परमहंस- ३७

वात्सल्यभक्ति, सख्यभक्ति, दास्यभक्ति ऐसे भक्ति के विभिन्न प्रकारों का रामकृष्णजी अपने इस आध्यात्मिक प्रवास में अनुभव कर रहे थे।

अब राणी राशमणि तथा मथुरबाबू – दोनों भी रामकृष्णजी की ओर अत्यधिक आदर के साथ देखने लगे थे। कई बार वे रामकृष्णजी की नित्यपूजा – उनकी अपनी पद्धति से – चलते समय मंदिर में आते। कभीकभार वहाँ अचानक धूप जलाया न होने पर भी वातावरण में धूप की गंध आती थी, तो कभी ऐसी ही कुछ अन्य बात का अनुभव होता था। रामकृष्णजी ने एक विशिष्ट आध्यात्मिक मुक़ाम हासिल किया है, इस बारे में राशमणि एवं मथुरबाबू को यक़ीन हो चुका था।

वात्सल्यभक्ति

लेकिन उन दोनों को हालाँकि इसमें कोई संदेह नहीं था कि रामकृष्णजी ने विशिष्ट आध्यात्मिक मुक़ाम हासिल किया है, मग़र फ़ीर भी इन सारे क्रियाकलापों में होनेवाली उनके शरीर की उपेक्षा उनसे देखी नहीं जा रही थी। कृश हो चुकी कदकाठी, गहरी आँखें, धुल से मलीन, स़ख्त हो चुके बाल ऐसी अवस्था में चले गये रामकृष्णजी को देखकर उन्हें बहुत दुख होता था।

लेकिन रामकृष्णजी को किसी भी बात से लेनादेना नहीं था। ना तो उन्हें प्राप्त हुए आध्यात्मिक मुक़ाम का आनंद था और ना ही बिगड़ी हुई तबियत का दुख। उन्हें तो बस्स यही फ़िक्र रहती थी कि कैसे माता के दर्शन हररोज़ हो सकेंगे? उसके बाद भी माता ने उन्हें कई बार दर्शन दिया, लेकिन ‘ये दर्शन मुझे हररोज़ क्यों नहीं होते, निरंतर क्यों नहीं होते’ इस विचार से उन्हें बेचैन कर दिया था।

उसी में अब, कालीमाता के उस दिव्य दर्शन के बाद उनके मन में उनके कुलदेवता रघुबीर यानी श्रीराम के बारे में विचार शुरू हुआ था। माता के दर्शन हो सकते हैं, तो रघुबीर के क्यों नहीं, यह विचार उनपर हावी हो गया था;

….और ‘श्रीराम को प्राप्त करने का राजमार्ग अर्थात् भक्तोत्तम, दास्योत्तम हनुमानजी का आचरण’ यह समीकरण वे जानते थे। इसलिए मुझे हनुमानजी का ही अनुकरण करना चाहिए, ऐसी उन्होंने ठान ली थी;

….और यह हनुमानजी का आचरण खुद में उतारने का विचार उनके मन में इस कदर दृढ़ हो गया था कि उनका साधा-सरल आचरण भी अनजाने में ही, सहजता से ही हनुमानजी की तरह होने लगा। वे अपनी धोती हमेशा की तरह परिधान करने के बजाय, हनुमानजी के लंगोट की तरह परिधान करनी शुरू की और उसकी एक छोर हनुमानजी की पूँछ की तरह वे पीछे से छोड़ देते थे। उन्होंने अब केवल फ़ल-कंदमूल का ही आहार करना शुरू किया – वह भी बिना छिलके निकाले! सीधी तरह चलना भी वे भूल गये; कहीं पर भी जाते समय वे कूदते हुए ही यहाँ से वहाँ चले जाते थे। उनका बहुत समय पेड़ों पर भी बीतने लगा।

लेकिन अहम बात तो यह थी कि हनुमानजी जिस आर्तता के साथ अपने स्वामी की ओर – श्रीराम की ओर देखते होंगे, उसी आर्तता से वे चारों ओर श्रीराम की दर्शनलालसा से देखते रहते थे, आर्ततापूर्वक ‘रघुबीर….रघुबीर’ ऐसे पुकारते रहते थे।

यहाँ पर किसी के मन में यह विचार आ सकता है कि ‘क्या इस तरह हनुमानजी की नक्ल करके हनुमानजी का अनुकरण किया जा सकता है?’ अन्य सामान्यजनों के बारे में शायद यह विचार जायज़ हो सकता है, लेकिन रामकृष्णजी के बारे में ऐसा कहना उचित नहीं होगा। क्योंकि वे अनुकरण करना चाहते थे ‘हनुमान-भाव’ का, उस आर्तता का – जिस आर्तता से वे हनुमानजी श्रीराम की राह तकते होंगे, जिस आर्तता से श्रीराम की सेवाभक्ति में रममाण हुए होंगे, उस हनुमानजी की श्रीराम के प्रति होनेवाली आर्तता का; एक ‘वानर’ के रूप में हनुमानजी से जो कृतियाँ होती होंगी, उन कृतियों का नहीं!

इसलिए यह नक़्ल नहीं थी, बल्कि उनका वह कूदते हुए चलना, पेड़ों पर चढ़ना, फ़ल-कंदमूल खाना यह सबकुछ उनसे स्वाभाविकता से ही, अनजाने में ही हो रहा था, केवल ‘हनुमान-भाव’ से भारित हो जाने के कारण!

आगे चलकर इस कालखंड के बारे में अपने शिष्यों के साथ बात करते हुए रामकृष्णजी ने यह भी कहा था कि ‘….अचरज की बात है कि उस दौर में मेरे पूच्छास्थिस्थान (कॉकिक्स) की हड्डी लगभग इंचभर से बढ़ी हुई होने की बात मेरे ध्यान में आयी थी। आगे चलकर जैसे इस अवस्था में से मैं धीरे धीरे बाहर आ गया, वैसे वैसे वह उभार कम होते होते नष्ट हो गया!’

रामकृष्णजी का – कालीमंदिर के प्रमुख पुजारी का यह सारा बर्ताव देखकर गुस्से से आगबबूला हो रहे अन्य पुरोहितवृंद तथा कर्मचारीवृंद, केवल राशमणि तथा मथुरबाबू ने पहले ही स़ख्त चेतावनी दी होने के कारण – उनके धाक के कारण चुपचाप बैठा था।

लेकिन रामकृष्णजी को उसकी फ़िक्र नहीं थी। वे केवल ‘रघुबीर’दर्शनलालसा से बेचैन हो उठे थे।

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