परमहंस-९८

रामकृष्णजी की शिष्यों को सीख

कोई माँ जिस तरह अपने बच्चों का हरसंभव खयाल रखती है, उनकी परवरिश की ज़िम्मेदारी प्यार से उठाती है, उन्हें लाड़-प्यार करने के साथ साथ उनमें अनुशासन भर देती है, उनकी रक्षा करती है; ठीक उसी तरह रामकृष्णजी अपने शिष्यों के साथ पेश आते थे। गुरु के पास आया हुआ शिष्य जब उस गुरु का ‘गुरु’ के रूप में स्वीकार करता है, तब बतौर ‘एक भक्त’ उस शिष्य के मानो नये जन्म की ही शुरुआत होती है। इस कारण गुरु उसकी ‘माँ’ बन जाता है और उपरोक्त तरी़के से ही शिष्य का ख़याल रखता है। उनके मन को साफसुथरा बनाकर उनका सर्वांगीण विकास करता है। वैसे ही रामकृष्णजी का अपने शिष्यों के प्रति आचरण रहता था।

रामकृष्ण परमहंस, इतिहास, अतुलनिय भारत, आध्यात्मिक, भारत, रामकृष्णगृहस्थाश्रमी लोगों को वे गृहस्थी में रहकर ही, अपने सारे गृहस्थाश्रमी कर्तव्यों को प्रेम से पूरा कर पार ईश्‍वर की भक्ति करने के लिए कहते। दरअसल कई लोग संन्यास लेने के लिए उनसे अनुमति पूछते थे। लेकिन रामकृष्णजी उन्हें, फिलहाल गृहस्थी में रहकर ही नामस्मरण, उपासना आदि करने की सलाह देते थे। क्योंकि उनपर ज़िम्मेदारी होनेवाले उनके परिजनों का भी रामकृष्णजी को खयाल रहता था। लेकिन जिनमें वैराग्य की झलक रामकृष्णजी को दिखायी देती थी, उनसे वे, अन्य सभी मोहों का त्याग कर अपना सारा ध्यान ईश्‍वर पर ही केंद्रित करने के लिए कहते।

ख़ासकर बचपन से ही ऐसी वैराग्य की झलक जिन बच्चों में होती थी, उनका तो रामकृष्णजी को अधिक ही कौतुक रहता था। उनके पास आनेवाले इतने छोटे बच्चों को वे ईश्‍वरप्राप्ति के, वैराग्य के सबक सिखाते हैं, इसपर एक बार किसीने नाराज़गी व्यक्त की।

उसपर रामकृष्णजी ने उस व्यक्ति को शान्ति से उत्तर दिया कि ‘पूरा जन्म खर्च करके भी जहाँ लोगों की भौतिक विषयों पर की आसक्ति नहीं छूटती, वहाँ इतने छोटे, शरारतें करने की उम्र में होनेवाले बच्चों में बैरागीपन की भावना निर्माण हुई है, इसके पीछे निश्‍चित ही कोई कारण होना चाहिए। यक़ीनन ही इसके पीछे, इन बच्चों ने पिछले जन्मों में कीं हुईं तपश्‍चर्याएँ, उपासनाएँ होनीं चाहिए। उसी से यह संभव है। फिर मैं ऐसे बच्चों से भक्ति के बारे में न बात करूँ, तो किससे बात करूँ?’

नौकरीधंधे के कामों में उलझने से, रिश्तेदारों के विरोध के कारण किसी भक्त के लिए दक्षिणेश्‍वर आने में रुकावट पैदा हो रही है, तो ऐसे प्रसंगों का सङ्गलतापूर्वक सामना करने के लिए रामकृष्णजी उनकी मनोभूमिका तैयार करते थे। ईश्‍वरप्राप्ति के उनके प्रयासों में रोड़े डालकर, गुरु के पास आने से उन्हें रोकनेवाले रिश्तेदार ये वस्तुतः उनके हितैषी न होकर उनके दुश्मन होने की बात रामकृष्णजी अपने शिष्यों को समझाते थे।

अपने इस प्रतिपादन की पुष्टि के लिए वे रामभक्त भरत, विष्णुभक्त प्रह्लाद और रामभक्त बिभीषण के उदाहरण देते थे।

जिस तरह भरत ने, अपने प्रिय बंधु और ईश्‍वर होनेवाले श्रीराम को वनवास भेजनेवाली अपनी माँ से – कैकयी से शत्रुत्व का स्वीकार किया;
भक्त प्रह्लाद ने अपनी विष्णुभक्ति के आड़े आनेवाले अपने पिता हिरण्यकश्यपु के साथ बैर मोल लिया;
रामभक्त बिभीषण अपने आराध्य श्रीराम से शत्रुता करनेवाले अपने सगे भाई के – रावण के विरोध में गये;
उतना ही निग्रहपूर्ण और आत्यंतिक आचरण, भक्तिमार्ग पर चलना चाहनेवाले हर किसी का होना चाहिए, तभी ईश्‍वरप्राप्ति संभव है, यह रामकृष्णजी अपने शिष्यों के मन पर अंकित करते थे।

शिष्य के मन के विचार, उसके स्वभाव के गुणदोष जाननेवाले रामकृष्णजी को अपने शिष्य की मनोभूमिका विशिष्ट दिशा में मोड़ने ती ख़ूबी अच्छी तरह अवगत थी और वे शिष्य के दोष पर अचूकतापूर्वक प्रहार करते थे। शारदाप्रसन्न मित्रा ये उनके शिष्यगणों में से एक थे। उनके शिष्यगणों में से एक थे। २४ परगणा भाग के एक अमीर ज़मीनदार के घर से आये होकर भी शारदाप्रसन्नजी का रूझान बचपन से ही भक्तिमार्ग की ओर था। लेकिन घर के छोटे-बड़े काम करने के लिए बड़ी संख्या में नौकर-चाकर होने के कारण शारदाप्रसन्नजी को ऐसा कोई भी काम करना नहीं पड़ता था और इसी कारण ऐसे कामों को अनजाने में नीचा देखने का उनका स्वभाव बन गया था।

एक बार जब वे दक्षिणेश्‍वर आये थे, तभी अचानक रामकृष्णजी ने भरी दोपहर में वहाँ इकट्ठा हुए सभी लोगों के सामने ही शारदाप्रसन्नजी से कहा कि ‘जाओ, जरा पानी लेकर आओ और रगड़ रगड़कर मेरे पैर धो दे दो।’ यह सुनकर शारदाप्रसन्नजी सुन ही हुए – ‘नौकरों-चाकरों को जो काम करना चाहिए, ऐसा यह हल्का काम करने के लिए रामकृष्णजी ने भला मुझसे क्यों कहा?’ उनके मन का यह द्वंद्व उसी पल जानने वाले रामकृष्णजी ने उसे नज़रअन्दाज़ किया और पुनः उन्हें वही आज्ञा की। अब तो कोई चारा भी नहीं था। ग़ुस्से में जाकर शारदाप्रसन्नजी पानी ले आये और रामकृष्णजी की आज्ञानुसार कृति की। लेकिन यहाँ पर रामकृष्णजी की कृपा से एक बात घटित हुई – जनमभर का अहंकार एक पल में उस पानी के साथ रामकृष्णजी के चरणों में अर्पण हुआ, और उसके नीचे फँसी उनकी भक्ति अब वास्तविक रूप में स्वतंत्र हुई!

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