परमहंस-१९

गदाधर को कोलकाता पधारकर कुछ ही महीने हुए थे और वह यहाँ के माहौल से, दिनक्रम से अच्छाख़ासा परिचित हुआ दिखायी दे रहा था। बड़े भाई रामकुमार की सिफ़ारिश से, पूजापाठ आदि करने के काम हालाँकि उसे मिलने लगे थे, मग़र फिर भी उसे कोलकाता ले आने में – ‘उसकी स्कूली शिक्षा पूरी हों’ यह जो एक महत्त्वपूर्ण कारण था, वह पूरा होता दिखायी नहीं दे रहा था।

कोलकातावह कोलकाता से परिचित हो जाने तक बड़े भाई रामकुमार ने हालाँकि शुरुआती दौर में उसे जो चाहे वह करने देने का रूख़ अपनाया था, मग़र फिर भी अब उसका सब्र भी टूटने लगा था। आख़िर एक दिन हिम्मत जुटाकर उसने गदाधर के पास यह बात छेड़ ही दी –

‘अरे, यहाँ आकर कितने महीने हो गये! फिर भी तुम स्कूल जाने का नाम नहीं ले रहे हो, शिक्षा में तुम्हारी कुछ तरक्की होती हुई दिखायी नहीं दे रही है। क्या आनेवाले जीवन की दृष्टि से स्कूली शिक्षा अर्जित करना ज़रूरी नहीं? आख़िर तुम चाहते क्या हो?’

‘इस महज़ दाल-चावल दिलानेवाली पेटपालु विद्या में मुझे दिलचस्पी नहीं है, भाई।’ – गदाधर ने कहा।

‘फिर कौनसी विद्या सीखना चाहते हो तुम?’ – अब रामकुमार के स्वर में चिन्ता दिखायी देने लगी थी।

‘जो विद्या सीखकर वास्तविक ज्ञान प्राप्त हो और जीवन सफल बनें, ऐसी विद्या सीखना चाहता हूँ मैं’ – सीधे प्रश्‍न को मिले गदाधर के इस सीधे ही, लेकिन स्पष्ट उत्तर से रामकुमार के दिल की मानो धडकन ही थम गयी! यह लड़का कही संन्यासी वगैरा बनने के चक्कर में नहीं है ना, ऐसी आशंका उसके दिल को छू गयी।

लेकिन यह – ‘जीवन सफल बनानेवाली विद्या सीखने की’ गदाधर की इच्छा पूरी होने की घड़ी नज़दीक आयी थी, इस बात की भनक तक रामकुमार को नहीं थी।

गदाधर के जीवन के इस बहुत ही महत्त्वपूर्ण मोड़ के बारे में जान लेने से पहले, उसके बारे में थोड़ीसी पृष्ठभूमि जान लेना अप्रस्तुत नहीं होगा।

वह लगभग सन १८५३-५४ का दौर, अँग्रेज़ों ने भारत में रखे कदमों को और मज़बूत बनानेवाला था। भारतभर में फैले छोटे-बड़े राज्यों के राजा-महाराजाओं को, रियासतकारों को, ज़मीनदारों को अँग्रेज़ों ने धीरे धीरे ‘साम-दाम-भेद-दंड’ उपायों का अवलंबन करते हुए अपने अंकित कर लेने की शुरुआत की थी और ऐसे – अँग्रेज़ों का अपने पर का अधिकार मान्य रहनेवालों को, ऐय्याशी जीवनशैली की आदत डालकर उन्हें अपने आश्रित बना देने की प्रक्रिया अँग्रेज़ों ने ज़ोरशोर से शुरू की थी।

लेकिन सभी ऐसे नहीं थे। अँग्रेज़ों के साम्राज्यविस्तारवादी कारनामों का विरोध करनेवाले भी थे ही; और ऐसे – अँग्रेज़ों के गुलाम बनकर जीना न चाहनेवालों में अँग्रेज़ों के खिलाफ़ तीव्र असंतोष धधक रहा था। अँग्रेज़ो द्वारा सभी प्रकार के उपाय इस्तेमाल किये जाने पर भी ये विरोधक उन्हें शरण नहीं आ रहे थे।

ऐसे ही लोगों में से एक थी – ‘राणी राशमणि’!

कोलकाता से नज़दीक, कुछ ही मीलों की दूरी पर बहुत बड़ी ज़मीनदारी होनेवाली यह स्त्री बहुत ही अमीर ज़मीनदार होते हुए भी उसके पैर ज़मीन पर ही टिके हुए थे। इस ‘राणी राशमणि’ के पास भारी मात्रा में ज़मीनें, पैसा, गहनें होकर भी उसमें यत्किंचित भी घमण्ड़ नहीं था। उलटे बचपन से ही अत्यधिक सात्त्विक, धार्मिक और सज्जन वृत्ति की रहनेवाली इस स्त्री में दातृत्व, दूसरे के प्रति अनुकंपा आदि सद्गुण भी? भरे थे और उसकी इस बहुत बड़ी इस्टेट के उसके प्रजाजनों के लिए वह वंदनीय थी।

उसने अपने प्रजाजनों के लिए कई सुविधाओं का निर्माण किया था, कई मंदिरों का भी निर्माण किया था। उसके घर आया कोई भी याचक ख़ाली हाथ नहीं लौट जाता था। ग़रीब ज़रूरतमन्दों के लिए खाना या वस्त्रों का दानधर्म करना यह उसके नित्यक्रम का ही एक भाग था।

ना जाने उन ईश्वर के मन में क्या था, लेकिन रामकुमार-गदाधर और राणी राशमणि, ये तब तक एक-दूसरे से पूरी तरह अपरिचित रहनेवाले लोग अब एकत्रित होनेवाले थे….गदाधर के जीवन के अगले निर्धारित कार्य के लिए!

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