परमहंस-८२

कामारपुकूर से लौटने के बाद रामकृष्णजी के मन में अलग ही विचारमंथन शुरू हुआ था – अब वे किसी की तो बेसब्री से प्रतीक्षा कर रहे थे। ये ‘कोई’ यानी उनके वे भविष्यकालीन शिष्य थे, जिनके आने का ‘समय हो चुका’ था। इनमें से कई भविष्यकालीन शिष्यों के बारे में देवीमाता ने मेरी विभिन्न उपासनाओं के दौरान पहले से ही सूतोवाच कर रखा था, ऐसा आगे चलकर अपने शिष्यों से बातचीत करते हुए रामकृष्णजी बताते थे।

इनमें से सर्वप्रथम आये, कोलकाता के रामचंद्र दत्त और मनमोहन मित्रा। एक-दूसरे के रिश्तेदार ही होनेवाले ये दोनों भी उच्चशिक्षित होकर उनपर अँग्रेज़ी शिक्षा का अच्छाख़ासा प्रभाव था। रामचंद्र दत्त तो डॉक्टर ही थे। कथित (‘सो-कॉल्ड’) विज्ञाननिष्ठता की पट्टी उन्होंने अपनी आँखों पर बाँध ली होने के कारण वे दोनों भी पूरी तरह से नास्तिक हो चुके थे। लेकिन सभी सुख होने के बावजूद भी उनके मन को निरन्तर किसी न किसी बात की चिन्ता उन्हें लगी हुई होती थी।

उस दौरान केशवचंद्रजी द्वारा चलाया जानेवाला एक वर्तमानपत्र रामचंद्रजी के हाथ लग गया, जिसमें से उन्हें रामकृष्णजी के बारे में पहली ही बार पता चला और रामकृष्णजी से मिलने की प्रबल इच्छा उनके मन में जागृत होने लगी। सन १८७९ में एक दिन उन्होंने मनमोहनजी के साथ दक्षिणेश्‍वर आकर रामकृष्णजी से मुलाक़ात की और वह पहली मुलाक़ात उन दो भाइयों के जीवन आमूलाग्र रूप में बदलनेवाली साबित हुई।

रामकृष्ण परमहंस, इतिहास, अतुलनिय भारत, आध्यात्मिक, भारत, रामकृष्णपहली ही मुलाक़ात में रामकृष्णजी ने उन दोनों का दिल जीत लिया। बाक़ी सारी बातों के साथ ही उन दोनों को अचरज इस बात का हुआ कि पहले से कोई जान-पहचान न रहते हुए भी रामकृष्णजी उनके साथ ऐसे बात कर रहे थे, जैसे वे उनके कोई क़रिबी ‘आप्त’ हों।

अब केवल ‘रामकृष्णजी और उनके माध्यम से ईश्‍वरप्राप्ति’ ये ही दो ध्येय मानो उनके जीवन में शेष रहे थे। उनके संभाषण के विषय भी बदलकर अब, ‘रामकृष्णजी’ यही उन दोनों का प्रमुख संभाषणविषय बन चुका था। उनके परिजनों ने इन दोनों को इससे परावृत्त करने की कोशिश की, लेकिन अब वे किसी भी बात से बँधे जानेवाले नहीं थे। मनमोहन मित्राजी को तो इस मामले में रामकृष्णजी का ज़बरदस्त अनुभव हुआ। एक बार उनकी एक मौसी ने उन्हें रामकृष्णजी के पास जाने से रोकने की कोशिश की। उन्होंने हालाँकि मौसी की एक न सुनी, लेकिन उनका मन उद्विग्न था। यहाँ आकर देखते हैं, तो रामकृष्णजी भी चिंतित होकर बैठे थे। इन्होंने जब कारण पूछा, तो रामकृष्णजी ने उन्हें – ‘क्या करें, एक निस्सीम भक्त यहाँ आना चाहता है, लेकिन उसकी मौसी उसे यहाँ आने से रोक रही है और यदि मौसी की बात मानकर वह यहाँ आना बन्द कर दें तो?…. इस विचार से मेरा मन काँप रहा है’ ऐसा उत्तर दिया। यह उत्तर सुनकर मनमोहनजी के मन की बचीकुची आशंकाएँ भी नष्ट हो गयीं।

उसके बाद वे दोनों भी रामकृष्णजी के निस्सीम भक्त बन चुके थे। हफ़्ता भर नौकरी-व्यवसाय में व्यस्त होने के कारण, वे रविवार को दक्षिणेश्‍वर आया करते थे। रामकृष्णजी के कमरे में ही उनकी आध्यात्मिक चर्चाएँ चलती थीं। उनके हर एक आध्यात्मिक प्रश्‍न का उत्तर उन्हें मिलने लगा था। मानो उन्हें यह ज़िन्दगीभर का कोई खज़ाना ही मिला हो। लेकिन यह खज़ाना कंजूसी से अपने ही पास छिपाकर न रखते हुए उन्होंने उसे अपने दोस्तों-आप्तेष्टों में भी बाँटना शुरू किया था – अर्थात् रामकृष्णजी के बारे में अपने दोस्तों-रिश्तेदारों को भी बताना शुरू किया था। उनमें से सभी आने लगे ऐसा नहीं, लेकिन इन दोनों के माध्यम से रामकृष्णजी के पास आनेवाले भक्तों की संख्या धीरे धीरे बढ़ने लगी। रविवार के दिन वह छोटा सा कमरा अब पूरा भरने लगा। कभी कभी उनमें से कोई रामकृष्णजी एवं अन्य सबको अपने घर आने का निमंत्रण देता था। फिर अगले हफ़्ते का सत्संग उसके घर में होता था। इस प्रकार वह समूह अब एक संप्रदाय का रूप धारण कर रहा था।

लेकिन हर एक का स्वभाव अलग था और हर एक के मन में भक्ति दृढ़ करने की रामकृष्णजी की पद्धति भी अलग थी….हर एक के साथ जँचनेवाली!

इस बारे में मनमोहन मित्रा की एक कथा लक्षणीय है। एक बार अपने समक्ष एक नये भक्त का रामकृष्णजी ने उनसे अधिक कौतुक किया, इस कारण मनमोहनजी उनसे रूठ गये। इतने कि धीरे धीरे उन्होंने दक्षिणेश्‍वर आना भी बन्द कर दिया। उन्होंने रामकृष्णजी को भूलने की लाख कोशिशें कीं, लेकिन वे रामकृष्णजी को भूला न सके। यहाँ रामकृष्णजी भी अपने इस शिष्य के मन में उठनेवालीं कुशंकाओं को जानकर दुखी हो रहे थे। कई बार बुलाने पर भी मनमोहनजी नहीं आये।

वह गर्मी का मौसम था और एक दिन मनमोहनजी स्नान करने गंगानदी में उतरे थे। उन्होंने दूर से एक नाव उनकी तरफ़ आते देखा। नाव में रामकृष्णजी थे। एक परिचित भक्त नाव चला रहा था और रामकृष्णजी मनमोहनजी की ओर इशारा करते हुए नाववाले को नाव को वहाँ ले जाने के लिए कह रहे थे। मनमोहनजी को अपनी आँखों पर विश्‍वास ही नहीं हो रहा था। उन्हें यह वहम ही लग रहा था। उन्होंने बार बार आँखें मलकर देखा, तो वाक़ई रामकृष्ण को लेकर वह नाव उन्हीं की दिशा में चली आ रही थी। नाव नज़दीक आ जाते ही रामकृष्णजी भावसमाधी में चले गये। उस नाव चलानेवाले भक्त ने ही मनमोहनजी से कहा कि ‘रामकृष्णजी पूछ रहे थे, आप आजकल दक्षिणेश्‍वर क्यों नहीं आते? दक्षिणेश्‍वर में वे हमेशा आपको याद करते रहते हैं।’

यह सुनकर मनमोहनजी का सब्र टूट गया। ‘मेरे गुरुजी को मेरा इतना खयाल है और उन्हें मेरी इतनी याद आती है कि वे केवल मेरे लिए इतनी गर्मी में भरी दोपहर में चले आये; और मैं उनके प्रेम को पहचान न सका’ इस विचार के साथ आये आँसुओं के रेले में उनके मन की सारी कुशंकाएँ धुल गयीं थीं।

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