परमहंस-११३

रामकृष्णजी की शिष्यों को सीखसद्गुरुतत्त्व की, उस ईश्‍वरी तत्त्व की करनी अगाध होती है, कई बार वह अतर्क्य, विपरित प्रतीत हो सकती है। इसलिए उसका अर्थ लगाने के पीछे मत पड़ जाना, यह बात अंकित करने के लिए रामकृष्णजी ने एकत्रित शिष्यगणों को एक कथा सुनायी –

‘एक मनुष्य घने जंगल में जाकर नित्यनियमपूर्वक कालीमाता का पूजन-अर्चन, ध्यानधारणा आदि करता था। ऐसे ही वह एक दिन उस जंगल में गया। उसने साथ लायी पूजा की सारी सामग्री को सुचारू रूप से रख दिया और अब पूजन शुरू करने ही वाला था कि तभी वहाँ एक बाघ आया और उसने उस? भक्त को मार दिया। इसी दौरान वहाँ पर आये एक आदमी ने वह सारी घटना देखी और बाघ के डर से वह एक पेड़ पर जा बैठा।

उस पूजक को मारकर वह बाघ चला गया और वहाँ सब सूनसान होने के बाद थोड़े ही समय में वह पेड़ पर चढ़ा आदमी हिम्मत कर नीचे उतरा। आहिस्ता आहिस्ता वह उस पूजक के पूजास्थान तक गया। वहाँ उसे पूजन की सारी सामग्री सुचारू रूप से रखकर पूजन की सारी सिद्धता की हुई दिखायी दी।

रामकृष्ण परमहंस, इतिहास, अतुलनिय भारत, आध्यात्मिक, भारत, रामकृष्णउस सामग्री का इस्तेमाल कर मैं पूजा करूँ, ऐसा खयाल उसके दिल में आया। उसे हालाँकि पूजन-अर्चन की कुछ ख़ास जानकारी नहीं थी, मग़र फिर भी उसने हाथ-पैर धोकर तेढ़ी-मेढ़ी पद्धति से जैसे तैसे पूजा की।

पूजन खत्म हो जाते ही उसके सामने कालीमाता प्रकट हुई। वह आदमी यह सारा घटनाक्रम देखकर अवाक् हुआ था। कालीमाता ने प्रसन्न होकर उसे कुछ वरदान माँगने के लिए कहा। उसने माता के चरणों में लोटांगण कर एक प्रश्‍न पूछा – ‘इस पूजक ने इतनी मेहनत कर यह सारी सामग्री इकट्ठा करके पूजन की तैयारी की। वह तुम्हारे दर्शन नहीं कर सका; और मैं….तुम्हारी कुछ ख़ास भक्ति किये बिना ही, कभी पूजाअर्चा भी किये बिना ही, मुझे पूजन की कुछ ख़ास जानकारी न होने के बावजूद भी या फिर इस पूजन के लिए ज़रासे भी परिश्रम न किये होने के बावजूद भी तुमने प्रसन्न होकर मुझे साक्षात् दर्शन दिए।! यह कैसे हुआ?’

कालीमाता ने प्रसन्न होकर उत्तर दिया, ‘‘मेरे बच्चे! तुम्हें तुम्हारे पूर्वजन्म ज्ञात नहीं हैं। उन जन्मों में तुमने मेरी कृपा प्राप्त करने के लिए अपार परिश्रम किये थे। उसके फलस्वरूप तुम्हें आज यह सब अनायास प्राप्त हुआ और मेरे दर्शन की प्राप्ति हुई।’’

यह कथा बताकर रामकृष्णजी ने यही जताया कि एक बार सद्गुरु का आश्रय करने पर अपने जीवन में जो कुछ भी होता है, वह उसी की इच्छा से होता है; वह चाहे कितना भी विपरित प्रतीत क्यों न होता हो, वही हमारे लिए सही रहता है।

कई बार रामकृष्णजी के कुछ शिष्यों के मन में – ‘ईश्‍वरप्राप्ति के लिए की जानेवाली साधना के मार्ग में स्त्रियाएँ रोड़ा बनती हैं’ ऐसी ग़लतफ़हमी बढ़ती रहती थी, उसे भी रामकृष्णजी दूर करते थे कि ‘दोष स्त्रियों में न होकर दोष देखनेवाले की नज़र में होता है। तुम्हें यदि ईश्‍वरप्राप्ति करनी है, तो तुम क्यों उनकी ओर ध्यान देते हो? जब ईश्‍वरप्राप्ति के लिए होनेवाली तुम्हारी उत्कटता बढ़ने लगेगी, वैसे वैसे स्त्रियाएँ तुम्हें भक्तिमार्ग में रोड़ा प्रतीत नहीं होंगी; और उसी समय तुम यह जान जाओगे की स्त्री यह उन आदिशक्ति का ही एक अंशाविष्कार है। हर एक स्त्री में वह देवीमाता अंशरूप में है ही।’

ऐसी ही सोच होनेवाले ‘हरिनाथ’ (यह आगे चलकर रामकृष्णजी के पट्टशिष्यों में से एक बनकर, ‘स्वामी तुरियानंद’ के नाम से विख्यात हुआ) नामक शिष्य को भी रामकृष्णजी ने खरी खरी सुनायी। हरिनाथ का रूझान बचपन से ही भक्तिमार्ग की ओर था और बचपन से ही उसके मन में विरक्ति पैदा हुई थी। हररोज़ सुबह सूर्योदय से पहले उठना, गीतापाठ करना, गंगास्नान करना, खुद का खाना अपने हाथों से ही पकाना ऐसा उसका दिनक्रम था। लेकिन संन्यासी वृत्ति से मार्गक्रमणा कर ईश्‍वरप्राप्ति कर लेना यह ध्येय होने के कारण उसे ‘स्त्रियाएँ’ यह अपने मार्ग का रोड़ा प्रतीत होती थीं और स्त्रियों के प्रति उसके दिल में ऩङ्गरत पैदा हुई थी। ‘छोटी बालिकाओं का भी मेरे पास आना मैं पसन्द नहीं करता’ ऐसा उसने एक बार रामकृष्णजी से कहा। तब रामकृष्णजी ने उसे खरी खरी सुनायी – ‘यह क्या तुम मूर्खतापूर्ण बातें कर रहे हो? देवीमाता का ही अंश जिनमें है, ऐसे स्त्रियों से तुम क्यों नफ़रत करते हो? तुम्हें यदि उस संन्यासी मार्ग से जाना है, तो तुम स्त्री को अपनी ‘माता’ मानो; फिर तुम्हें तुम्हारे मार्ग में वे कभी भी रोड़ा प्रतीत नहीं होंगी।’

रामकृष्णजी के उपदेश से मेरा स्त्रीविषयक सारा दृष्टिकोण ही बदल गया, ऐसा हरिनाथ ने आगे चलकर इस प्रसंग के बारे में बताते हुए कहा था।

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