परमहंस-११८

रामकृष्णजी की शिष्यों को सीख

सांसारिक इन्सानों के लिए रामकृष्णजी के उपदेश अत्यधिक सीधेसादे-सरल हुआ करते थे – ‘यह गृहस्थी भी उस ईश्‍वर ने ही उन्हें प्रदान की है, इस बात का एहसास सांसारिक लोग रखें और इस कारण विश्‍वस्तबुद्धि से (‘ट्रस्टीशिप’), लेकिन प्यार से गृहस्थी निभायें। अपने परिजनों के प्रति रहनेवाले अपने कर्तव्य प्रेमपूर्वक निभायें। ईश्‍वर को न भूलें। अपने सांसारिक कृत्य करते समय ही जैसा बन पड़ें वैसा ईश्‍वर का नामस्मरण करते रहें। किसी संन्यासी ने निरन्तर नामस्मरण करना, ईश्‍वर का स्मरण रखना इसके कोई बड़ी बात नहीं है। दरअसल वही उससे अपेक्षित है, क्योंकि उसे अन्य कोई सांसारिक कर्तव्यों को निभाना नहीं होता। लेकिन सांसारिक लोगों ने अपनी विवंचनाओं में से समय निकालकर यदि ईश्‍वर का नामस्मरण किया, तो वह यक़ीनन ही ख़ास है।

….और यह नामस्मरण करते हुए, सांसारिक कर्तव्यों के बीच भी ईश्‍वर का स्मरण रखते हुए धीरे धीरे उस ईश्‍वर को अपने जीवन के केंद्रस्थान में प्रतिष्ठित करें; यानी किसी भी मामले में पहली प्राथमिकता ईश्‍वर को दें। बच्चों को बचपन से ही ईश्‍वर से प्रेम करना सिखायें, जिससे उनके मन धीरे धीरे अच्छे-बुरे में फ़र्क़ करने के लिए सक्षम बन जायेंगे। जीवन में कोई भी कर्म करते समय – ‘यह जो मैं करने जा रहा हूँ, क्या वह मेरे ईश्‍वर को पसन्द आयेगा’ इस कसौटी पर उस कर्म को घीसकर देखें। एक बार मनुष्यजन्म प्राप्त हुआ ही है, तो कामक्रोधादि षड्रिपु – किसे कम मात्रा में, किसे अधिक मात्रा में – परेशान करने ही वाले हैं। इसलिए उनका प्रमाण मूलतः ही कम से कम रखने के प्रयास करें और यह ईश्‍वरभक्ति को बढ़ाते रखने से ही संभव होगा।’

रामकृष्ण परमहंस, इतिहास, अतुलनिय भारत, आध्यात्मिक, भारत, रामकृष्णलेकिन कोई गृहस्थाश्रमी व्यक्ति यदि सांसारिक परेशानियों से ऊबकर संन्यास धारण करने का विचार कर रहा हो, तो उस व्यक्ति को उससे परावृत्त करने के वे प्रयास करते थे।

लेकिन जिनका बचपन से ही संसार की ओर कम रूझान हो और ईश्‍वरप्राप्ति की चाह जिनमें अधिक हो, ऐसे लोगों को वे अधिक से अधिक आध्यात्मिक मार्ग की ओर मुड़ने के लिए उत्तेजन देते थे। ऐसे लोगों ने यदि शादी न कर आजन्म ब्रह्मचारी रहने का फ़ैसला किया, तो वे खुश हो जाते थे। लेकिन फिर ऐसे लोगों के लिए ‘नियम’ भी अधिक स़ख्त रहते थे।

रामकृष्णजी के बहुत ही क़रीबी शिष्यों में से एक होनेवाले ‘नित्यगोपाल’ को उन्होंने एक बार इसी तरह की सलाह दी थी। दरअसर, रामकृष्णजी के चरणों से एकनिष्ठ होनेवाले नित्यगोपाल ने रामकृष्णजी के मार्गदर्शन में पहले ही अध्यात्म में बहुत बड़ा मुक़ाम हासिल किया था और उसके प्रामाणिक ईश्‍वरनिष्ठा की मिसाल भी कई बार अपने शिष्यों के सामने रखते थे। ऐसा होते हुए रामकृष्णजी ने एक बार उसे, उसके संपर्क में होनेवाली एक स्त्री से संपर्क कम करने की सलाहरूपी आज्ञा दी थी। दरअसल वह नित्यगोपाल की आप्त महिला उम्र में उससे बड़ी होकर वह भी भक्तिमार्ग में ही थी और नित्यगोपाल से सन्तान की तरह प्रेम करनेवाली थी; और नित्यगोपाल इतनी कम उम्र में इस मार्ग पर चल रहा है, इसका उसे कौतुक भी था। लेकिन फिर भी रामकृष्णजी ने उसे उस महिला के बारे में ऐसी सलाह दी।

अन्य शिष्यों को अचरज हुआ कि ‘जिसके बारे में रामकृष्णजी भी इकने कौतुक के साथ हमेशा बोलते रहते हैं, उस – इतनी ऊँचाई पर पहुँचे हुए साधक का क्या कभी इस क़दर पैर फिसल सकता है? इतने स़ख्त नियम?’

उसपर रामकृष्णजी ने यह स्पष्टीकरण दिया था कि ‘कनक’ और ‘कान्ता’ इन दो बातों के ज़रिये वह माया अच्छे-अच्छों को मिट्टी में मिला देती है। इस कारण संन्यासियों ने तो इस मामले में अधिक ही एहतियाद बरतने चाहिए। संन्यासीमार्ग पर चलनेवाला साधक किसी भी प्रकार के बन्ध निर्माण ना करें, फिर चाहे वह महिला आज उससे माँ की तरह प्रेम करनेवाली क्यों न हों। संन्यासी को, वैषयिक पाश तो जाने ही दो, लेकिन रिश्तों के – ममता के पाश भी निर्माण करने नहीं चाहिए।’

इसीके साथ उन अन्य शिष्यगणों को, रामकृष्णजी को अपने शिष्यों के प्रति होनेवाली ममता का पुनः एक बार एहसास हुआ कि आज हालाँकि नित्यगोपाल को उस महिला से वैसा ख़तरा नहीं है, मग़र कलियुग के बढ़ते प्रभाव के कारण भविष्य क्या सामने लेकर आयेगा किसे पता, यह जानकर, उस समय वह (नित्यगोपाल) अपने ईश्‍वरप्राप्ति के ध्येय से विचलित न हों इसके लिए रामकृष्णजी ने उसे पहले ही आगाह किया था।

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