परमहंस-८८

इसी दौरान इसवी १८८१ के मध्य में दक्षिणेश्‍वर में एक अनिष्ट घटना घटित हुई….रामकृष्णजी का भाँजा एवं भक्त हृदय को दक्षिणेश्‍वर से निकाल बाहर कर दिया गया!

लेकिन उसके लिए कारण भी हृदय का आचरण ही था। यह कोई एक दिन में हुई घटना नहीं थी। रामकृष्णजी की ख्याति जैसे जैसे बढ़ने लगी, वैसे वैसे दक्षिणेश्‍वर आनेवाले भक्तों की, जिज्ञासुओं की संख्या भी दिनबदिन बढ़ने लगी….और वैसे वैसे ‘रामकृष्णजी की उपासनाओं के दौरान और अन्य समय भी उनका खयाल रखनेवाला उनका भाँजा एवं परमभक्त’ ऐसी हृदय की ‘पहचान’ भी अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचने लगी। आनेवाले सभी भक्त वहाँ पर आध्यात्मिक लालसा से ही आते थे ऐसा नहीं था। कई लोग अपनी भौतिक समस्याओं का समाधान पाने के लिए वहाँ आते थे, जो बाहरी व्यवहारिक दुनिया के नापदंडों का इस्तेमाल वहाँ करते थे। जैसा कि, यहाँ मेरे जैसे ही इतने सारे लोग रामकृष्णजी से मिलने आये हैं, इतने लोगों में से मुझे ही भेंट का अवसर मिलें इसलिए क्या किया जाये, इसके बारे में सोचते सोचते उनकी नज़रें हृदय की ओर मुड़ती थीं!

रामकृष्ण परमहंस, इतिहास, अतुलनिय भारत, आध्यात्मिक, भारत, रामकृष्ण‘यह श़ख्स मुझे रामकृष्णजी से मिला सकता है’ ऐसा वे सोचते थे और फिर हृदय की ‘मर्ज़ी में रहने की’ कोशिश करते थे। इसीमें से फिर – हृदय की, उसकी सेवाभक्ति की प्रशंसा करना, उसे ‘हमारी ओर से आपको फूल ना सही, फूल की पँखुड़ी’ ऐसा युक्तिवाद करते हुए पैसे, वस्तुएँ, मिठाइयाँ, फल आदि चीज़ें देना शुरू हुआ और उसने भी शुरू शुरू में अनिच्छा दर्शाते हुए, लेकिन बाद में खुलेआम उनका स्वीकार करने की शुरुआत की।

रामकृष्णजी हृदय का यह सारा पतन उदासी से देख रहे थे। लेकिन हृदय ने अब तक की हुई उनकी सेवा को ध्यान में रखते हुए उन्होंने हृदय को समझाने का, इससे परावृत्त करने का प्रयास भी किया। लोगों से भी ऐसा न करने के लिए कहा। लेकिन उसका कुछ भी उपयोग नहीं हुआ।

ऐसे में ही एक बार, हृदय को जो ‘बड़ा अनपेक्षित धनलाभ’ प्रतीत हो रहा था, ऐसी एक मोटी रक़म की बख्शिशी, रामकृष्णजी के हस्तक्षेप के कारण, उसके हाथ आने से रही थी। इसके बाद तो वह रामकृष्णजी का द्वेष ही करने लगा। इस लोभ के कारण उसे भक्ति, सेवा सबका विस्मरण हो गया। उसकी अब तक की सेवा को मद्देनज़र करते हुए, रामकृष्ण अत्यधिक अनुकंपा से उसे समझा रहे थे, लेकिन व्यर्थ! अतिलोभ के कारण हृदय बेभान हो चुका था।

‘विनाशकाले विपरीतबुद्धि’ इस न्याय से उसे अब कोई भी शर्म नहीं बची थी। रामकृष्ण उपासना के समय, पूजन के समय बेभान हो जाते थे, भावसमाधि को प्राप्त होते थे; जिसमें कभी कभी उन्हें अपने कपड़ों की भी सुधबुध नहीं रहती थी। अर्थात् यह देहभाव न बचा होने के कारण उनसे घटित होता था। लेकिन यही लोगों की चर्चा का विषय बन रहा है, यह देखकर हृदय, अपने मामा के नक़्शेकदम पर चलते हुए आध्यात्मिक मार्गक्रमणा करने के बजाय, मामा की बाह्यनक़ल कर रहा था – ‘प्रतिपरमहंस’ बनने की कोशिश करने लगा था। वह पूजन के समय इकट्ठा हुए भक्तों के सामने बीच में ही भजन गाना शुरू करता था, आरती-गजर के समय बेभान हुआ है ऐसा दिखाकर नाचता था।

वह अब खुलेआम, आनेवाले भक्तों से पैसे वसूल तो करता ही था, साथ ही रामकृष्णजी पर भी अपना रोब झाड़ने लगा था, उन्हें इकट्ठा हुए लोगों के सामने अपमानित कर देता था। रामकृष्णजी के बारे में अतीव आदर दिल में लिये वहाँ पर आये लोग इस सारे वाक़ये से अवाक् हो जाते थे। लेकिन रामकृष्णजी वहाँ पर भी उसका समर्थन करते थे; ‘वह मूलतः वैसा नहीं है, शायद ग़ुस्से में होगा इसलिए वैसा बोला होगा’ ऐसा वे लोगों को समझाते थे।

मंदिर के अन्य सेवकों को भी वह उल्टासीधा बोलता था। इस कारण उनमें भी नाराज़गी बढ़ने लगी थी और उसकी बहुत सारीं शिक़ायतें मंदिरव्यवस्थापन तक पहुँची थीं। रामकृष्णजी द्वारा बार बार समझाने के बावजूद भी कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा था – उसे उसकी कथित सत्ता का हुआ अहंकार बढ़ता ही चला जा रहा था। लेकिन आख़िरकार ‘आख़िरी पुआल’ पड़ ही गया….

मंदिर के स्थापनादिवस के उपलक्ष्य में एक भव्य समारोह का आयोजन किया गया था। मथुरबाबू की मृत्यु के बाद अब वहाँ पर मुख्य व्यवस्थापक का पदभार सँभाल रहा उनका बेटा त्रैलोक्यनाथ और उसकी पत्नी जाती तौर पर और मथुरबाबू जितने ही भक्तिभाव के साथ सारी व्यवस्था देख रहे थे। उस समय हुईं पूजाओं के दौरान, अपने मामा की नक़ल करने का आदी हृदय के हाथों एक अक्षम्य ग़लती हुई। यह ख़बर त्रैलोक्यनाथ तक पहुँची और उन्होंने सारी तहकिक़ात करने पर, उसे फ़ौरन दक्षिणेश्‍वर से चले जाने का हुक़्म दिया।

‘मुझसे सवाल करनेवाला भला यहाँ कौन है’ इस मग़रूरी में रहनेवाले हृदय का मद एक ही झटके में उतर गया। लेकिन अभी भी उसे अपना गुनाह मान्य नहीं था। उसने पहले रामकृष्णजी से, त्रैलोक्यनाथ के पास अपनी तरफ़दारी करने की प्रार्थना की। बाद में ‘मेरे साथ यदि मामा नहीं होंगे, तो मुझे भला कौन पूछेगा’ इसका एहसास हुए हृदय ने उन्हें ‘आज मुझे निकाल बाहर किया, कल आपको भी निकाल बाहर कर सकते हैं। इसलिए आप भी मेरे साथ चलिए, हम लोग मिलकर दूसरे कालीमंदिर का निर्माण करेंगे’ ऐसा ‘डर’ और ‘लालच’ दिखाया।

लेकिन अब ‘दाक्षिण्य’ दिखाने का समय निकल गया था। अतः रामकृष्णजी ने मध्यस्थी करने से इन्कार कर दिया। परिणामस्वरूप हृदय को दक्षिणेश्‍वरमंदिर छोड़कर जाना ही पड़ा। लेकिन उसके इस पतन के कारण रामकृष्णजी को अतीव दुख पहुँचा था।

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