परमहंस-९१

रामकृष्णजी के हाथ को आयी चोट धीरे धीरे ठीक हो रही थी। इसी दौरान रामकृष्णजी ने कोलकाता के तत्कालीन विख्यात ‘स्टार थिएटर’ की – ‘लाईफ ऑफ श्रीचैतन्य’ और ‘लाईफ ऑफ प्रह्लाद’ ये दो नाटक देखने के लिए दो बार भेंट की। उस थिएटर के मॅनेजर गिरीशचंद्रजी घोष ने ही ये दो नाटक लिखे थे। गिरीशचंद्र तब तक बीच बीच में रामकृष्णजी के पास आने लगे थे।

ये नाटक देखते समय रामकृष्णजी उसमें बहुत ही रममाण हुए थे। बीच बीच में आनेवाले भावपूर्ण प्रसंगों में वे भी भावुक हो जाते थे, कभी कभी तो भावातिरेक के कारण ट्रान्स में चले जाते थे। रामकृष्णजी को ये दोनों भी नाटक बहुत ही पसन्द आये और उन्होंने वैसा गिरीशचंद्रजी को बताया भी। ‘वास्तविक प्रसंग हूबहू ऐसा ही घटित हुआ होगा ऐसा लगें, इतने ये नाटक असरदार हुए हैं’ ऐसी उन्होंने गिरीशचंद्रजी की प्रशंसा की।

लेकिन गिरीशचंद्रजी ने नम्रतापूर्वक, ‘यह सच है कि ये नाटक मैंने लिखे हैं, लेकिन उसमें दर्शायी गयी भक्ति मुझमें अंशतः भी नहीं है ऐसा मुझे लगता है’ ऐसा रामकृष्णजी से कहा। उसपर रामकृष्णजी ने उसे – ‘चिन्ता मत करो। तुममें भी भक्ति है ही, यह ध्यान में रखो। मूलतः मन में भक्ति रहे बिना इतने सुन्दर एवं असरदार भक्तिविषयक नाटक लिखे ही जा नहीं सकते’ ऐसा सुकून दिलाया। ये गिरीशचंद्रजी रामकृष्णजी के पास कैसे आने लगे इसकी हक़ीक़त भी रोचक है।

रामकृष्ण परमहंस, इतिहास, अतुलनिय भारत, आध्यात्मिक, भारत, रामकृष्णबंगाली भाषा के सर्वश्रेष्ठ नाटककारों में से एक और आधुनिक बंगाली नाट्यक्षेत्र के मानो जनक ही माने जानेवाले गिरीशचंद्रजी उस समय कोलकाता की बहुत बड़ी हस्ती थे और कोलकाता के बुद्धिवादी वर्ग में उनके प्रति सम्मान की भावना थी।

वह दौर, अँग्रेज़ों ने भारत के लिए ख़ासकर निर्माण की अँग्रेज़परस्त शिक्षापद्धति का भूत आमजनता के सिर पर सँवार होने का था। पुरातन भारतीय संस्कृति के साथ रहनेवाली समाज की नाल इस शिक्षापद्धति के कारण धीरे धीरे टूटती जा रही थी। ‘हमारा अपना सबकुछ पुराना और फेंक देनेलायक; और पश्‍चिमियों का वह सबकुछ ही अच्छा’ ऐसा धारणा निःसन्देहतापूर्वक बहुसंख्य समाज की होने में इस शिक्षणपद्धति का मुख्य रूप में हाथ था। पश्‍चिमियों के ‘वक्त की पाबंदी’ आदि गुण लेने के बजाय भौतिक सुखों की ओर रहनेवाला पश्‍चिमियों का रूझान धीरे धीरे कई भारतीयों को अनुकरणीय लगने लगा था। भारतीय संस्कृति के प्रति आदर होने के बजाय, वह अब इन नवशिक्षितों के मज़ाक का विषय बनती चली जा रही थी।

गिरीशचंद्रजी इसी वर्ग से थे। विज्ञाननिष्ठ दृष्टिकोन तैयार करने का दाव कर रही इस शिक्षापद्धति के परिणामस्वरूप – भारतीय संस्कृति, भारतीय समाजमान्य देवी-देवताओं के रूप इनपर होनेवाला गिरीशचंद्रजी का विश्‍वास धीरे धीरे कम होता जा रहा था। इस शिक्षापद्धति में पढ़नेवाले का ईश्‍वर के प्रति होनेवाला विश्‍वास कम होता जाकर, भौतिक सुखों की ओर उसका अधिकतर रूझान होता था। ऐसे सामाजिक वर्तुल से संबंधित होने के कारण गिरीशचंद्रजी पर भी मद्यपान आदि बुरीं आदतें हावी होती जा रही थीं।

लेकिन इसी दौरान उनके निजी जीवन में कई दुख की, नुकसान की घटनाएँ घटित हुईं। उनमें से बाहर निकलने के विभिन्न उपायों को आज़माते समय उनका ईश्‍वर पर का विश्‍वास पुनः ताज़ा हो गया। इसी बीच, उन्हें किसीने – ईश्‍वरप्राप्ति के लिए होनेवाले गुरु के महत्त्व के बारे में समझाने के बाद वे गुरु की खोज में लग गये। लेकिन कई जगह ढूँढ़ने पर भी उन्हें तसल्ली नहीं हुई। ब्राह्मो समाज में भी वे हो आये, लेकिन वहाँ भी उनके मन को शान्ति नहीं मिली; केवल केशवचंद्रजी आदि का परिचय हुआ।

इसी दौरान एक अख़बार में छपकर आये लेख में से उन्हें, ‘दक्षिणेश्‍वर में एक ‘परमहंस’ निवास कर रहे हैं और केशवचंद्रजी तथा उनके ब्राह्मो समाज के कुछ सहकर्मी आजकल इन परमहंस के पास नियमित रूप में आते-जाते रहते हैं’ यह जानकारी मिली। गुरु की खोज कर रहे गिरीशचंद्रजी की उत्सुकता अधिक ही बढ़ गयी।

कुछ ही दिनों में, ये परमहंस उसके ही घर से नज़दीक रहनेवाले उनके एक भक्त के घर आनेवाले हैं, इस बात का पता चलते ही उत्सुकतापूर्वक गिरीशचंद्रजी वहाँ पर गये। लेकिन पूर्वग्रहदूषित बुद्धि के कारण और मानवी मापदंड लगाते रहने के कारण, उस पहली मुलाक़ात तो क्या, आगे की दो-तीन छोटी मुलाक़ातों में भी रामकृष्णजी का कुछ भी प्रभाव गिरीशचंद्रजी पर नहीं पड़ा।

रामकृष्णजी को कोई जल्दी थी ही नहीं। आनेवाले भक्त पर कोई भी विचार न थोंपते हुए, उल्टा हर एक भक्त को उसके अपने स्वभाव के अनुसार, जीवनपद्धति के अनुसार, विचारधारा के अनुसार धीरे धीरे आकार देते हुए भक्तिमार्ग में खींच लाने की रामकृष्णजी की पद्धति के अनुसार वे गिरीशचंद्रजी के रूझान से ही आगे बढ़नेवाले थे।

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