परमहंस-९०

रामकृष्णजी का शिष्यपरिवार बढ़ता ही जा रहा था और बाद के समय में प्रमुख माने गये उनके शिष्यगण उनके अधिक से अधिक क़रीब आने की प्रक्रिया इसी दौर में शुरू थी। उनके कुछ शिष्य तो हररोज़ ही आकर उनसे मिलते थे।

इसी दौरान जनवरी १८८४ में एक दुखदायी घटना घटित हुई। एक दिन रामकृष्णजी हररोज़ की तरह दक्षिणेश्‍वर परिसर के बगीचे में चक्कर काट रहे थे। मन में हमेशा की तरह चिन्तन शुरू ही था। हररोज़ चक्कर काटते समय उनके साथ हमेशा राखाल रहता था। उस दिने उसे अचानक कुछ काम निकला होने के कारण वह उनके साथ नहीं था। वे अकेले ही चक्कर काट रहे थे। चलते चलते ही रामकृष्णजी अचानक भावसमाधि में गये और अपना सन्तुलन खोकर वे ज़मीन पर गिर पड़े और सभान हुए। गिरे तो भी ऐसी विचित्र पद्धति से कि उनके हाथ का जॉईंट ही सरक गया।

तभी किसी ने उन्हें देखा और चारों तऱङ्ग से एक ही भागादौड़ी शुरू हुई। वैद्यकीय ईलाज़ शुरू हुआ। रामकृष्णजी को बीच बीच में बहुत ही असहनीय वेदनाएँ हो रही होकर, वे कराहते थे। अपने गुरुजी को होनेवालीं इस वेदना से शिष्यगणों का दिल काँप उठता था।

कभी कभी असहनीय वेदनाओं के दौरान वे अचानक भावसमाधि को प्राप्त होते थे। उसके बाद, जब तक वे भावसमाधि में रहते थे, तब तक उनका वेदना से कराहना बन्द रहता था; क्योंकि उस अवस्था में शरीर का भान न होने के कारण उन्हें कुछ शारीरिक वेदनाओं का एहसास होता ही नहीं था।

रामकृष्ण परमहंस, इतिहास, अतुलनिय भारत, आध्यात्मिक, भारत, रामकृष्णभावसमाधि में से जागृत होने के बाद यदि वेदनाएँ होती थीं, तब वे या तो पुनः कराहने लगते थे या फिर देवीमाता के साथ बातें करने लगते थे – ‘अरी! यह क्या हो रहा है मेरे साथ! मैं केवल साधन हूँ और कर्ता और करवानेवाली तुम ही हो ना! फिर मेरे हाथों क्या गलती हुई इसलिए यह सब हुआ? क्या तुम मेरी माँ और मैं तुम्हारा बच्चा नहीं हूँ….एक शरमीला बच्चा? फिर तुम्हे तो पता ही होगा कि मुझे तुम्हारी कितनी ज़रूरत है! मैं तुम्हें ही चाहता हूँ माँ। मुझे ब्रह्मज्ञान मत दो। जिन्हें उसकी अभिलाषा है, उन्हें ही तुम ब्रह्मज्ञान दो। ब्रह्मज्ञान सर्वोच्च हो भी सकता है, मैं उसे अनंत नमस्कार करता हूँ, लेकिन दूर से। क्योंकि मैं तुम्हें ही चाहता हूँ।’

कभी कभी वे किसी छोटे बच्चे की तरह निरागसता से, जमा हुए शिष्यों से पूछते थे कि ‘मैं इसमें से ठीक हो जाऊँगा ना?’ तब उनके शिष्यगणों को बहुत बुरा लगता था। फिर किसी छोटे बच्चे को जैसे समझा-बूझाते हैं, वैसे शिष्यगण उन्हें समझाते थे – ‘हाँ, जल्द ही।’ फिर वे – रोते बच्चे को खिलौना या मिठाई मिलने पर वह कैसे हसेगा, वैसे हँस देते थे।

‘उनके बाग में चक्कर लगाते समय उनके साथ जाने की ज़िम्मेदारी मुझपर सौंपी गयी थी, जिसे में अच्छी तरह से निभा न सका। मैंने उन्हें अकेला छोड़ा इसलिए यह घटित हुआ’ ऐसा सोचकर राखाल बहुत दुखी हो गया था और एकदम क़रिबी भक्तों के अलावा, बाहर से आनेवाले भक्तों को रामकृष्णजी के इस अपघात के बारे में कुछ पता ही न चले इसलिए प्रयासशील था। उसे भी रामकृष्णजी ने समझाया कि ‘इसमें तुम्हारी कोई ग़लती नहीं है। कुछ काम होने के कारण तुम उस दिन मेरे साथ आ न सके। दरअसल यह घटित होने ही वाला था, अतः उस दिन तुम मेरे साथ होते, तब भी मुझे गिरने से बचा न सकते।’ साथ ही, उसे यह भी खरी खरी सुनायी कि ‘इसमें छिपाने की क्या बात है? मुझे ‘माँ’ ने अब इस मोड़ पर लाकर रख दिया है कि अब मैं कुछ भी छिपाना नहीं चाहता। इसलिए अब यह किसी से छिपाओ मत।’

कभी कभी वे अपनी इस चोट को लेकर मज़ाक भी करते थे। उनका ईलाज़ करने आये डॉक्टर भी उनके ऐसे मासूम लगनेवाले प्रश्‍नों से हँस पड़ते।

उनका ईलाज करने आये डॉक्टर का नाम ‘मधुसूदन’ था। यह सुनते ही रामकृष्णजी ने तुरन्त ही कहा – ‘वाकई, ‘मधुसूदन’ इस ईश्‍वर के नाम में ही कितनी आश्‍वस्तता है ना!’ उसपर उस डॉक्टर ने नम्रतापूर्वक कहा, ‘अजी, वह मेरा सिर्फ़ नाम ही है।’

उसपर रामकृष्णजी ने उसे नाम का महत्त्व बताया कि ‘नाम और ‘वह नामी’ इनमें कुछ फ़र्क़ ही नहीं है’ और उस उपलक्ष्य में भक्ति का महत्त्व उजागर करते हुए रामकृष्णजी ने बताया –

‘केवळ भक्ति की खातिर भक्ति करो, कुछ माँगने के लिए नहीं। ईश्‍वर के लिए हालाँकि सारे मानव समान हैं, मग़र फिर भी जो केवल भक्ति के लिए भक्ति करते हैं, वे ही ईश्‍वर को अधिक प्रिय होते हैं। जिस तरह किसी दयालु अमीर आदमी के पास कुछ न कुछ माँगने कई लोग आते हैं? और वह उन्हें खुले दिल से मदद भी करता है। लेकिन उसमें भी यदि कोई इन्सान उसके पास कुछ माँगने के लिए नहीं, बल्कि सिर्फ़ प्रेम से, निरपेक्ष वृत्ति से केवल उसे मिलने के लिए ही आता है, तो वह इन्सान उस अमीर आदमी के ध्यान में ठीक से रहता है और वह उसे प्रिय भी होता है; उसी तरह यह भी है।’

रामकृष्णजी का हाथ ठीक होने में कुछ महीने लग गये। लेकिन उसके कारण उनके शिष्यगणों को उनसे बोधामृत सेवन करने का और ज़्यादा अवसर प्राप्त हुआ, यह उन सब के लिए दुख में सुख की बात थी!

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