परमहंस-५२

इस प्रकार, रामकृष्णजी की परीक्षा करने आये दोनों ख्यातनाम प्रकांडपंडित उल्टे उनके चरणों में लीन होकर उनके भक्त बन गये थे। यहाँ तक कि अब – ‘रामकृष्णजी कौन हैं’ यह शास्त्रार्थों में से संदर्भ प्रस्तुत कर साबित करने के लिए कई बार उन दोनों में मज़ेदार प्रतिस्पर्धा शुरू होती थी। उदाहरण के तौर पर, एक कहता था कि ‘रामकृष्णजी ईश्‍वरी अवतार ही हैं’ और अपना यह प्रतिपादन साबित करने के लिए वह शास्त्रार्थों में से मिसालें प्रस्तुत करता था; वहीं दूसरा कहता था कि ‘हरगिज़ नहीं, वे अवतार नहीं, बल्कि स्वयं ईश्‍वर ही हैं’ और वह भी अपने प्रतिपादन के पक्ष में शास्त्रार्थों के संदर्भ प्रस्तुत करता था।

अहम बात यानी भैरवी एवं उन दोनों के द्वारा स्वीकार किया जाने के बाद अब रामकृष्णजी के बारे में दक्षिणेश्‍वर के बाहर की दुनिया को पता चलने लगा था। तब तक, हालाँकि मथुरबाबू जैसे लोग रामकृष्णजी को सिद्धपुरुष मानने लगे थे, मग़र फिर भी उनका यह मानना भी उनके अपने एक मर्यादित दृष्टिकोण के ज़रिये ही था। ‘वे कोई तो ईश्‍वरीय विभूति हैं’ यह वास्तविक रूप में दुनिया मानने लगी, वह भैरवी और इन दो पंडितों द्वारा उन्हें ‘अवतारी पुरुष’ घोषित किये जाने के बाद ही।

रामकृष्णजी की परीक्षा

लेकिन दुनिया उनके बारे में क्या सोचती है, इससे रामकृष्णजी को कुछ भी फर्क़ नहीं पड़ता था। उनका आध्यात्मिक प्रवास भैरवी के मार्गदर्शन में आगे जारी ही था। पहले केवल ‘ईश्‍वरदर्शन की उत्कट इच्छा’ यही एकमात्र ‘ईंधन’ होनेवाले रामकृष्णजी की उपासनाएँ अब शास्त्रशुद्ध पद्धतियों के संपुट में बिठायी जाने लगी थीं। भक्तिमार्ग-उपासनामार्ग में अनिवार्य होनेवालीं वाक्सिद्धि जैसीं सिद्धियाँ भी धीरे धीरे उनमें आने लगी हैं, ऐसी कथाएँ बतायीं जाने लगीं थीं। रामकृष्णजी को हालाँकि उससे कोई लेनादेना नहीं था, मग़र फिर भी प्रायः ‘चमत्कार के बिना नमस्कार’ न करनेवाले जनमानस में उनका स्थान ऊँचाई पर पहुँचने लगा था। अब दक्षिणेश्‍वर कालीमंदिर में, कालीमाता के दर्शन के साथ ही उनके दर्शन के लिए भी भाविक बड़ी संख्या में आने लगे। रामकृष्णजी को सिद्धियाँ प्राप्त हुईं होने की ख़बरें चारों तरफ़ फैलने के कारण लोग अपनी समस्याओं का हल ढूँढ़ने के लिए दूर दूर से उनतक आने लगे। यह लगभग इसवी १८६१ का दौर था।

अब ज़रासी तांत्रिक मार्ग से जानेवाली उपासना शुरू हुई थी। अगले दो-तीन वर्षों में भैरवी ने रामकृष्णजी को ६४ प्रकार की शाक्त-तांत्रिक उपासनाओं के बारे में मार्गदर्शन किया। इन उपासनाओं के लिए कभी कभी कई दुर्लभ चीज़ों की ज़रूरत पड़ती थी, जो भैरवी लाकर देती थी।

लेकिन बतौर ‘गुरू’ स्वीकार की हुई भैरवी से उपासनाओं का स्वीकार करते समय भी रामकृष्णजी की ‘नीर-क्षीर-विवेकबुद्धि’ जागृत थी। क्या ‘ग्राह्य’ है और क्या ‘त्याज्य’, इसका भान उनके मन में सुस्पष्ट रूप में था। इस कारण इन उपासनाओं में से, मद्य एवं स्त्री इनका समावेश होनेवालीं कुछ उपासनाएँ करने से रामकृष्णजी ने इन्कार किया। ‘इन सभी उपासनाओं में से जो उपासनाएँ करने की अनुमति माता ने दी, वे उपासनाएँ ही मैंने कीं’ ऐसा उन्होंने आगे चलकर एक बार अपने शिष्यों से बातचीत करते हुए स्पष्ट किया था।

उसीके साथ, कालीमाता को ‘केवल शक्ति’ मानकर उसका पूजन करने को भी रामकृष्णजी का विरोध था। कालीमाता यह शुरू से लेकर अन्त तक ‘माता ही’ है, यह रामकृष्णजी की आध्यात्मिक भूमिका पक्की थी। इस कारण, इस भूमिका के लिए बाधा साबित होंगी, ऐसीं उपासनाओं में उन्होंने हिस्सा नहीं लिया।

भविष्य में अपने शिष्यों को मार्गदर्शन करते समय भी उन्होंने हमेशा ही – आध्यात्मिक मार्ग पर मार्गक्रमण करना चाहनेवाले प्राथमिक साधक किसी भी प्रकार के विषयसंग से दूर रहें, यही सलाह उन्होंने अपने शिष्यों को दी। क्योंकि विषयों के बीच रहकर विषय से दूर रह सकना, यह बहुत ही प्रगत पड़ाव हो गया, जिसे हासिल करना शुरुआती दौर में तो मुश्किल होता है।

इस आध्यात्मिक मार्ग पर चलना चाहनेवाले साधक की – ‘स्त्री यह उस ईश्‍वरीय माता का ही एक रूप है’ ऐसी आध्यात्मिक भूमिका जब तक पक्की नहीं होती, तब तक वह स्त्रियों की (और स्त्रीसाधक पुरुषों की) सादी संगत से? भी दूर रहें, अन्यथा इस मार्ग पर न चलें, ऐसा ही उनका आग्रह रहता था। यह उन्होंनें अपने आचरण से भी – शादी करके भी गृहस्थी में पूरी तरह विरक्तिपूर्वक रहकर – दिखा दिया ही था।

ऐसी इन उपासनाओं के बीच रामकृष्णजी को कई ईश्‍वरीय साक्षात्कार हुए।

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