परमहंस- ३४

गत कुछ दिनों से गदाधर जिसकी प्रतीक्षा कर रहा था, वह उस जगतजननी माता का – कालीमाता का दर्शन आख़िरकार उसे हुआ ही था। ज्ञान के उस प्रकाशसागर में आख़िर उसने डुबकी लगायी ही थी!

पुजारी गदाधर

इस घटना के बाद गदाधर ने अपने – ‘गदाधर से रामकृष्ण’ इस आध्यात्मिक प्रवास का महत्त्वपूर्ण पड़ाव पार किया था। वह अब केवल ‘कालीमाता के मंदिर का मुख्य पुजारी गदाधर’ नहीं रहा था….उस ईश्‍वरीय अस्तित्व से होनेवाला अपना रिश्ता महसूस किया हुआ ‘रामकृष्ण’ बन गया?था।

(गदाधर को लोग ‘रामकृष्ण’ कबसे बुलाने लगे, इसके बारे में हालाँकि निश्‍चित जानकारी उपलब्ध नहीं है, मग़र फ़िर भी – ‘एक बार गदाधर ने हृदय को, ‘अरे, जो राम, वही कृष्ण और वही इस देह में रामकृष्ण बनकर आया है’ ऐसा बताया और तबसे हृदय तथा धीरे धीरे सभी लोग उसे ‘रामकृष्ण’ बुलाने लगे’ ऐसे उल्लेख कुछ जगहों पर मिलते हैं। इस कारण हम भी इसके आगे उनका उल्लेख ‘रामकृष्णजी’ ही करेंगे।)

अब रामकृष्णजी शान्त महसूस कर रहे थे। गत कुछ दिनों से हो रही बढ़ती बेचैनी, कश्मकश अब शान्त हो चुकी थी।

यह दर्शन स्वाभाविक रूप से, उस समय मंदिर में उपस्थित लोगों में से केवल रामकृष्णजी को ही हुआ था, बाक़ी उपस्थितों को तो – कालीमाता की केवल मूर्ति ही दिखायी दी होकर, मूर्ति रखे हुए चबूतरे पर चढ़कर हाथ में खड्ग लिये रामकृष्णजी के चेहरे पर धीरे धीरे दिखायी देनेवाले परमानंद के भाव और उसके पश्‍चात् उसके हाथ का खड्ग अचानक नीचे गिर जाना और थोड़ी ही देर में वह भी नीचे ज़मीन पर धड़ाम से गिरकर बेहोश हुआ, यही दिखायी दिया था।

वे सभी – ‘क्या इस पागल की ओर ध्यान देना है, यह तो उसकी रोज़मर्रा की बात है’ ऐसा सोचते हुए अपने अपने काम पर लग गये थे।

लेकिन रानी राशमणि और उसके जमाई मथुरबाबू तक जैसे ही यह बात पहुँची, वै दौड़े दौड़े ही मंदिर में आये थे, लेकिन सारी हकीक़त सुनने के बाद उन्हें – ‘आज की यह बात कुछ अनोखी ही है और शायद आध्यात्मिक दृष्टि से अत्यधिक महत्त्वपूर्ण ऐसी कोई बात गदाधर ने अनुभव की है’ ऐसा दृढ़तापूर्वक लग रहा था।

इसी कारण, आगे होश सँभालने के बाद जब गदाधर ने सारी हकीक़त सबको बयान की, तब अन्य लोगों में से किसी ने उसका विश्‍वास भले ही न किया हों; लेकिन राशमणि तथा मथुरबाबू ने उसका पूरी तरह यक़ीन किया था और ‘कालीमाता के साक्षात् दर्शन हो चुके इन भट्टाचार्यजी के सामने वे अधिक ही नतमस्तक हुए थे।

लेकिन यह लगभग निराकार की ओर झुकनेवाला दर्शन होकर भी गदाधर की, कालीमाता के सगुण-साकार दर्शन की पिपासा कुछ कम नहीं हुई, उल्टा वह अधिक ही बढ़ गयी थी।

लेकिन अब वह बेचैनी नहीं, बल्कि असीम शान्ति महसूस कर रहा था।

अब उसे हररोज़ ना सही, लेकिन बहुत बार माता के दर्शन होने लगे थे।

जब उसके मन में रहनेवाली माता के दर्शन की इच्छा चरमसीमा तक जा पहुँचती थी, तब कई बार माता उसके सामने सगुण-साकार रूप में प्रकट हो जाती, उसके साथ बातें करती, उसे आशीर्वाद दे देती।

उसे दर्शन होना-ना होना यह बात सर्वस्वी माता की इच्छा पर निर्भर है, उसकी (गदाधर की) इच्छा पर नहीं; यह बात गदाधर पूर्ण रूप से जानता होकर भी, किसी दिन माता के दर्शन न हो जाने पर उसे अत्यधिक दुख हो जाता था।

माता के पहले दर्शन का गदाधर के देह पर का असर इतना गहरा था कि वह वास्तविक जगत का भान खो चुका था। उसे पुनः सर्वसामान्य स्थिति में आने के लिए कुछ समय प्रतीक्षा करनी पड़ी।

इसी बीच, उसका भाँजा हृदय हालाँकि उससे निरतिशय प्रेम एवं भक्ति करता था और गदाधर के इस आध्यात्मिक प्रवास में उसका खयाल रख रहा था, मग़र फ़िर भी धीरे धीरे गदाधर के इस आचरण की ओर – ‘कहीं मेरे मामा के दिमाग पर सचमुच का असर तो नहीं हुआ है ना?’ ऐसी थोड़ीबहुत साशंकता से ही देख रहा था। क्योंकि इस सारे वाक़ये का मामा के शरीर पर हो रहा परिणाम देखकर उसके मन को बहुत ही कष्ट हो रहे थे। आख़िरकार यह सबकुछ असहनीय होकर उसने गदाधर की जाँच करने के लिए एक बहुत ही नामचीन डॉक्टर को भी बुलाया। डॉक्टर ने अपने हिसाब से उसकी जाँच की, दवाइयाँ दीं और अपनी फ़ीज़ लेकर वे चले गये;

डॉक्टर तो चले गये, लेकिन गदाधर की ‘बीमारी’ नहीं गयी….

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