परमहंस-६१

तोतापुरी के मार्गदर्शन में अद्वैत सिद्धांत उपासना करते समय, उनके द्वारा बतायेनुसार रामकृष्णजी का अन्य भौतिक बातों का एहसास, उनका भान हालाँकि कम होता जाता था, मग़र फिर भी कालीमाता का रूप, उसका नाम भूलना उन्हें अभी भी संभव नहीं हो पा रहा था। कई बार प्रयास करके भी जब सफलता प्राप्त नहीं हो रही थी, तब उन्होंने वह तोतापुरी के पास क़बूल किया। तब तोतापुरी ने पास ही में पड़ा हुआ काँच का एक नुक़ीला टुकड़ा उठाया और उसकी नुक़ीली नोक से रामकृष्णजी की भौहों के बीच आज्ञाचक्र के स्थान पर दबाकर ज़़ख्म किया और उस स्थान पर ध्यान केंद्रित करने पर अनुरोध किया।

अब रामकृष्णजी भी ज़िद पकड़कर चरमसीमा के प्रयास करने बैठ गये।

फिर से पहले जैसा ही घटित होने लगा – भौतिक बातों के एहसास तुरन्त धुँधले हो गये, भौतिक विषयों पर से मन को सहजतापूर्वक हटाया गया, परिसर का, समय का और दिशाओं का भान नष्ट हो गया; और….

….अब पहले जैसा ही कालीमाता का स्मितहास्य करनेवाला चेहरा सामने दिखायी देने लगा!

….लेकिन अब रामकृष्णजी माता के नाम में, रूप में नहीं फँसे। उन्होने अपने विवेकी निग्रहरूपी तलवार से सामने दिखायी देनेवाले रूप के सीधे दो टुकड़ें कर दिये।

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आख़िरी ‘रोड़ा’ भी हट गया था!

उनका मन अब किसी ‘परम-हंस’ की तरह सभी एहसासों से परे उड़ने लगा था और उस ब्रह्म के साथ तन्मय होने की कोशिश कर रहा था। उनकी पंचेंद्रियाँ स्तब्ध बन चुकीं थीं। इस विश्‍व का भी एहसास उनके मन से धीरे धीरे मिटता चला जा रहा था। सारे बंधन खटाक से टूट चुके थे। सभी प्रकार के द्वैत नष्ट हो चुके थे। आँखों के सामने, मन में कुछ भी नहीं था। यह अवस्था किसी भी शब्द से, अनुभूतियों से, विचारों से परे थी।

रामकृष्णजी आख़िरकार स्थल-काल-नाम-रूप सभी बन्धों से ‘मुक्त’ होकर अब निर्विकल्प समाधिअवस्था में गये थे!

रामकृष्णजी का देह स्तब्ध, निश्‍चेष्ट अवस्था में बैठा था और तोतापुरी अपने इस शिष्य की ओर एकटक देख रहे थे। शुरू शुरू में सन्हेदपूर्वक ही कि कहीं फिर से यह पहले की तरह ‘उस’ पायदान पर लड़खड़ायेगा तो नहीं?

लेकिन कई घण्टें बीतने पर भी रामकृष्णजी समाधिअवस्था से बाहर नहीं आये। यह देखकर संतुष्ट हुए तोतापुरी ने हल्के से कमरे से बाहर निकलकर दरवाज़े पर ताला लगाया, ताकि कोई रामकृष्णजी की समाधिअवस्था में रुकावट न पैदा करें; और फिर वे अपने स्थान पर जाकर, रामकृष्णजी दरवाज़ा खोलने के लिए कब पुकारते हैं, इसकी प्रतीक्षा करने लगे।

….वह दिन बीत गया, दूसरा शुरू हुआ….

….दूसरा दिन बीत गया, तीसरा शुरू हुआ….

….लेकिन फिर भी रामकृष्णजी द्वारा दरवाज़ा खोलने के लिए नहीं पुकारा गया, इसलिए हैरान हुए तोतापुरी ने हल्के से रामकृष्णजी के कमरे का ताला खोलकर भीतर जाकर देखा तो क्या, रामकृष्णजी ‘उसी’ निश्‍चेष्ट अवस्था में स्तब्ध बैठे थे, जिस अवस्था में तोतापुरी उन्हें छोड़कर गये थे!

रामकृष्णजी का शरीर किसी शव की तरह कड़क हुआ था, लेकिन चेहरे पर अपरंपार तेज खिला था। उनके बाजू में महज़ बैठनेवाले को भी उस तेज का एहसास हो सकें, इतने स्पष्ट रूप में वह तेज खिला था। वह पूरा कमरा ही उस तेज से भर गया प्रतीत हो रहा था।

तोतापुरी ने हल्के से रामकृष्णजी के शरीर को स्पर्श करके देखा। सीने की धड़कन चालू है या नहीं, यह देखा। सारे लक्षण निर्विकल्प समाधि के ही थे, जो अद्वैत साधना की सर्वोच्च अवस्था मानी जाती है

तोतापुरी विस्मयचकित होकर वह नज़ारा देखते ही रह गये। उनका अपनी आँखों पर विश्‍वास ही नहीं हो रहा था। खुद उन्हें भी इस आध्यात्मिक अवस्था तक पहुँचते पहुँचते कठोर उपासनाओं के चालीस साल लगे थे और इस – तीन दिन पहले अद्वैतसाधना के मार्ग पर कदम रखे हुए साधक ने एक दिन में ही इस अवस्था को प्राप्त कर लिया?…. कैसे संभव है यह?

लेकिन यह ‘असंभव का संभव’ हुआ वह सामने देख रहे थे!

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