परमहंस-१७

गदाधर अब १७ साल का, हट्टाकट्टा, सुन्दर युवक हो चुका था। नम्र, प्रेमल, दयालु, तेज़ दिमाग का, हमेशा निःस्वार्थता से दूसरे की मदद करने के लिए उत्सुक गदाधर किसी भी समूह में अलग ही दिखायी देता था।

लेकिन उसके मन की संरचना आम लोगों की तरह नहीं हुई थी। उसकी उम्र के लड़के जो बातें करते नज़र आते थे, उनमें से किसी में भी उसका दिल नहीं लगता था। वह निरन्तर किसी न किसी विचार में मग्न प्रतीत होता था।

गदाधर दैनंदिन कामकाज़ हररोज़ की तरह ही चालू था। उसका आध्यात्मिक स्तर भले अधिक ही उच्च हो चुका हो, मग़र फिर भी पढ़ाई में उसकी कुछ भी प्रगती नहीं हुई थी। परिवारवालों को अब उसके भविष्य की चिन्ता सताने लगी थी।

यहाँ पर बड़ा भाई रामकुमार घरखर्च की आपूर्ति करने के लिए कोलकाता में संस्कृत भाषा की एक पाठशाला चलाता था। उसे उस भाषा का अच्छा ज्ञान और सिखाने का हुनर होने के कारण उसकी पाठशाला में छात्रों का ताँता हमेशा लगा रहता था।

साथ ही वह मेहनती भी होने के कारण उसने धीरे धीरे उस पाठशाला को ऊर्जितावस्था प्राप्त करा दी थी। उसी के साथ वह विभिन्न धार्मिक समारोहों में पौरोहित्य (पूजा बताना) भी करता था, घरों में जाकर पूजापाठ, शान्ति आदि विधि भी करता था। इन सबसे उसे जो पैसे मिलते थे, उनमें से केवल खर्चे के लिए पर्याप्त राशि खुद के पास रखकर बाक़ी सब वह घर भेज देता था।

साल में एक-दो बार वह कामारपुकूर हो आता था। शिक्षा के बारे में गदाधर की उदासीनता देखकर उसे भी गदाधर की चिन्ता लगी रहती थी।

इसी कारण, इस बार जब वह छुट्टियों में कामारपुकूर आया, तब गदाधर को भी अपने साथ कोलकाता ले जाने का उसने तय किया था। कोलकाता में वह अकेला ही होने के कारण, पाठशाला के कामों के साथ साथ घरेलु काम, खाना पकाना आदि सबकुछ वह अकेला ही सँभाल लेता था। इस कारण, ‘यदि गदाधर मेरे साथ रहने आया, तो यहाँ पर उसकी पढ़ाई भी पूरी हो सकेगी और मेरे पूजापाठ के व्यवसाय में और घरेलु काम में भी वह मेरा हाथ बटा सकेगा’ ऐसा उसने परिवारवालों को समझाकर बताया।

माँ के लिए तो गदाधर ‘आँखों का तारा’ ही था, इसलिए उसे अपने से कहीं पर भी दूर भेजने के लिए माँ पहले तैयार ही नहीं थी। ‘वह ना भी पढ़ें तो भी चलेगा, लेकिन यहाँ पर मेरी आँखों से सामने ही रहा तो अच्छा है’ ऐसा ही माँ का आग्रह था।

बड़ी मुश्किल से रामकुमार ने माँ को समझाया। आख़िर गदाई के भविष्य का खयाल करके चंद्रमणीदेवी ने दिल पर पत्थर रखकर, गदाई को साथ ले जाने की अनुमति रामकुमार को दी।

उसके भविष्यकालीन जीवन की दृष्टि से यह एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण पड़ाव था।

उस दिन केवल माँ और परिवारवालों की ही नहीं, बल्कि समूचे कामारपुकूर वालों की ही आँखें भर आयी थीं।

अपने जीवन के अगले नियोजित कार्य के लिए श्रीकृष्ण जब चन्द १३ साल की छोटी उम्र में गोकुल से बाहर निकले थे, तब गोकुलवासियों के मन में जो भाव प्रकट हुए होंगे, वैसे ही कुछ भाव कामारपुकूरवासियों के मन में उद्गमित हुए थे।

हमारा प्यारा गदाई….हररोज़ हक़ से घर आनेवाला गदाई….हररोज़ घर में हक़ से खेलकूद करनेवाला गदाई….हररोज़ रसोई तक हक़ से आकर उस दिन बनाये किसी ख़ास व्यंजन का, उसी के लिए बचाकर रखा हिस्सा हक़ से खानेवाला गदाई….
….अब पहले जैसा हररोज़ दिखायी देनेवाला नहीं था! अब उसकी प्यारीं शरारतों के लिए झूठा ग़ुस्सा करें, तो भी किसपर करें? यह सब सोचकर किसी के भी गले के नीचे खाना नहीं उतर रहा था।

घर की देवताओं को, माँ को, अन्य बड़े लोगों को प्रणाम करके गदाधर ने भाई के साथ घर के बाहर कदम रखा।

उसे गाँव की सीमा तक छोड़ने के लिए प्रसन्नमयी, गयाविष्णु आदि उसके आप्त-मित्रमंडली आयी थी।

इस प्रकार गदाई के कदम कामारपुकूर के बाहर पड़े!

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