परमहंस-९९

रामकृष्णजी की शिष्यों को सीख

एक बार जब रामकृष्णजी कोलकाता आये थे, तब तत्कालीन विख्यात शास्त्रवेत्ता शशधर तर्कचूडामणि से उनकी मुलाक़ात हुई। ह्यांना भेटण्यास गेले. शशधर बतौर ‘प्रकांड पंडित’ सुविख्यात थे और अपनी सभाओं में शास्त्रों से प्रमाण प्रस्तुत करके वे उपस्थित श्रोताओं को उनका अर्थ, विज्ञान के साथ मेल मिलाकर समझाकर बताते थे। इस कारण उनके व्याख्यान कोलकाता में लोकप्रिय होते जा रहे थे।

मग़र उनका ज्ञान यह केवल बातुनी है, उसे अनुभव का आधार नहीं है, यह रामकृष्णजी जान गये थे। लेकिन शशधर के पास अहंकार न होकर विनम्रता थी और उनका हेतु ‘शोहरत पाना’ यह न होकर, उन्हें प्राप्त हुआ ज्ञान लोगों में बाँटना, ताकि आमजनों में शास्त्रों के प्रति रूचि निर्माण हों यही प्रामाणिकता से था, यह भी रामकृष्णजी को ज्ञात था।

इस पहली ही मुलाक़ात में रामकृष्णजी नो शशधरजी को यह एहसास करा दिया। शशधरजी से मिलने के बाद रामकृष्णजी ने उनसे, ‘तुम किस बात पर व्याख्यान देते हो’ ऐसा प्रश्‍न पूछा। उसपर – ‘मैं लोगों को शास्त्रार्थ आसान करके सिखाता हूँ’ ऐसा जवाब शशधरजी ने विनम्रतापूर्वक दिया।

इस जवाब पर –

रामकृष्ण परमहंस, इतिहास, अतुलनिय भारत, आध्यात्मिक, भारत, रामकृष्ण‘शास्त्रों में बताये गये विधिविधानों का महत्त्व यक़ीनन ही है। लेकिन आजकल के कलियुग में ये शास्त्र वगैरे सीखने के लिए और उनपर चिन्तन करने के लिए किसके पास समय है? कलियुग के लिए तो, देवर्षि नारद द्वारा प्रतिपादित की गयी भक्ति ही सर्वश्रेष्ठ है। उसी कारण, तुमने कितने भी तहे दिल से व्याख्यान दिये, तो भी भौतिक सुखों में आकंठ डूबे हुए उपस्थित लोगों को कौतुक एवं अचंभा प्रतीत होने के अलावा उनपर इन व्याख्यानों का इच्छित परिणाम नहीं होता।

दरअसल केवल जिसे ‘उसका’ आदेश हुआ हो, वह ही दूसरे को ‘सिखाने’ जायें, अन्य कोई ऐसी हिम्मत न करें। किसी को सिखाते समय भी, अध्यात्म का रूझान होनेवाला इन्सान और अध्यात्म की ओर केवल कौतुहल के मारे या फिर मनोरंजन के रूप में देखनेवाला इन्सान इनमें फ़र्क़ करना चाहिए। तुम्हारे पास भक्ति न होने के कारण यह तारतम्यभाव नहीं है और जिसके पास यह तारतम्यभाव नहीं, वह चाहे कितना भी ज्ञानी क्यों न हों, वह फ़ज़ूल है। सबको ज्ञान बाँटने का तुम्हारा हेतु निश्‍चित ही बुरा नहीं है, बल्कि अच्छा ही है। केवल तुम्हारे पास आनेवाले व्यक्ति को उसकी आवश्यकता के अनुसार और क्षमता के अनुसार ही उसे ज्ञान दे दो।

उसके लिए तुम्हारे खुद के ज्ञान को भक्ति का आधार दो। सभी ज्ञान जिसके चरणों में से प्रवाहित होता है और जिसके चरणों तक आकर थम जाता है, उन ‘एक’ को जान लेने के बाद तुम्हें आवश्यक ज्ञान प्राप्त तो होगा ही, साथ ही भक्ति की भी प्राप्ति होगी। लेकिन किसी को गहरे पानी में धकेलने के बाद वह जिस तरह साँस लेने की जी-जान-तोड़ कोशिश करेगा, उतना आत्यंतिक रूझान तुम्हें ईश्‍वर के प्रति होना चाहिए।’

इस उपदेश का शशधर के दिल पर बहुत ही गहरा असर हुआ था। ‘मैंने इतने साल व्यर्थ गँवाये। मेरा सारा ज्ञान खोख़ला है; और एक यही इन्सान है, जो मुझे बचा सकता है और भक्तिमार्ग पर मार्गदर्शन कर सकता है’ इस भावना से उसकी आँखों में से झरझर आँसू बहने लगे थे और भावनातिरेक से वह कँपकँपाने लगा था और रामकृष्णजी के चरणों में लीन हो रहा था।

‘लेकिन यह सारा उपरोक्त उपदेश भावसमाधि में हो आने के बाद मेरे द्वारा किया गया’ ऐसा रामकृष्णजी ने दूसरे दिन एक शिष्य को इस मुलाक़ात के बारे में बताते समय कहा था। वैसे देखा जाये, तो रामकृष्णजी का स्वभाव एकदम शरमिला था। किसी भी विख्यात, ख़ासकर उच्चशिक्षित अनजान व्यक्ति के साथ होनेवाली पहली मुलाक़ात से पहले वे बहुत बेचैन हो जाते थे। वैसे ही वे इस मुलाक़ात से पहले भी हुए थे।

‘दरअसल शशधर के साथ प्रास्ताविक बात करते समय, शुरू शुरू में मैं दबाव में ही था; लेकिन अचानक शशधर के अंतरंग का दर्शन मुझे माँ ने करवाया। इसके (शशधर के) पास होनेवाले ज्ञान को तारतम्यता का तथा त्याग का समर्थन नहीं है, ऐसा मुझे महसूस हुआ। फिर मेरे मन का डर पूरी तरह नष्ट हो गया और उसके बाद ही मेरे मुख से इतना उपदेश का सैलाब बाहर निकला। लेकिन मैं क्या बोल रहा था, वह मुझे अभी भी ज्ञात नहीं है। लेकिन जब मैंने होश सँभाला, तब मैंने देखा कि पंडित शशधर की आँखों से पानी बह रहा है और वह कँपकँपा रहा है’ ऐसा रामकृष्णजी ने अपने उस शिष्य से कहा।

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