परमहंस-५४

रामकृष्ण की ख्याति अब दूर दूर तक फैली जा रही थी और दूरदराज़ से लोग उन्हें मिलने आने लगे थे। जिस तरह अपनी समस्याओं का निराकरण होने की आशा से लोग उनके पास आते थे, उसी तरह उनसे आध्यात्मिक मार्गदर्शन प्राप्त करने के लिए मुमुक्षु लोग भी उनके पास चले आते थे। कई लोग तो केवल कौतुहल हेतु ही उनके पास आते थे।

भैरवी और उनकी पहली मुलाक़ात में उसके द्वारा उल्लेख किये गये (रामकृष्णजी के साथ जिन अन्य दो लोगों को मार्गदर्शन करने की ज़िम्मेदारी उसको सौंपी गयी थी) वे ‘अन्य दो लोग’ भी बाद के समय में रामकृष्णजी से मिलने आये थे। पूर्व बंगाल में वास्तव्य करनेवाले उन ‘चंद्रा’ एवं ‘गिरिजा’ नामक दो साधकों ने रामकृष्णजी से पहले भैरवी से मार्गदर्शन प्राप्त किया था। ‘उन दोनों ने भी बहुत ही ऊँचा आध्यात्मिक मुक़ाम हासिल किया था; इतना ही नहीं, बल्कि उन्हें कुछ सिद्धियाँ भी प्राप्त थीं’, ऐसा रामकृष्णजी ने एक बार अपने शिष्यों से इस बारे में बात करते हुए कहा था। उनकी एक-दो स्मृतियाँ भी रामकृष्णजी ने बतायीं।

निराकरण होने की आशा

चंद्रा जब पहली बार रामकृष्णजी से मिलने आया, तब रामकृष्णजी ने प्रथमदर्शन में ही – उनका औपचारिक परिचय होने से पहले ही ठेंठ उसके नाम का उच्चारण कर – ‘चंद्रा ही हो ना तुम? कैसे हो?’ ऐसा पूछा था। उसके बाद रामकृष्णजी सीधे भावावस्था में गये थे। चंद्रा ने उनका हाथ पकड़कर उन्हें ज़ोर से दो-तीन बार बुलाने के बाद वे भानावस्था में आये थे। मूलतः चंद्रा दिखने में एकदम आम आदमियों की तरह ही होने के कारण, वह इतना उच्च कोटि का साधक है, इस बात पर बिना बताये कोई विश्‍वास ही नहीं करता। हृदय ने तो यह सन्देह रामकृष्णजी को बताया भी था। तब रामकृष्णजी ने उसे समझाकर बताया कि ‘यदि उसकी साधना इतनी उच्च कोटि की नहीं होती, तो मुझे केवल दो-तीन बार बुलाकर भानावस्था में लाना उसके लिए संभव ही नहीं होता।’ फिर उन्होंने चंद्रा के बदन पर एक भगवा वस्त्र रखने के लिए चंद्रा से कहा। उसी पल चंद्रा भावावस्था में गया और वह देखकर हृदय को रामकृष्णजी की बात पर यक़ीन हो गया। चंद्रा के पास अदृश्य होने की भी सिद्धि थी, ऐसा भी रामकृष्णजी ने उनके बारे में बताते हुए कहा था।

चंद्रा की तरह गिरिजा भी स्वतंत्र रूप में रामकृष्णजी से आकर मिला था। उसकी भी एक याद रामकृष्णजी अपने शिष्यों को बताते हैं। वह यूँ थी –
आध्यात्मिक मार्गदर्शन के लिए रामकृष्णजी के पास आनेवाले कुछ व्यक्तियों की रामकृष्णजी के साथ कई बार बैठकें होती थीं। शंभुचरण मलिक ये उन्हीं में से एक थे। शंभुचरण को रामकृष्णजी के प्रति बहुत प्रेम था और वे हमेशा ही उनकी सेवा करने के लिए उत्सुक रहते थे। दक्षिणेश्‍वर मंदिरसंकुल के पास ही उनका घर था। रामकृष्णजी कई बार वहाँ चर्चा के लिए जाते थे और वहाँ पर घण्टों तक आध्यात्मिक चर्चाएँ संपन्न होती थीं। एक बार जब ऐसे ही रामकृष्णजी उनके घर गये थे, तब रामकृष्णजी के साथ ‘गिरिजा’ भी था। चर्चा बहुत देर तक चलती रही और कब शाम रात में ढल चुकी, पता ही नहीं चला। रामकृष्णजी और गिरिजा पुनः मंदिर आने निकले, तब बाहर बहुत घना अँधेरा था। इतना घना कि वे दोनों चलते समय रास्ते पर के गड्ढों में लड़खड़ा रहे थे। तब गिरिजा ने उन्हें बीच में ही रोककर – ‘ठहरिए बंधु, मैं आपके लिए प्रकाश का प्रबंध करता हूँ’ ऐसा रामकृष्णजी ने कहा। उसीके साथ उसके बदन से प्रकाश प्रसारित होने लगा, जो कालीमंदिर तक पहुँचने तक उनका साथ दे रहा था!

इस तरह की कुछ सिद्धियाँ उन दोनों के भी पास थीं, ऐसी रामकृष्णजी ने अपने शिष्यों को कहा। लेकिन साथ ही – ‘यहाँ दक्षिणेश्‍वर आने के बाद उन दोनों की भी सिद्धियाँ उनके पास नहीं रहीं, वे उन्हीं के भले के लिए उनसे छीन ली गयीं’ ऐसा उन्होंने बताया। ‘ये दोनों भी अच्छे साधक इन सिद्धियों के इस्तेमाल में फँसे थे और उनकी आगे की प्रगति थम गयी थी। उनके यहाँ आने के बाद उस प्रेमल माता ने उनकी सारीं सिद्धियाँ उनसे वापस ले लीं और उनका ध्यान इस सिद्धियों पर से हटाकर उसे ईशचरणों पर स्थिर करके, उनका आगे का मार्ग सुलभ कर दिया’ ऐसा भाष्य उन्होंने इसपर किया।

इन दोनों के अलावा भी कई लोग दक्षिणेश्‍वरमंदिर में आकर गये। दक्षिणेश्‍वरमंदिर यह पुरी एवं गंगासागर जैसे तीर्थक्षेत्रों की राह पर ही होने के कारण वहाँ जानेवाले साधुबैरागियों का ताँता हमेशा ही लगा रहता था। दक्षिणेश्‍वर में थोड़ा विश्राम करके वे फिर अपने गंतव्य स्थान की ओर निकल जाते थे। उनमें से भी कुछ लोगों से मुझे बहुत कुछ सीखने को मिला, ऐसा रामकृष्णजी ने बताया।

‘वहाँ आया एक साधु ईश्‍वर के नाम से इतना प्रेम करता था! एक पानी की मटकी और पुस्तक इतनी ही उसकी संपत्ति था। वह पुस्तक तो उसे जान से भी प्यारा था। वह उसे कसकर सीने से लगाकर रखता था। उसपर फूल वगैरा चढ़ाकर उसकी पूजा भी करता था। एक बार मैंने ज़िद करके उससे वह पुस्तक देखने के लिए माँगी। खोलकर देखता हूँ तो क्या, उसके हर पन्ने पर ‘ॐ राम’ यह शब्द मोटे आकार में लिखे थे। ‘बाकी ढेर सारी पुस्तकें पढ़कर क्या कुछ फ़ायदा है? वेद, पुराण, अन्य धर्मग्रंथ इनमें जो ज्ञान बताया है, उसका मूल यह ईश्‍वर ही है और वह तथा उसका नाम इनमें कुछ भी फ़र्क़ नहीं है। इस कारण मुझे यह नाम ही भाता है’ ऐसा बहुत बड़ा तत्त्व उस साधु ने सीधी-सरल भाषा में मुझे समझाकर बताया था’ ऐसा रामकृष्णजी अपने शिष्यों को बताते थे।

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