परमहंस-८६

‘उस’ पहली मुलाक़ात के बाद नरेंद्र के मन में रामकृष्णजी के बारे में उल्टे-पुल्टे विचारों का तू़फ़ान उठा था। कभी मन उन्हें ‘पागल’ क़रार देता, तो कभी ‘थोर योगी’। लेकिन मन चाहे उन्हें कुछ भी क़रार क्यों न दें, उनका विचार उसके मन से नहीं जा रहा था, यही सच है।

नरेंद्र की रामकृष्णजी से दक्षिणेश्‍वर में दूसरी मुलाक़ात हुई, वह लगभग महीने भर बाद। उस मुलाक़ात में ऐसा कुछ विलक्षण घटित हुई, जिससे कि नरेंद्र के मन में अंतर्बाह्य बदलाव आया और रामकृष्णजी के बारे में होनेवाले उसके मत में ज़मीन-आसमान का फ़र्क़ पड़ा। वह हुआ यूँ –

इस बार नरेंद्र अकेला ही आया था। रामकृष्णजी अपने कमरे में बैठे थे। नरेंद्र को देखते ही व अत्यधिक आनन्दित हो गये। उन्होंने उठकर उसका स्वागत किया और उसे चारपाई पर बिठाया।

रामकृष्ण परमहंस, इतिहास, अतुलनिय भारत, आध्यात्मिक, भारत, रामकृष्णपिछले अनुभव के कारण नरेंद्र थोड़ासा डरकर ही बैठा था। रामकृष्णजी कुछ तो चिन्तन कर रहे थे, क्योंकि वे बीच बीच में भावावस्था को प्राप्त हो रहे थे। बीच में ही हँस रहे थे, बीच में ही रो रहे थे, बीच में कुछ फुसफुसा रहे थे।

थोड़ी देर बाद वे धीरे धीरे नरेंद्र को एकटक देखते हुए उसके पास आने लगे। अब ये पिछली बार जैसा ही कुछ तो करेंगे, ऐसा सोचकर नरेंद्र साँस थामकर उन्हें देख रहा था। धीरे धीरे उसके सीने की धड़कन तेज़ होती जा रही थी।

लेकिन वैसा कुछ भी घटित नहीं हुआ। रामकृष्णजी पास आये और उन्होंने सीधे अपने दाहिने पैर से नरेंद्र के शरीर को स्पर्श किया…. और उसी पल….

उसी पल, नरेंद्र देख रहे दृश्य में झट से बदलाव आने लगा….

उसकी पूरी तरह खुलीं आँखों के सामने ही उस कमरे की दीवारें, उस कमरे में होनेवालीं अन्य वस्तुएँ धीरे धीरे गर्रगर्र गोल घूमने लगीं और घूमते घूमते अदृश्य होने लगीं….

फिर धीरे धीरे सारा विश्‍व ही गोल गोल घूमने लगा और घूमते घूमते ओझल होने लगा….

सब जगह एक क़िस्म का विचित्र अवकाश महसूस होने लगा…. केवल नरेंद्र, रामकृष्णजी और अवकाश….

धीरे धीरे नरेंद्र को ऐसा एहसास होने लगा कि वह (नरेंद्र) भी उस अवकाश में विलीन होता जा रहा है….

कुछ ही पलों में उसका ‘स्व’ का एहसास भी धुँधला होता जा रहा था….

क्या इसी को ‘मृत्यु’ कहते हैं, ऐसा विचार नरेंद्र के मन में उठा….

….और इस विचार के साथ वह मानो जान की बाज़ी लगाकर रामकृष्णजी पर चिल्लाया, ‘‘यह आप मेरा क्या कर रहे हैं? घर में मेरे माता-पिता जीवित हैं, उन्हें कितना सदमा पहुँचेगा!’’

रामकृष्ण दिल खोलकर हँस पड़े और नरेंद्र को हल्के से थपथपाते हुए उन्होंने कहा, ‘‘ठीक है फिर, फिलहाल रहने दो। तुम्हारा समय अभी तक नहीं आया है। समय आने पर सबकुछ सुलझेगा अपने आप!’’

और अगले ही पल ‘अदृश्य हुईं’ बातें पुनः ‘दृश्यमान्’ हुईं। वह कमरा, कमरे की चीज़ें, यह दुनिया सबकुछ ज्यों का त्यों था….नरेंद्र जब कमरे में आया था, तब जैसा था वैसा ही!

आज तक अध्यात्म पर ढ़ेर सारीं पुस्तकें पढ़कर, यहाँ तक कि इस विषय में होनेवाली पश्‍चिमी विचारधारा को भी आत्मसात कर उसने जो साध्य किया है ऐसा नरेंद्र का मानना था, वह सबकुछ चन्द कुछ ही पलों में ‘इस इन्सान ने’ ज़मीनदोस्त कर दिया था।

नरेंद्र के मन में यह भी ख़याल आया कि कहीं इस आदमी ने मुझे संमोहित (हिप्नोटाईज) तो नहीं किया? लेकिन उसने सुना था कि संमोहनशास्त्र का असर केवल दुर्बल मन के इन्सानों पर ही होता है और अपना मन निश्‍चित ही कमज़ोर नहीं है, इसका उसे यक़ीन था।
फिर यह क्या था?

तब तक अपने आप को बहुत ही तर्कशुद्ध एवं वस्तुनिष्ठ माननेवाले नरेंद्र को, ‘यह क्या था उसे मैं ढूँढ़ नहीं पा रहा हूँ’ इस बात को लेकर खुदपर ही ग़ुस्सा आ रहा था।

मुख्य बात, यह सबकुछ मुझे उसके केवल एक ही ईशारे में दिखा सकनेवाला यह इन्सान भला है कौन? यह सवाल उसे खाये जा रहा था।

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