परमहंस-८९

पश्‍चात्समय में जिन्होंने रामकृष्णजी के विचारों का प्रसार किया और रामकृष्णजी के कार्य को आगे बढ़ाया, ऐसे भक्त अब रामकृष्णजी के पास बड़ी संख्या में आने लगे थे। रामकृष्णजी हालाँकि आनेवाले लोगों में भेदभाव नहीं करते थे, आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करने की मुमुक्षु वृत्ति से आनेवाले साधकों की ओर उनका अधिक रूझान रहता था।

इनमें से कुछ लोग भक्तिमार्ग पर हाल ही में कदम रखे हुए होते थे; वहीं, कुछ लोग विभिन्न भक्तिसंप्रदायों का अनुभव लेकर, ईश्‍वरप्राप्ति के कई प्रचलित मार्गों पर चलकर आये हुए होते थे। ऐसे दूसरी श्रेणि के भक्तों के मं में विशिष्ट भक्तिविषयक संकल्पनाएँ दृढ़ हो चुकीं होती थीं, फिरा चाहे कई बार वे ग़लत भी क्यों न हों।

पहली श्रेणि के भक्त प्रायः ईश्‍वर के सगुण साकार रूपों को माननेवाले रहते थे। लेकिन ‘ईश्‍वर का दिखायी देनेवाला हर एक रूप यानी अलग अलग देवता है’ ऐसी सोच मन में लेकर आये हुए होते थे;

रामकृष्ण परमहंस, इतिहास, अतुलनिय भारत, आध्यात्मिक, भारत, रामकृष्णवहीं, दूसरी श्रेणि के भक्त कई बार सुनी-सुनायी जानकारी के आधार पर – ‘ईश्‍वर के साकार रूप यह केवल ‘माया’ है। केवल निर्गुण निराकार ईश्‍वर ही सत्य है’ ऐसी विचारधारा मन में पक्की कर आये हुए होते थे।

कई बार ये दूसरी श्रेणि ते भक्त, ईश्‍वर के साकार रूपों को भजनेवाले इन पहली श्रेणि के भक्तों को कम समझते थे, उनका मज़ाक उड़ाते थे। ‘उनके इस ‘अज्ञान’ को हमें दूर करना चाहिए’ ऐसा वे रामकृष्णजी से कहते थे।

ऐसे समय रामकृष्णजी उन्हें खरी खरी सुनाते थे –

‘वे लोग अज्ञानी और तुम लोग ज्ञानी? लोगों को सिखाने तुम क्यों जाते हो? ईश्‍वर ने इस दुनिया का निर्माण किया है, वही उसे चला रहा है, वही यच्चयावत जीवों का पेट पालने का प्रबंध करता है। फिर क्या वही हर एक का उचित समय आने पर उसे सत्य का एहसास नहीं करा सकता? लोग जब ‘उसके’ किसी रूप की पूजा करते हैं, तब उस रूप को ही ईश्‍वर मानकर चलते हैं, यह बात क्या उस ईश्‍वर को पता नहीं होगी? अपने किस बच्चे को क्या खिलाने पर उसे वह पचेगा, यह माता जानती ही है ना? और फिर उसके अनुसार वह खाने में फ़र्क़ करती ही है ना? अतः ‘केवल मेरा ही दृष्टिकोण सही और अन्यों का ग़लत’ ऐसा कोई भी न समझें। लोगों को सिखाने से पहले खुद कुछ सीखो।

ईश्‍वरप्राप्ति के लिए सर्वोत्तम साधन यानी उस ईश्‍वर का निरन्तर नामस्मरण करना और उसके गुणों का-लीलाओं का संकीर्तन करना। भौतिक विषयों से भरी इस दुनिया में तैर जाने के लिए वह अत्यावश्यक है। अन्यथा कम से कम साधना की प्राथमिक अवस्था में तो ईश्‍वर पर ध्यान केंद्रित करना मुश्किल है।

उसके लिए दिन में कम से कम थोड़ा समय तो शान्ति में, ईश्‍वरचिंतन में व्यतीत करना चाहिए। लेकिन सर्वसंगपरित्याग कर नहीं, बल्कि अपनी पत्नी, बच्चें, मातापिता इनके प्रति होनेवाले अपने कर्तव्यों को प्रेमपूर्वक करके ही। फिर भी यह कभी भी भूलना नहीं चाहिए कि ये सभी चाहे अपने कितने भी नज़दीकी आप्त हों, मग़र हमारा सबसे नज़दीकी ‘आप्त’ वह एक ईश्‍वर ही है। क्योंकि ये सभी एक नियत कालमर्यादा तक ही हमारा साथ देनेवाले हैं। हमारा ‘अन्तिम साथी’ वह एकमात्र ईश्‍वर ही है।

यदि बिना यह (नामस्मरण आदि) किये इस दुनिया में विचरण करते हो, तो धीरे धीरे दुनिया के भौतिक विषयों में उलझते जाओगे। जिस प्रकार दूध को पानी में मिलाया, तो वह पानी में घुलमिल जाता है, उसे अलग नहीं किया जा सकता, वैसे ही यह है।

लेकिन जब यह (नामस्मरण आदि) करके दुनिया में विचरण करते हो, तो तुम दुनिया में होकर भी ना के बराबर होगे। अर्थात् वे भौतिक विषय तुम्हें उलझा न सकेंगे। जिस प्रकार उसी दूध से दही बनने के बाद उसे घुलकर मक्खन को अलग निकाला जा सकता है, उसी प्रकार यह है। लेकिन जिस तरह अच्छा मक्खन प्राप्त होने के लिए दही को कुछ घण्टे शान्ति में, बिना हिलाये रखा जाना आवश्यक है, उसी तरह इस शांति में किये जानेवाले ईश्‍वरचिंतन के बारे में कहा जा सकता है।

जिस प्रकार कटहल को काटते समय हाथ को तेल लगाते हैं, जिससे कि उस कटहल का चेप (लासा) हाथ को नहीं चिपकता; उस तेल का ही काम इस मामले में यह ईशचिंतन और नामस्मरण करता है – भौतिक विषयों में हमें उलझने न देने का!’

ऐसे छोटे छोटे, व्यवहारिक उदाहरणों से रामकृष्णजी अपना विचार उन भक्तों के गले उतारते थे।

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