एवं स्मृतिशास्त्र का ज्ञान होने बगैर ग्रंथ की रचना नहीं की जा सकती है। हेमाडपंत को यहाँ पर श्रीसाईसच्चरित इस ग्रंथ की रचना करनी है और वे कहते हैं कि मुझे तो श्रुति-स्मृति इन दोनों में से एक भी ज्ञान ठीक से नहीं है। ‘बाबा, मैं तो ठहरा शास्त्रदृष्टिहीन, फिर मैं राह पर कैसे चल सकूँगा?’ परन्तु उसी क्षण उनका साईनाथ के प्रति होनेवाला विश्‍वास कहता है कि मेरे पास चाहे भले ही कुछ भी ज्ञान न भी हो, मग़र फिर भी मेरे साईनाथ समर्थ हैं ही और यदि साईनाथ मेरे सखा है, मेरे जीवन में, मेरे हृदय में साईनाथ राजा के रूप में विराजमान हैं, तो यदि मैं भला दृष्टिहीन भी क्यों न रहूँ, तब भी मुझे चिंता करने का कोई कारण नहीं हैं।

मेरे साईनाथ ही मुझ दृष्टिहीन की लाठी हैं, मेरे सखा ही मेरी आँखें हैं और वे ही मुझे चलानेवाले हैं। मेरा परिपालन करने के लिए मेरे बाबा के होते हुए मुझे चिंता किस बात की? मुझे तो केवल यही करना है कि इस लाठी को मजबूती से पकड़कर उसके पीछे-पीछे चलते रहना है। और कोई भी दौड़-धूप करने की कोई ज़रूरत नहीं हैं। यह लाठी मुझे कभी भी गलत मार्गदर्शन नहीं करेगी। आगे यदि गड्ढ़ा होगा तो पहले यह लाठी स्वयं उस गड्ढ़े में जायेगी और मुझे तुरंत ही सावधान कर देगी। आगे यदि मुझे ठोकर लगनेवाला पाषाण होगा तो यह लाठी स्वयं उस पाषाण पर पटक जायेगी परन्तु मुझे ठोकर नहीं लगने देगी। आगे चाहे जो भी संकट आनेवाले होंगे उसे यह लाठी स्वयं ही अपने ऊपर ले लेगी और मुझे समय पर ही सावधान करके मेरी रक्षा करेगी। मेरे लिए, मेरे प्रति रहनेवाले प्रेम की खातिर ही यह लाठी स्वयं सब कुछ सह लेगी और मुझे कभी भी, कोई भी तकलीफ सहन करनी नहीं पड़ेगी।

साई, आप ही हैं मुझ अंधे की लाठी। आप के होते मुझे किस बात का भय।
लाठी टेंकते-टेंकते पीछे-पीछे। सीधे आसान मार्ग पर चलूँगा मैं॥

यहाँ पर हमें इस बात का पता चलता है कि बाबा भक्तों के प्रारब्धभोग को कैसे स्वयं पर लेते हैं और अपने भक्त का परिपालन करते हैं। बाबा संकट की घड़ी में स्वयं अपने भक्त के आगे रहकर स्वयं हर एक संकट का सामना करते हैं। सब कुछ स्वयं ही सहन करते हैं, संकट को दूर कर देते हैं और भक्त को उसकी खबर तक नहीं होने देते हैं। परन्तु यह सब किसके लिए? तो जो भक्त ‘अंध’ है, ‘अंधा’ हैं, उसकी खातिर। भक्त अंध है इससे क्या अभिप्रेत है? शारिरीक दृष्टी से जो अपंग है उसके लिए तो ये साईनाथ अंधे की काठी हैं ही। परन्तु हेमाडपंत यहाँ पर ‘अंध’ शब्द के अनोखे पहलुओं को उजागर कर बता रहे हैं। अंधेपन के तीन पहलुओं के भावार्थ यहाँ पर दिए गए हैं।

साईबाबा, श्रीसाईसच्चरित, सद्गुरु, साईनाथ, हेमाडपंत, शिर्डी, द्वारकामाई

१) भक्तिमार्ग से अनभिज्ञ रहनेवाला भोला भाला श्रद्धालु।
२) साई से अंधा प्रेम करनेवाला।
और
३) पूरी तरह आँखें बंद करके साई पर भरोसा करनेवाला।

जो भी भक्त इन तीनों पहलुओं में से एक से ग्रसित है यानी अंधा बन चुका है, उसके लिए ये साईनाथ उस अंधे की लाठी बनते ही हैं और उसके सखा बनकर उसे देवयान पंथ का पथिक बनाते ही हैं।

१) अनभिज्ञ कहलानेवाला –
ऐसा भोला भाला भक्त अंधा होता है, वह केवल उसकी भक्तिमार्ग के प्रति रहनेवाली अनभिज्ञता के कारण ही। ऐसा भक्त सचमुच साईनाथ की भक्ति की इच्छा रखता है। ‘ये साईनाथ ही केवल मुझे चाहिए’, इसी निष्ठा के साथ जो चाहे वह करने की तैयारी रखता है। परन्तु भक्तिमार्ग, उस पर चलने के साधन आदि किसी भी बात की जानकारी उसे नहीं होती है। उसके पास इससे संबंधित ज्ञान भी नहीं होता है और इसी लिए आगे बढते हुए किस मार्ग पर कैसे चलना है, यह बात उसकी समझ में नहीं आती है। परन्तु साईनाथ की भक्ति-सेवा हेतु अथक परिश्रम करने की उसकी तैयारी होती है। उसमें इस साईनाथ के पिपीलिका पथ पर चलने की ही धुन बनी रहती है। इस तरह से यह भक्त भक्तिमार्ग से अनभिज्ञ अर्थात अनजान रहता है और इसीलिए उसकी तड़प को ध्यान में रखकर ही साईनाथ ऐसे अंधे भक्तों की लाठी बनते हैं। साई ही उस भक्त का प्रेमप्रवास करवाने के लिए उसे सभी प्रकार से सहायता पहुँचाते रहते हैं।

२) अंधा प्रेम करनेवाला –
साईनाथ से अंधा प्रेम करनेवाला भक्त, जिसे साईनाथ के अलावा और कुछ भी दिखायी ही नहीं देता, जो साईनाथ के प्रेम में आकंठ डूब चुका होता है। इस तरह से अंधा प्रेम करनेवाले भक्त के लिए साईनाथ स्वयं ही मार्गदर्शक बनते हैं, उसके सखा बनते हैं। अंधा प्रेम अर्थात अनन्य प्रेम, हर एक बात में पहले साईनाथ ही ऐसा प्रेम अर्थात अंधा प्रेम। फिर ऐसा भक्त साईनाथ के अलावा और कुछ देखता ही नहीं और इसीलिए ऐसे भक्त के लिए ही साईनाथ उस अंधे की ला़ठी बन जाते हैं।

३) पूर्ण विश्‍वास रखनेवाला, आँखें बंद करके बाबा पर भरोसा रखनेवाला –
अकसर हम अंधविश्‍वास इस शब्द का उपयोग करते हैं। इस तरह से अंधा विश्‍वास रखनेवाला ही अर्थात बगैर किसी शर्त के नि:संदेह संपूर्ण विश्‍वास रखनेवाला भक्त यानी ‘मेरा जो भी होना है वह ये साईनाथ ही करेंगे, और कोई नहीं और ये साईनाथ जो भी करेंगे वही उचित होगा। ये साईनाथ जहाँ ले जायेंगे वहाँ मैं आँखें बंद करके इनके पीछे चलूँगा’ इस भाव के साथ वह भक्त पूरी तरह से साईचरणों के प्रति शरणागत हो चुका होता है। ऐसे भक्त के लिए ये साईनाथ अंधे की ला़ठी बनते ही हैं और उसका प्रवास सदैव उचित दिशा में उचित मार्ग से होते रहता है।

बाबा मेरी ला़ठी बन जाये ऐसा यदि मैं चाहता हूँ तो मुझे भी ‘इन तीन पहलुओं के मापदंड के अनुसार क्या मुझ में यह अंधत्व है’ इस बात का विचार करना चाहिए। यहाँ पर अंध शब्द का उपयोग करके हेमाडपंत भोला भाविक इसी अर्थ को उजागर करते हुए स्पष्ट कर रहे हैं। जो भोला-भाविक है, बाबा से अंधा प्रेम करता है और आँखें बंद करके साईनाथ के बतलाये हुए रास्ते पर चलने के लिए साई जहाँ ले जायेंगे वहाँ पर जाने के लिए एक पैर पर तैयार रहता है, अपने इस अंधे भक्त के लिए साईनाथ अंधे की ला़ठी बनते ही हैं। इस बात का हमें भलीभाँति ज्ञान होना ही चाहिए।

हमें ना तो अपना यह अनाड़ीपन कबूल होता है और ना ही हम भक्तिमार्ग की तड़प होती है। हमारे मन में ना तो बाबा के प्रति अंधा प्रेम होता है और ना ही हम आँखें बंद करके बाबा के दिखलाये गए मार्ग पर चलने की तैयारी रखते हैं। फिर सद्गुरुतत्त्व कैसे मेरी लाठी बन सकता है!

इसी कारण हमें कदम-कदम पर ठोकरें खानी ही पड़ती हैं, काँटे भी पैरों में चुभते ही हैं, नुकीलें पत्थरों की चुभन सहनी पड़ती है तो कभी हमारा पैर गड्ढ़ों में फिसल जाता है और होता यह है कि इस पर भी हम दोष बाबा के ही मत्थे मढ़ेते हैं कि आपने मेरी सहायता क्यों नहीं की? मुझे समय रहते ही सावधान क्यों नहीं किया? परन्तु यह हमारा विपरित आचरण है। हम स्वयं को चालाक समझकर, ‘सूझबूझ’ वाला मानकर बाबा की कृपा का स्वीकार करने से मुँह फेर लेते हैं और बुरा होने पर ऊपर से बाबा को हे दोषी ठहराने लगते हैं। यह पंक्ति हमें यही बतला रही है कि बाबा अंधे की लाठी बनते ही हैं। लेकिन सच में भक्त को सचमुच ऊपर वर्णित तीनों पहलुओं का अनुसरण करते हुए सचमुच अंधा बनना चाहिए।

हेमाडपंत यहाँ पर स्वयं कबूल करते हैं कि मैं सचमुच अंधा हूँ ही। यदि हेमाडपंत जैसे महान भक्त स्वय्ं के बारे में ऐसा कहते हैं तो फिर हम स्वयं को समझदार माननेवाले आखिर होते कौन हैं? सर्वप्रथम मैं अंधा हूँ ही, इस बात का अहसास होना ही चाहिए और इस बात को साई के समक्ष कबूल भी करना ही चाहिए। हमें केवल यही, इतना सा ही काम करना है और बाकी का सारा काम मेरे अपने प्रिय साई करेंगे ही। वे स्वयं मेरी खातिर सभी प्रकार के कष्ट भुगतने के लिए तैयार ही रहते हैं।

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