परमहंस- ३०

गदाधरमामा दोपहर को पूजन आदि होने के बाद मंदिरसंकुल के नज़दीक ही होनेवाले ‘पंचवटी’ नामक इला़के में अकेला ही जाता है, यह हृदय जानता था; लेकिन वह रात को भी वहाँ पर जाता है, यह ज्ञात होने के बाद तो उसे धक्का ही लगा था। वह जगह एकदम घने जंगल जैसी थी, जहाँ पर दिन में भी सूरज की रोशनी मुश्किल से पहुँचें, इतनी घनी झाड़ी थी। इतना ही नहीं, बल्कि उस स्थान के नज़दीक एक श्मशान भी था, इस कारण वहाँ दिन में जाने की भी आम लोगों की हिम्मत नहीं होती थी….और मामा….रात को….वहाँ जाता है?

‘पंचवटी’लेकिन मामा से इस बारे में बात करने की हृदय की अभी तक हिम्मत नहीं हो रही थी। मग़र दिन में अधिकांश समय उत्कट भावावस्था में रहने के कारण और इतने समय तक कालीमाता की सेवा करके पुनः दोपहर को पंचवटी में जाने के कारण अपने मामा पर पहले से बहुत शारीरिक तनाव है, यह बात हृदय महसूस कर रहा था। इस कारण, रात को भी इस प्रकार नित्य रूप में जागने से मामा को अधिक ही थकान महसूस होती होगी, इस कल्पना से हृदय बेचैन हो रहा था।

अगली रात हृदय ने पुनः मामा का पीछा किया। लेकिन आज हिम्मत जुटाकर उसने मामा के पीछे पीछे पंचवटी में प्रवेश किया। गदाधर जैसे जैसे अधिक से अधिक घनी झाड़ी की ओर चलने लगा, वैसे वैसे उसे वहाँ जाने से परावृत्त करने के लिए, उसके पीछे थोड़ी ही दूरी पर चल रहे हृदय ने ज़मीन पर से छोटे छोटे पत्थर उठाकर गदाधर की ओर फेंकना शुरू किया। उनमें से कुछ पत्थर गदाधर को लगे भी, लेकिन वह भावावस्था में ही एक कुछ विशेष ध्येय मन में रखकर चल रहा होने के कारण, ‘मुझे कोई पत्थर मार रहा है’ इस बात का एहसास ही उसे नहीं हो रहा था। आख़िर मजबूरन् थोड़ी देर बाद हृदय अपने कमरे में लौट आया।

लेकिन अगली रात अधिक ही निश्‍चय के साथ हृदय मामा का पीछा करते हुए, पंचवटी में गदाधर जहाँ तक जाता था, वहाँ जा पहुँचा। एक आमले के पेड़ के तले रहनेवाली थोड़ी सी खाली जगह पर आने के बाद गदाधर रुका था।

उसके बाद हृदय ने जो देखा, उससे उसे बहुत ही बड़ा झटका लगा।

गदाधर ने अपना उत्तरीय, कमीज़ आदि निकालकर बाजू में रखना शुरू किया। कमीज़ निकालकर रखने के बाद उसने अब धोती उतारना भी शुरू किया।

अब हृदय का सब्र ख़त्म हो चुका था। वह दौड़कर ही मामा के सामने आकर खड़ा हुआ। लेकिन फिर भी अभी तक भावावस्था में ही रहनेवाले गदाधर को, हृदय सामने आकर खड़ा हुआ है, इसकी ख़बर तक नहीं थी।

हृदय ने मामा को ज़ोर ज़ोर से पुकारकर जागृत करने की कोशिश की। लेकिन गदाधर को मानो उसकी पुकार सुनायी ही नहीं दे रही थी। आख़िरकार हृदय ने मामा को ज़ोर ज़ोर से हिलाकर भावावस्था में से जागृत किया?और ‘मामा, यह आप क्या कर रहे हैं?’ ऐसा स्पष्ट रूप से ही पूछा।

अब जागृत हुए गदाधर ने, हृदय के इस प्रश्‍न पर उसकी ओर प्यार से देखते हुए, उसे अपने इस विचित्र प्रतीत होनेवाले आचरण का, शान्ति से निम्न आशय का स्पष्टीकरण दिया –

‘हृदय, आमले के पेड़ के तले ध्यानधारणा अच्छी होती है ऐसा कहा जाता है, इसलिए मैं यहाँ आता हूँ। यहाँ पर मुझे ध्यानधारणा के लिए आवश्यक एकान्त भी अच्छे से प्राप्त होता है, जो बात मंदिरसंकुल में संभव ही नहीं है। अब रही बात कपड़ें आदि उतारकर बाजू में रखने की। तो सुनो! मेरी ऐसी धारणा है कि मुझे माता के दर्शन होने के आड़े ये भौतिक पाश, साथ ही मानवी मन में उद्भवित होनेवाले तथाकथित ऊँचनीच भेदभाव आ रहे हैं। मनुष्य को विद्वेष, हीनगंड (कमीपन की भावना), शक़, झिझक, ‘मैं ही सही हूँ’ यह भावना, भय, किसी विशेष जातिधर्मकुल के होने का अहंकार और स्वयं के बारे में अहंकार ये आठ बेड़ियाँ जकड़कर रखतीं हैं और उसका आध्यात्मिक विकास होने के मार्ग में अड़ंगा बनकर रहतीं हैं। ये सारीं बेड़ियाँ तोड़कर ही माता को सच्चे दिल से गुहार लगानी पड़ती है। इसी कारण, इनमें से मुक्त होने के लिए मेरे सारे क्रियाकलाप चल रहे हैं।

माता को गुहार लगाते समय मेरे मन में किसी भी प्रकार की अहंभावना, धारणा, भूमिका, पूर्वग्रहदूषित बुद्धि मुझे नहीं चाहिए। उसी की शुरुआत के तौर पर, ध्यानधारणा के लिए मुझे पाश प्रतीत होनेवालीं इन सारी भौतिक चीज़ों को, ध्यानधारणा के समय मैं बाजू में निकालकर रखता हूँ।

….और चिन्ता मत करना, आते समय मैं पुनः सारे कपड़ें पहनकर ही आऊँगा।’

पहली ही बार गदाधर ने हृदय के साथ इतना विस्तारपूर्वक आध्यात्मिक संभाषण किया था।

उसमें से हृदय की समझ में हालाँकि कुछ ख़ास तो नहीं आया; लेकिन गदाधर के जवाब से अवाक् हो चुका हृदय, अधिक कुछ भी न बोलते हुए पुनः अपने कमरे में लौट आया….

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