परमहंस-९२

रामकृष्णजी के साथ हुई पहलीं दो-तीन मुलाक़ातों में भी गिरीशचंद्रजी पर उनका कुछ ख़ास प्रभाव नहीं पड़ा था। वैसे हर मुलाक़ात के साथ गिरीशचंद्रजी का रामकृष्णजी के बारे में होनेवाला मत बदलता जा रहा था, अधिक से अधिक अच्छा ही बनता जा रहा था; लेकिन अभी तक ‘वह’ पल आया नहीं था। लेकिन इन छोटी-छोटी मुलाक़ातों में गिरीशचंद्रजी रामकृष्णजी से कुछ न कुछ सीख ही रहे थे।

जैसे कि, एक बार जब उनके थिएटर में रामकृष्णजी पधारे थे, तब उन्होंने रामकृष्णजी को नम्रतापूर्वक नमन किया; उस समय रामकृष्णजी ने भी उन्हें नम्रतापूर्वक प्रतिनमस्कार किया। इस बात से हैरान होकर उन्होंने पुनः रामकृष्णजी के नमस्कार किया, तब भी इसी बात की पुनरावृत्ति हुई। जितनी बार उन्होंने रामकृष्णजी को नमस्कार किया, उतनी बार रामकृष्णजी ने, मानो उस नमस्कार को लौटा रहे हैं, इस प्रकार से गिरीशचंद्रजी को प्रतिनमस्कार किया। आख़िरकार गिरीशचंद्रजी ने थककर उस बात को वहीं छोड़ दिया और किसी दूसरे विषय पर बोलने लगे। लेकिन आगे चलकर कई साल बाद इस घटना के बारे में अपने सहकर्मियों से बात करते समय गिरीशचंद्रजी ने बताया कि ‘इस बात से मैंने यही सीख ली कि आज के कठोर समय में ‘प्रणाम-अस्त्र’ (अर्थात नम्रता) ही शत्रु को मारने के लिए – अर्थात शत्रु की शत्रुभावना को मारने के लिए सर्वोत्तम अस्त्र है।’

रामकृष्ण परमहंस, इतिहास, अतुलनिय भारत, आध्यात्मिक, भारत, रामकृष्णगिरीशचंद्रजी द्वारा ऐसी बात की जाना, यह उनमें आमूलाग्र परिवर्तन हुआ होने का ही संकेत था। क्योंकि पहले के गिरीशचंद्रजी ये स्वभाव से हालाँकि कुल मिलाकर बुरे नहीं थे, मग़र फिर भी उनमें अहंकार, वक्रता ठूसठूसकर भरे थे और उनके इसी अहंकार के कारण दरअसल वे गुरु वगैरा मानने के लिए राज़ी नहीं थे। ‘गुरु का स्वीकार किया, तो बंधन आ जायेंगे और फिर मुझे अपना जीवन, मनचाहे रूप से जीने को नहीं मिलेगा’ ऐसा डर उनके मन में दृढ़ हुआ था।

एक बार ‘रामकृष्णजी नाटक देखने के लिए आ रहे हैं’ यह ख़बर उनके एक भक्त ने जल्दी में आकर गिरीशचंद्रजी को दी। अपने ऑफिस में बैठे गिरीशचंद्रजी ने, रामकृष्णजी को हमेशा की तरह थिएटर के स्पेशल बॉक्स में बिठाने के लिए उसे कहा। ‘क्या आप परमहंस का स्वागत करने नहीं चलोगे’ इस उसके प्रश्‍न पर गिरीशचंद्रजी चीढ़कर बोले, ‘क्यों? क्या वे खुद नहीं चलकर आ सकते गाड़ी से उतरकर?’ लेकिन फिर कुछ ही पलों में उन्हें पश्‍चात्ताप हुआ और वे शीघ्रता से ही रामकृष्णजी के स्वागत के लिए दौड़े। घोड़ागाड़ी से उतरनेवाले रामकृष्णजी के प्रशांत चेहरे को देखकर उनका अहंकार टूट गया और ‘थोड़ी देर पहले मैं कुछ ज़्यादा ही उद्दंड़ता से बोला’ ऐसी चुभन उनके मन में शुरू हुई। शो चालू होने में थोड़ी देर थी, इसलिए वे रामकृष्णजी को और उनके साथ आये शिष्यगणों को एक कमरे में ले गये। वहाँ कुछ कुर्सियाँ थीं। एक कुर्सी पर उन्होंने रामकृष्णजी को स्थानापन्न किया और एक कुर्सी पर वे खुद बैठ गये। वहाँ पर और भी कुर्सियाँ थी, जिनपर बैठने के लिए उन्होंने उन शिष्यगणों से निर्देश किया। लेकिन बार बार कहे जाने के बावजूद भी वे शिष्यगण कुर्सियों पर न बैठते हुए नम्रतापूर्वक खड़े ही रहे। आगे चलकर कुछ साल बाद इस घटना के बारे में बात करने हुए गिरीशचंद्रजी ने कहा कि ‘शिष्य को कभी भी गुरु के सामने समान ऊँचाई पर नहीं बैठना चाहिए, यह समझने जितनी पात्रता उस समय मुझमें नहीं थी; यह बात मैंने उस समय उन शिष्यगणों से सिखी।’

इसी मुलाक़ात में, गिरीशचंद्रजी के स्वभाव में वक्रता है, यह रामकृष्णजी ने स्पष्ट रूप से उन्हें बताया। ‘वह कब जायेगी’ ऐसा पूछे जाने पर, ‘जायेगी….विश्‍वास रखो’ ऐसा उनका धीरज रामकृष्णजी ने बँधाया। उसपर – रामकृष्णजी पर तब तक उतना भरोसा न होनेवाले गिरीशचंद्रजी ने ‘पक्का जायेगी ना’ ऐसे आशय का सवाल पूछा। उसपर ग़ुस्सा न होते हुए रामकृष्णजी ने फिर से वही जवाब दिया। लेकिन उनके शिष्यगणों को गिरीशचंद्रजी का यह बर्ताव रास नहीं आया और उन्होंने वैसे गिरीशचंद्रजी को सूचित किया कि ‘पहली बार सवाल पूछने पर गुरुजी ने जवाब दिया था ना, फिर बार बार वही सवाल पूछकर क्यों उन्हें परेशान करते हो?’

ऐसीं छोटी छोटी घटनाओं में से गिरीशचंद्रजी का ‘ट्यूशन’ शुरू था। लेकिन गिरीशचंद्रजी के इन अवगुणों को लेकर, उनकी शराब पीने जैसीं आदतों को लेकर यदि कोई रामकृष्णजी से कुछ शिक़ायत करता, तो वे सुनकर नहीं लेते थे। ‘तुम क्यों ख़ामख़ाँ परेशान होते हो? जिसने उसकी ज़िम्मेदारी सिर पर ली है, वह देखेगा ना’ ऐसा वे शिक़ायतकर्ता को सुनाते थे।

ऐसीं पुरानीं आदते, स्वभाव में होनेवाले बुरे पहलू, महज़ कहकर, सलाह देकर मिटनेवाले नहीं हैं, यह रामकृष्णजी जानते थे और वह सच भी साबित हुआ। लेकिन गिरीशचंद्रजी पर जादू किया, वह रामकृष्णजी के अकृत्रिम प्रेम ने। इस प्रेम ने गिरीशचंद्रजी की बुरी आदतें तो छुड़ायीं ही, साथ ही उनके स्वभाव में होनेवाले अवगुण भी धीरे धीरे फ़ीके पड़ने लगे।

इस प्रेम के कारण ही, केवल गिरीशचंद्रजी ही नहीं, बल्कि ऐसे हज़ारों शिष्यगण रामकृष्णजी से बँध गये थे, उनके चरणों में लीन हो चुके थे।

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