परमहंस-९३

तत्कालीन भारतीय समाजजीवन में, ख़ासकर बंगाल के समाजजीवन में नवविचारों की कई हवाएँ उस समय बहने लगी थीं। ज्ञानमार्ग-ध्यानधारणा इन मार्गों का अनुसरण करनेवाले कई नवसंप्रदायों ने, ईश्‍वर के सगुण साकार रूपों को अमान्य कर और उनके निर्गुण निराकार स्वरूप को ही सच मानकर, उसपर ही ध्यान केंद्रित करने की सीख देना शुरू किया था। तत्कालीन अँग्रेज़परस्त शिक्षापद्धति के कारण पहले से ही – ‘मंदिर में जाना, पूजाअर्चा करना’ इन बातों को ‘पुरानीं, दक़ियानुसी बातें’ मानकर उनसे दूर जाने लगे उच्चशिक्षित समाज पर इन नवसंप्रदायों का अच्छाख़ासा प्रभाव पड़ने लगा था।

इसी कारण, रामकृष्णजी के पास अब आनेवाले भक्तगणों में भी प्रायः इसी वर्ग का समावेश होता था। उनके आते ही रामकृष्णजी द्वारा उन्हें पूछे गये – ‘तुम सगुण साकार ईश्‍वर को मानते हो या निर्गुण निराकार ईश्‍वर को?’ इस प्रश्‍न का उत्तर अधिकांश बार – ‘निर्गुण निराकार को’ यही होता था।

लेकिन रामकृष्णजी ने तोतापुरी जैसे – अद्वैत साधना में बहुत बड़ी अनुभवजन्य ऊँचाई हासिल किये खुद के गुरु को भी जहाँ ईश्‍वर के सगुण साकार रूप का – यानी कालीमाता का स्वीकार करने पर मजबूर किया, वहाँ यह आधाकच्चा अनुभवशून्य ज्ञान लेकर दक्षिणेश्‍वर आये भक्तसमुदाय को उचित मार्ग दिखाना रामकृष्णजी के लिए थोड़ासा भी मुश्किल नहीं था।

रामकृष्ण परमहंस, इतिहास, अतुलनिय भारत, आध्यात्मिक, भारत, रामकृष्ण‘सगुण साकार और निर्गुण निराकार ईश्‍वर मूलतः एक ही होकर, ये दो तो केवल उस ईश्‍वर की अवस्थाएँ हैं। कोई भी कम या अधिक महत्त्व वाली नहीं है। लेकिन एकदम निर्गुण निराकार की उपासना यह भक्ति के प्राथमिक पायदानों पर होनेवाले भक्तों के लिए बहुत ही कठिन और अनाकलनीय बात है; अतः भक्त को चाहिए कि वह भक्तिमार्ग की शुरुआत, ईश्‍वर के किसी पवित्र सगुण साकार रूप की साधना से ही करें। केवल सगुण साकार रूप से प्रेम करके भी आप भक्तिमार्ग में सर्वोच्च ऊँचाई हासिल कर सकते हो’ यह वे भक्तों को समझाकर बताते थे और यह उनके आचरण से भी भक्त देख ही सकते थे।

उदाहरण के तौर पर – जिस तरह किसी भी संभाषण में जब कालीमाता का संदर्भ आता था, तब रामकृष्णजी के भाव उमड़कर वे भावसमाधि को प्राप्त होते थे; उसी तरह वे कभी शिवजी का, कभी राधा-कृष्ण का नाम आया, तो भी भावसमाधि को प्राप्त होते थे और उसी तरह कभी निर्गुण निराकार परब्रह्म का संदर्भ आया, तो भी वे भावसमाधि को प्राप्त होते थे। अर्थात् वे हालाँकि ईश्‍वर के सगुण साकार रूप से प्रेम करते थे, वे केवल किसी एक रूप से ही जकड़े नहीं थे। ईश्‍वर का कोई भी पवित्र रूप उनके लिए एकसमान ही था। इतना ही नहीं, बल्कि वे जितना सगुण साकार रूप से प्रेम करते थे, उतना ही प्रेम वे निर्गुण निराकार परब्रह्म से भी करते हैं, यह उनके भक्त जान जाते थे।

इस प्रकार भक्तगण भी उनसे अपने आप ही कई बातें सीख जाते थे। कई बार, आये हुए भक्त के मन की समस्याओं को जानकर वे संभाषण का रूख ऐसी दिशा में मोड़ते थे या फिर इस तरह का घटनाक्रम संभाषण के दौरान ही घटित होना शुरू हो जाता था कि भक्त के मन की समस्या का समाधान अपने आप ही हो जाता था।

रामकृष्णजी के एक परमभक्त बलरामजी बोस के साथ घटित हुई ऐसी ही एक घटना इसी बात की निदर्शक है। बलरामजी बोस पहले से ही अ-हिंसावादी थे। घर में होनेवाले क़ीड़े-चींटियों को मारने की बात तो दूर ही रही, लेकिन उनकी ध्यानधारणा के समय भनभनाहट कर उनकी एकाग्रता को भंग करनेवाले मच्छरों को मारने को भी वे तैयार नहीं होते थे, लेकिन इस कारण ध्यानधारणा में एकाग्र होने में उन्हें बहुत देर लग जाती थी।

इस मामले में वे एक बार शांति से चिंतन करते बैठे थे कि तभी उनके दिल में ख़याल आया कि ‘अपनी साधना की दृष्टि से अपनी एकाग्रता सबसे अहम है, उसे भंग होने नहीं देना चाहिए। अतः उसे भंग करनेवाले मच्छरों को दरअसल मार ही देना आवश्यक है।’ लेकिन मन में बचपन से दृढ़ हो चुकीं अ-हिंसा की धारणा उन्हें ऐसा करने से रोक रही थीं। इस कारण – ‘मच्छरों को मारें या न मारें’ इस बात के लेकर उनके मन में द्वंद्व शुरू हुआ। बहुत देर तक विचार करके भी उनका निर्णय नहीं हो रहा था, तब ‘रामकृष्णजी से ही पूछता हूँ’ ऐसा सोचकर वे सीधे दक्षिणेश्‍वर चले आये।

….और वहाँ उन्हें एक विलक्षण नज़ारा देखने को मिला! रामकृष्णजी एकदम परेशान होकर, उनका तकिया हाथ में लेकर पलंग पर बैठे थे और उस तकिये में से ढूँढ़-ढूँढ़कर खटमलों को बाहर निकाल रहे थे और उन्हें मार रहे थे! बोसजी ने रामकृष्णजी के सामने जाकर उन्हें नमस्कार किया, तब रामकृष्णजी ने खुद ही उनसे कहा – ‘अरे, ये देखो, इन खटमलों ने काट-काटकर मेरा क्या हाल बना रखा है। उपासना में भी मेरा ध्यान केंद्रित नहीं हो रहा है। फिर काफ़ी देर देख-देखकर सीधे उन्हें मार ही दिया।’

‘रामकृष्णजी ने मेरे मन के द्वंद्व को अचूकता से शान्त करनेवाली यह लीला की’ यह देखकर अचंभित हुए बलरामजी बोस को अपने – ‘साधना की एकाग्रता को भंग करनेवाले मच्छरों को मारें या न मारें’ इस प्रश्‍न का उत्तर मिल गया था!

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