परमहंस-११७

रामकृष्णजी की शिष्यों को सीख

रामकृष्णजी के दौर में प्रायः भक्तिमार्गी समाज में होनेवाला प्रमुख विवाद था – निर्गुण निराकार ईश्‍वर सत्य है या सगुण साकार? इनमें से किसी भी एक संकल्पना को माननेवाले कई बार रामकृष्णजी के पास आते थे और रामकृष्णजी अपने तरी़के से, विभिन्न उदाहरण देकर उन्हें समझाते थे।

ईश्‍वर मूलतः निर्गुण निराकार है, लेकिन वह आवश्यकता तथा परिस्थिति के अनुसार अनेक सगुण साकार रूप भी धारण करता है। कुछ लोग इस निर्गुण निराकार परब्रह्म को साध्य करने के पीछे पड़ जाते थे; वहीं, उसके बारे में अनभिज्ञ होनेवाले कई लोग ईश्‍वर के विभिन्न रूपों को भजते थे।

कई बार निर्गुण निराकार को भजनेवाले लोग, सगुण रूपों को भजनेवालों को नीचा दिखाने की कोशिश करते थे; वहीं, सगुण रूपों को भजनेवाले कई बार, ये निर्गुण-निराकार-भजक निश्‍चित रूप से किसकी आराधना कर रहे हैं, यह समझ में ना आने के कारण उनसे दूर रहते थे।

जिस प्रकार, ‘निर्गुण निराकार ईश्‍वर ही केवल सच है’ ऐसा मानना ग़लत है, उसी प्रकार ‘हम जिन्हें भजते हैं उन मूर्तियों के-आकृति से परे ईश्‍वर नहीं है’ ऐसा मानना भी ग़लत ही है।

इसलिए – ‘केवल हमारा ही मार्ग (उदा. ‘निर्गुण परब्रह्म’, ‘सगुणभक्ति’ आदि) सही है और केवल हमारे मार्ग पर चलने से ही ईश्‍वरप्राप्ति हो सकती है’ ऐसे दावे करनेवालों को भी रामकृष्णजी खरी खरी सुनाते थे।

रामकृष्ण परमहंस, इतिहास, अतुलनिय भारत, आध्यात्मिक, भारत, रामकृष्ण‘निर्गुण निराकार परब्रह्म और सगुण साकार परमात्मा ये दरअसल एक ही हैं। लेकिन जितना आँखों को दिखता है, उतना ही सच है, ऐसा माननेवाले आम लोगों को इसकी कल्पना नहीं होती और वे प्रायः सगुण साकार की ही भक्ति करते हैं। इसलिए ‘निर्गुण राम’ और ‘राजा दशरथ के पुत्र राम’ ये दोनों भी मूलतः एक ही हैं, यह बात बहुत ही थोड़े ज्ञानीजनों को पता थी। लेकिन उससे, केवल दशरथपुत्र राम से प्रेम करनेवाले आम अयोध्याजनों का कुछ नुकसान नहीं हुआ। दरअसल सगुणसाकार रूप से प्रेम करने के कारण उनकी भक्ति में उत्कट भाव था और इस सगुणसाकार की भक्ति से ही अयोध्याजनों ने परमोच्च पद को प्राप्त किया। इसलिए जिसे जो मार्ग रास आता है, उसका अनुसरण वह करें। दूसरों की आलोचना ना करें’ ऐसा प्रतिपादन वे करते थे।

‘ईश्‍वर की ये दोनों स्थितियाँ यानी उस एक मूल परमेश्‍वर की ही दो अवस्थाएँ हैं, इस बात को समझनेवाले और यह बात मन से मान्य होनेवाले शिष्य रामकृष्णजी को विशेष प्रिय थे। इस बात को समझे हुए और मान्य किये हुए लोगों पर ईश्‍वर की कृपा है’ ऐसा वे कहते थे।

साथ ही, मक़्क़ारी की, ख़ासकर भक्तिमार्ग पर होने के बावजूद झूठापन-दिखावा करनेवालों से उन्हें चीढ़ थी।

केवल दिखावे के लिए या फिर कर्तव्यों की ओर पीठ फेरने के लिए संन्यासियों के भगवे वस्त्र पहननेवालों को भी रामकृष्णजी खरी खरी सुनाते थे। भक्तिमार्ग पर चलनेवाले ने को किसी भी प्रकार का झूठापन त्यागना चाहिए। भगवे वस्त्र चाहे कितने भी पवित्र क्यों न हों, पहननेवाले के मन में यदि उनसे मिलतीजुलती पवित्रता न हों, तो अनर्थ होकर धीरे धीरे उसका विनाश हो जाना तय है! पूर्ण और वास्तविक वैराग्य आये बग़ैर संन्यासी के भगवे वस्त्र को कोई धारण न करें।

किसी पर यदि दुख के पहाड़ टूट पड़ रहे हैं और वह दुख की मालिका ख़त्म ही नहीं हो रही है, तो ऐसी प्रदीर्घ समय तक टिकनेवाली स्थिति में धीरे धीरे उसे निराशा के चलते अस्थायी रूप में वैराग्य आ सकता है; लेकिन वह वास्तविक वैराग्य नहीं है। ऐसी वैराग्य लानेवाली परिस्थिति कल को बदल जाने के बाद उस वैराग्य का नामोनिशान तक नहीं रहता। इससे उल्टा, जिसके पास सबकुछ प्रचुर मात्रा में है, जीवन में नाममात्र भी दुख नहीं हैं, सबकुछ सुचारु रूप में चल रहा है; लेकिन ऐसा होने के बावजूद भी उसका मन इन सबमें नहीं लगता, ईश्‍वरप्राप्ति नहीं हो रही, इसलिए वह शोक कर रहा है। इस प्रकार से आनेवाले वैराग्य को वास्तविक वैराग्य समझना चाहिए।

भक्तिमार्ग पर प्रामाणिकता से चलनेवाले श्रद्धावान और भक्तिमार्ग पर कदम न रखे हुए अन्य लोग इनमें वही फ़र्क़ है, जो एक मधुमख्खी और सादी मख्खी (हाऊसफ्लाय) इनमें है। सादी मख्खी जिस तरह फूल पर बैठती है, उसी तरह मिठाई पर भी बैठती है और उसी तरह गंद पर भी बैठती है। वह अच्छे-बुरे का लिहाज़ नहीं करती। लेकिन मधुमख्खी केवल फूल पर ही बैठती है और केवल शहद ही सोंख लेती है। ऐसा ही फ़र्क़, भक्तिमार्ग पर होनेवाले और न होनेवाले इनमें है। भक्तिमार्ग पर होनेवाले को ‘वास्तविक’ आनन्द किसमें है, यह अचूकता से ज्ञात होता है। इसलिए उसे केवल भक्ति में से ही, ईश्‍वर से किये प्रेम से ही आनन्द प्राप्त होता है और वही सर्वोच्च होता है;

लेकिन भक्तिमार्ग पर न होनेवाला किसी भी तरह का लिहाज़ न रखते हुए, सभी प्रकार के भौतिक विषयों की ओर आकर्षित होकर उनके ज़रिये सुख प्राप्त करने की कोशिशें करते रहता है, फिर भी वह तृप्त नहीं होता, ऐसा रामकृष्णजी अनुरोधपूर्वक अपने शिष्यों से कहते थे।

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