परमहंस-४७

मथुरबाबू को रामकृष्णजी में भगवान शिव के एवं साक्षात् कालीमाता के दर्शन हुए, यह ख़बर राणी राशमणि तक पहुँची और उसके मन में रामकृष्णजी के प्रति रहनेवाली सम्मान की भावना कई गुना बढ़ गयी।

रामकृष्णजी के वापस आने से, मंदिर की खोयी हुई चेतना फिर से लौटी है ऐसा उसे लग रहा था। फिर भी वह उन दिनों थोड़ी-सी अंतर्मुख ही रहती थी। उम्र के साठ साल बीतने के बाद उसके स्वास्थ्य की तक़रारें भी शुरू हुई थीं। लेकिन कुल मिलाकर जीवन सार्थक हुआ है, ऐसा वह महसूस कर रही थी।

‘ईश्‍वर ने मुझे जो भूमिका सौंपी थी, वह मेरे द्वारा सुचारू रूप से निभायी गयी। कालीमाता का भव्य तथा जागृत मंदिर तो बन ही गया; साथ ही, रामकृष्णजी जैसा अनमोल रत्न इस मंदिर के साथ जुड़ा जाने के लिए मैं एक साधन बनी’ इस विचार के साथ राशमणि को संतोष महसूस हो रहा था।

अभी भी कुछ छोटी छोटी बातें करनीं बाक़ी थीं। वे एक बार यदि हो जातीं हैं, तो मैं इस दुनिया से विदा ले सकती हूँ, ऐसे विचार उसके मन में चल रहे थे।

भगवान शिव

उन्हीं में से एक थी, मंदिर के भविष्यकालीन प्रबंध की योजना। ‘देवीमाता की इच्छा एवं आज्ञा के अनुसार मंदिर बनकर तैयार तो हुआ। मेरे जीवनकाल में उसका खयाल भी सुचारू रूप में रखा गया। लेकिन भविष्य में क्या होगा यह कहा नहीं जा सकता। इस कारण मेरे पश्‍चात् मंदिर की व्यवस्था को किसी पर भी निर्भर रहना न पड़ें’ यह ध्यास राशमणि के मन ने लिया था और उसी दृष्टि से उसके सारे क्रियाकलाप चल रहे थे। अब उसे जीवन की शाम नज़र आने लगी थी; अत एव इस मामले में अब जल्दी करना आवश्यक है, ऐसा उसे लग रहा था।

सबसे पहले उसने, उसकी बहुत बड़ी इस्टेट में से कुछ हिस्सा इस मंदिर को दान में देने का फैसला किया और उसके अनुसार सुयोग्य ऐसा दानपत्र (‘गिफ्ट डीड’) बनाने के काम में वह जुट गयी। हालाँकि तबियत साथ नहीं दे रही थी, मग़र फिर भी स्वयं सहभाग लेकर बहुत ही बारिक़ी से उसने वह दस्तावेज़ तैयार किया। भविष्य में इस मामले में किसी भी प्रकार का झगड़ा उपस्थित होकर मंदिर को परेशानी न हों इसलिए उसने दानपत्र के हर एक मुद्दे के बारे में सारी संभावनाओं को ध्यान में लेते हुए और उसके अनुसार दस्तावेज़ों के मुद्दों में कई बार फेरफार करने के बाद ही दानपत्र को अंतिम स्वरूप दिया था।

उसके बाद, केवल इस मामले के ही नहीं, बल्कि कुल मिलाकर सारी इस्टेट की देखभाल के अधिकार मथुरबाबू के पास रहनेवाले थे।

दस्तावेज़ उसकी इच्छा के अनुसार बनकर तैयार हो गया। उसकी छोटी बेटी यानी मथुरबाबू की पत्नी ने बिना कोई तक़रार किये उसपर दस्तख़त किये।

लेकिन….लेकिन बड़ी बेटी पद्मामणि ने उसपर दस्तख़त करने से यानी इस्टेट के उस भाग पर का अपना हक़ छोड़ने से इन्कार कर दिया।

जिसे अपने बचेकुचे जीवन का अंतिम महत्त्वपूर्ण काम राशमणि मान रही थी, उसमें ही यह बाधा उत्पन्न हो जाने के कारण स्वाभाविक रूप से राशमणि को बड़ी ठेंस पहुँची और वह बीमार पड़ गयी। यह बीमारी बढ़ती ही चली गयी। अपनी आख़िरी घड़ी अब नज़दीक आयी है इस बात का उसे पता चल गया था, ऐसा कहा जाता है। उसकी मृत्यु के कुछ ही समय पहले, उसके कहने पर उसे गंगाकिनारे ले जाया गया। ऐसा कहा जाता है कि कुल मिलाकर उसके – जैसे छोटा बच्चा माँ को गोद में उठाने के लिए हाथ उठाकर कहता है, उस प्रकार के आविर्भाव से और चेहरे पर छाये आनंद से ऐसा लग रहा था, जैसे उसकी प्रिय कालीमाता ही उसे ले जाने के लिए आयी हो! लेकिन ऐसा कहते हैं कि ऐसी अवस्था में भी उसने, अपनी बड़ी बेटी दस्तावेज़ पर दस्तख़त करने से इन्कार कर रही है यह कालीमाता को बताकर, माता को ही आगे का खयाल रखने के लिए कहा और उसके प्राणपँखेरू उड़ गये।

दक्षिणेश्‍वर कालीमंदिर से संबंधित एक बहुत बड़े अध्याय की समाप्ति हो चुकी थी। ‘रामकृष्ण’ इस रत्न को दुनिया के सामने लाने में जिन व्यक्तियों का हाथ था, उनमें राणी राशमणि का नाम बहुत ही सम्मान के साथ लिया जाता है।

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