परमहंस-८५

सुरेंद्रनाथ मित्रा के घर रामकृष्णजी से हुई मुलाक़ात में नरेंद्र पर रामकृष्णजी का कुछ खास प्रभाव नहीं हुआ था। लेकिन रामकृष्णजी और विवेकानंदजी ये दोनों भी जिसे अपनी ‘पहली मुलाक़ात’ कहते थे, वह मुलाक़ात दिसम्बर १८८१ में घटित हुई।

उसी दौरान ईश्‍वर की खोज कर रहे नरेंद्र ने कई मार्गदर्शकों से भेंट की थी। ब्राह्मो समाज जैसे कई संप्रदायों में उसने विचरण किया था। लेकिन कहीं पर भी उसका समाधान नहीं हुआ था। आध्यात्मिक क्षेत्र के सूरमा माने जानेवाले कइयों के पास जाकर भी वह निराश ही हुआ था। और इसी कारण उसका मन प्रक्षुब्ध हुआ था और ईश्‍वर की खोज करने की लगन अब और भी बढ़ गयी थी। जीवन के इस अत्यधिक महत्त्वपूर्ण चरण पर रामकृष्णजी उसे मिले थे।

सुरेंद्रनाथजी के घर हुई मुलाक़ात के दौरान रामकृष्णजी ने नरेंद्र को दक्षिणेश्‍वर आने का न्योता दिया ही था। उस न्योते का स्वीकार कर दक्षिणेश्‍वर जाने का नरेंद्र ने तय किया।

उनकी इस ‘पहली मुलाक़ात’ का रामकृष्णजी ने ही ब्योरा दिया है –

रामकृष्ण परमहंस, इतिहास, अतुलनिय भारत, आध्यात्मिक, भारत, रामकृष्ण‘इस कमरे के पश्‍चिमी दरवाज़े से नरेंद्र भीतर आया। कपड़ें किस तरह पहनने चाहिए आदि बातों की उसे कोई फ़िक्र ही नहीं थी। अन्य आम लोग जिस तरह बाह्य जगत में उलझे हुए होते हैं, उस तरह का वह बिलकुल भी नहीं था; दरअसल बाह्य जगत से कोई संबंध न होने जैसा ही उसका बर्ताव था। वह मन ही मन किसी चिन्तन में मग्न है, यह उसकी खोयी हुई नज़रों में से स्पष्ट हो रहा था। उसके साथ आजके ज़माने के युवावर्ग का प्रतिनिधित्व करनेवाले कुछ युवा भी आये थे।

एक चटाई पर वह बैठ गया और मेरे कहने पर कुछ बंगाली भजन उसने गाये। उन्हें उसने इतनी जान लगाकर गाया कि मैं तो भावसमाधी अवस्था को ही प्राप्त हुआ।’

यह रामकृष्णजी से नरेंद्र की पहली मुलाक़ात थी। बाद में एकान्त में ले जाकर रामकृष्णजी ने उसे साश्रु नयनों से – ‘क्यों इतनी देर कर दी तुमने यहाँ आने में? लोगों की भौतिक विषयों पर की वही दक़ियानुसी सांसारिक बातें सुन सुनकर मेरे कान पक गये थे। क्या कभी कोई मेरी तिलमिलाहट को जान भी पायेगा, ऐसा मुझे लगने लगा था’ ऐसा कहा होने की बात बतायी जाती है।

उसके बाद रामकृष्णजी जाकर मिठाई ले आये और उन्होंने खुद नरेंद्र को वह मिठायी अपने हाथों से खिलायी। नरेंद्र ‘वह मिठाई मुझे दीजिए, मैं खुद वह खाता हूँ और दोस्तों को भी देता हूँ’ ऐसा कह रहा था; लेकिन रामकृष्णजी ने उसकी एक नहीं सुनी। ‘दोस्तों को बाद में अलग से मिठाई मिलेगी’ ऐसा कहकर उन्होंने लायी हुई सारी मिठाई नरेंद्र को खिलायी और उससे, दक्षिणेश्‍वर पुनः पुनः आते रहने का वचन लेने के बाद ही उसे लेकर वे पुनः कमरे में आ गये।

पहले तो नरेंद्र को यह सब पागलपन की बात प्रतीत हुई। यह आदमी कहीं पागल तो नहीं है, ऐसा खयाल उसके दिमाग में आया।

पुनः कमरे में लौटने के बाद रामकृष्णजी ने अन्यों से भी बात करना शुरू हुआ। बात करते करते कइयों के आध्यात्मिक सवालों के वे जवाब भी दे रहे थे। लेकिन अब अन्यों के साथ बात करते हुए-पेश आते हुए रामकृष्णजी में, थोड़ी दर पहले नरेंद्र को प्रतीत हुई पागलपन की झलक कहीं पर भी दिखायी नहीं दे रही थी।

लेकिन रामकृष्णजी ने अधिकारवाणी से दिये वे तर्कशुद्ध जवाब सुनते हुए नरेंद्र को धीरे धीरे यक़ीन होते जा रहा था कि जैसा उसे प्रतीत हुआ वैसा यह इन्सान पागल नहीं है। सीधे सरल शब्दों में लोगों के सवालों के वे जिस तरह जवाब दे रहे थे, उससे नरेंद्र के मन में धीरे धीरे यह एहसास जागने लगा कि ‘यदि कोई मेरी आशंकाओं का समाधान कर सकेगा, तो यही है वह इन्सान!’

रामकृष्णजी बोल रहे थे – ‘ईश्‍वर की प्राप्ति हो सकती है, ईश्‍वर दिखायी दे सकते हैं। जिस तरह मैं तुम्हें देख रहा हूँ, तुम्हारे साथ बात कर सकता हूँ, उतनी ही स्पष्टता से हम ईश्‍वर को भी देख सकते हैं, उसके साथ बात कर सकते हैं। लेकिन वह कौन चाहता है? कोई भी नहीं। लोग अपने बिवीबच्चों की ख़ातिर, धनसंपत्ति की ख़ातिर आँसू बहायेंगे, लेकिन ईश्‍वर की प्राप्ति नहीं हो रही है इसलिए आँसू बहानेवाला यहाँ कौन है? ईश्‍वर की ख़ातिर यदि कोई आर्ततापूर्वक आँसू बहाता है, तो यक़ीनन ही ईश्‍वर उसके सामने प्रकट हो सकते हैं।’

रामकृष्णजी का थोड़ी देर पहले का एकान्त में का आचरण और अभी का उनका बात करना, इसका कहीं पर भी मेलमिलाप नरेंद्र नहीं बिठा सक रहा था। लेकिन जिस तड़प और लगन से रामकृष्णजी यह बात कर रहे थे, वह लगन नरेंद्र के दिल को छू रही थी। मुख्य रूप से, यह कोई क़िताबी पंडित बात नहीं कर रहा है, बल्कि यह अनुभवजन्य ज्ञान प्राप्त किये कोई योगी ही बात कर रहे हैं, ऐसा उसे यक़ीन होता जा रहा था।

दिल में रामकृष्णजी के बारे में उल्टेसीधे विचारों का तूफ़ान लेकर ही नरेंद्र ने उनसे विदा ली। यदि यह ‘पागलपन’ होगा भी, तो वह ‘ईश्‍वरप्राप्ति का ध्यास’ रूपी पागलपन है, ऐसी गाँठ उसने मन ही मन बाँध ली थी।

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