परमहंस-१६

ज़मीनदार लाहाबाबू के घर चल रही, वहाँ पर एकत्रित हुए पुरोहितवर्ग की शास्त्रार्थविषयक चर्चा एक मसले पर आकर रुक गयी थी और विवाद करनेवाले किसी के भी पास नया मुद्दा न होने के कारण बन्द पड़ गयी;

तभी गदाई ने बीच में ही उठकर – ‘क्या मैं कुछ बोल सकता हूँ?’ ऐसा उस पुरोहितवर्ग से विनम्रतापूर्वक पूछा।

पुरोहितवर्ग वे सभी दूर-दूर से आये ज्ञानी शास्त्रीपंडित इतने छोटे बच्चे की हिम्मत देखकर दंग रह गये। यहाँ पर इतने विद्वान लोग आये हैं, उनसे इस प्रश्‍न का हल नहीं ढूँढ़ा जा रहा है और यह कौन इतना सा लड़का – जो इस चर्चा को थोड़ाबहुत समझ पाने की सँभावना भी कम ही है, वह इस मसले पर बात करने की अनुमति माँग रहा है! ज़ाहिर है, वह हमारा समय बरबाद करेगा, यह अविश्‍वास प्रतीत होकर वे उसे अनुमति नकारने ही वाले थे कि तभी उन्हीं में से किसी ज्येष्ठ पुरोहित को गदाई का कौतुक महसूस होकर उसने गदाई को बोलने की अनुमति दे दी।

अब यह इतना छोटा लड़का क्या बात करनेवाला है, वह सुनने के लिए सभी के कान सिद्ध हो गये।

गदाई ने उपस्थित सबको विनम्रतापूर्वक वंदन कर बात करना शुरू किया। ‘ईश्वर साकार हैं या निराकार’ यह विवाद ही बराबर नहीं है, यह प्रतिपादित कर गदाई ने – ‘क्या ईश्वर एक ही समय निराकार और साकार भी नहीं हो सकते’ ऐसा उस पुरोहितसमुदाय से ही पूछा।

उस दालान में नीरव सन्नाटा फैल गया था। विवाद का मूल कारण ही मिटाया जाता दिखायी दे रहा था।

गदाई ने आगे बोलना शुरू किया। अस्खलित रूप में इस विवाद को झुठलाते हुए गदाई ने, अपनी बात की पुष्टि करने के लिए भगवद्गीता में से संबंधित संदर्भ एक के बाद एक बिलकुल सहजतापूर्वक प्रस्तुत किये।

इतना सा बच्चा अब क्या शास्त्रार्थ बोलेगा, यह अविश्‍वास पहले दिखाये और उसके बाद उसके मज़े उड़ाने के लिए उत्सुक रहनेवाले पुरोहितवर्ग का मुँह खुला का खुला ही रह गया था। इतने समय तक झगड़ा करने के बाद भी उन सभी ज्ञानी पुरोहितों से जो कूटप्रश्‍न सुलझा नहीं था, उसे गदाई ने सहजता से और सप्रमाण सुलझाकर दिखाया था।

युक्तिवाद ख़त्म करके जब गदाई नीचे बैठ गया, तब वह पूरा का पूरा पुरोहितवृंद और इकट्ठा हुए बाक़ी सभी लोग भी मंत्रमुग्ध हो चुके थे। स्कूल का कुछ ख़ास मुँह भी न देखा हुआ लड़का भगवद्गीता में से संदर्भ बताता है, इस बात पर विश्‍वास रखना उन्हें मुश्किल हो रहा था।

जब गदाई ने प्रस्तुत किये युक्तिवाद पर उन्होंने शांतिपूर्वक विचार किया, तब वह सत्य वचन ही कह रहा है, उस बारे में उन्हें यक़ीन हो गया और उन्होंने गदाई के युक्तिवाद का मनःपूर्वक स्वीकार किया। अपने मन में रहनेवाली असमंजसता को दूर कर देने के लिए उन्होंने गदाई का शुक्रिया अदा किया और ‘तुम्हारे गाँव में यह मूल्यवान रत्न जन्मा है, जो आगे चलकर दुनिया को अमोलिक सीख देगा’ ऐसा इकट्ठा हुए गाँववालों से कहा।

‘गदाई यह कोई तो उच्च कोटि की आध्यात्मिक विभूति है’ ऐसी कामारपुकूर के गाँववालों की पहले से ही रहनेवाली धारणा अब अधिक ही बलवान हुई।

धीरे धीरे गदाई बारह साल का हो गया। उसे जो महज़ ‘पेटपालू’ प्रतीत होती थी, उस तत्कालीन स्कूली शिक्षा में उसका मन नहीं लगता था। इसलिए स्वाभाविक रूप में घर के ही काम, माँ को उसके कामों में मदद, घर के देवताओं का पूजन करना आदि कामों की ज़िम्मेदारी उसके कन्धे पर आ पड़ी थी।

पिताजी की मृत्यु के बाद वैराग्य आकर गृहस्थी से अपने आपको अलग करना चाहनेवाली उसकी माँ – चंद्रमणीदेवी, उसकी बहू के – रामकुमार की पत्नी के अकाली निधन के बाद, उसके बच्चे की परवरिश के उपलक्ष्य में पुनः अनिच्छा से ही सही, लेकिन गृहस्थी में खींची गयी।

घर का खर्च चलाने के लिए अब बड़े भाई ने – रामकुमार ने कोलकाता की एक स्कूल में अध्यापक की नौकरी ढूँढ़ ली थी और बच्चों पर अथक मेहनत करके उस स्कूल को ऊर्जितावस्था प्राप्त करा दी थी।

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