परमहंस-११६

रामकृष्णजी की शिष्यों को सीख

एक बार रामकृष्णजी से मिलने आये एक बैरागी से उन्होंने – ‘तुम कैसे भक्ति करते हो’ ऐसा पूछा। उसपर उसने – ‘मैं केवल नामस्मरण करता हूँ, क्योंकि हमारे शास्त्रों द्वारा कलियुग में ईश्‍वरप्राप्ति का वही प्रमुख साधन बताया गया है’ यह जवाब दिया।

‘सच कहा तुमने’ रामकृष्णजी ने कहा, ‘लेकिन महज़ मुँह से, सूखा नामस्मरण करके फ़ायदा नहीं। मुँह से यांत्रिकता से (‘मेकॅनिकली’) नामस्मरण चल रहा है और मन में ईश्‍वर के अलावा अन्य अनगिनत विचार चल रहे हैं, तो उस नामस्मरण का कुछ भी उपयोग नहीं है। लेकिन ऐसा हरगिज़ नहीं है की इस कारण गृहस्थाश्रमी लोग नामस्मरण करें ही नहीं। केवल, मन में दस विचारों के चलते केवल मुँह से यांत्रिकतापूर्वक किये हुए भावनाहीन नामस्मरण का उतना प्रभाव नहीं पड़ता, जितना कि मन लगाकर किये नामस्मरण का पड़ेगा, यही मैं कहना चाहता था। उस नामस्मरण का यदि अधिक से अधिक लाभ चाहिए, तो नामस्मरण करते समय ईश्‍वर से ही प्रार्थना करना कि ‘हे ईश्‍वर, मुझे तुम्हारी भक्ति दो, तुम्हारा प्रेम दो। भौतिक सुखोपभोगों पर की मेरी इच्छा धीरे धीरे कम होती जायें।’ उसी से ईश्‍वर की कृपा हमारे जीवन में प्रवेश करेगी और ईश्‍वर की कृपा ही इन्सान का प्रारब्ध धो सकती है। ईश्‍वर से जो सच्चा प्रेम करता है, उस मनुष्य का पाप करने की ओर रूझान धीरे धीरे कम होते जाता है, इसलिए ईश्‍वर के पास वही माँगना चाहिए।’

रामकृष्ण परमहंस, इतिहास, अतुलनिय भारत, आध्यात्मिक, भारत, रामकृष्ण‘कुछ ख़ास भक्ति न होनेवाले, सर्वसाधारण घर में जन्में लोगों पर बचपन में संस्कार भी वैसे ही होंगे, फिर वे भक्तिमार्ग की ओर कैसे मुड़ेंगे?’ ऐसा प्रश्‍न पूछा जाने पर रामकृष्णजी ने उत्तर दिया –

‘कोई मटर गंद में पड़ता है। कुछ दिन बात वह मटर अंकुरित होता है, तो उसमें से मटर का ही पौधा तैयार होता है। चूँकि वह गंद में पड़ा था इसलिए उसमें से कुछ अलग पौधा तयार हुआ, ऐसा तो नहीं होता है। वैसे ही, किसी का भक्तिमार्ग की ओर रूझान रहना या न रहना इसपर हालाँकि घर के माहौल का थोड़ाबहुत प्रभाव ज़रूर पड़ता है, लेकिन उस जीव की मूल प्रवृत्ति, उसे इस जन्म में आनेवाले अनुभव और उनके अनुसार उसके मन का बननेवाला आकार, साथ ही, उसके पिछले जन्मों में उसके द्वारा की गयी भक्ति, ऐसी बहुत सारी बातों पर वह निर्भर करता है।’

अपने कुछ शिष्यों के घरों में भी भक्ति के लिए पोषक वातावरण न होने के बावजूद भी, घर में भक्ति करने के लिए विरोध होते हुए भी, वे भक्तिमार्ग में कैसे दृढ़ हुए हैं और भक्तिमार्ग में किस तरह तेज़ी से प्रगति कर रहे हैं, यह जताने के लिए रामकृष्णजी ने, वेदों में वर्णित एक ‘होम’ नामक पक्षी के रूपक का उदाहरण दिया –

‘यह पक्षी आकाश में ही बहुत ही ऊँचाई पर रहता है और वहीं पर अपने अंडें डालता है। ज़ाहिर है, यह अंड़ा डाला जाने के तुरन्त बाद नीचे पृथ्वी की दिशा में गिरने लगता है। लेकिन यह पक्षी इतनी ऊँचाई पर रहता है कि उस अंड़े के नीचे गिरने के प्रवास के दौरान ही वह ऊबकर फूट जाता है और उसमें से इस होम पक्षी का बच्चा जन्म लेता है और वह भी नीचे की ओर गिरने लगता है। इस पक्षी के बच्चे का यह नीचे की दिशा का प्रवास भी इतनी ऊँचाई पर शुरू हुआ होता है कि पृथ्वी के नज़दीक आने तक उसकी आँखें भी खुलीं होती हैं और उसके पंखों में ताकत भी आयी रहती है। जिस पल वह बच्चा पृथ्वी की ओर देखता है और उसकी समझ में आ जाता है कि अब वह कुछ ही देर में ज़मीन पर पटककर मर जानेवाला है, तब वह सारा ज़ोर लगाकर उल्टी (ऊर्ध्व) दिशा में – यानी गुरुत्वाकर्षण की विरुद्ध दिशा में – अपनी माँ की दिशा में उड़ना शुरू करता है। उस बच्चे का अब एक ही लक्ष्य होता है – अपनी माँ तक पहुँचना।

उस ‘होम’ पक्षी के बच्चे की तरह ही इन शिष्यों ने भी एक ही लक्ष्य रखा कि अपनी माँ तक अर्थात् ईश्‍वर तक जा पहुँचना ही है और वह यदि नहीं किया, तो हम नीचे ज़मीन पर पटककर अर्थात् इस भवसागर में गोते खाकर मरने ही वाले हैं, यह वे जानते थे। ईश्‍वरप्राप्ति कर लेने के उनके इस दृढ़निश्‍चय के बलबूते पर ही – आसपास के सभी घटक भक्ति के विरोध में होने के बावजूद भी वे भक्तिमार्ग पर तेज़ी से प्रगति कर सके।’

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